-शीतांशु कुमार सहाय
आनन्द एक ऐसा शब्द है जिस का विपरीतार्थक शब्द नहीं होता। आनन्द की प्राप्ति ही जीवन का उद्देश्य है। जीवन में आनन्द की अनुभूति के उपाय कई ग्रन्थों में बताये गये हैं। यहाँ मैं ‘श्रीमद्देवीभागवत पुराण’ की चर्चा कर रहा हूँ। इस ग्रन्थ में आदिशक्ति ने अपने दुर्गा अवतार के दौरान बताया है कि मनुष्य किस प्रकार दस उपायों के सहारे जीवन को आनन्दपूर्ण बना सकता है। सफल जीवन का आनन्द लेने के लिए आप भी नीचे बताये गये दस उपायों पर अमल करें और इस सम्बन्ध में अपने मित्रों-रिश्तदारों को भी बतायें।
तपः सन्तोष आस्तिक्यं दानं देवस्य पूजनम्।
सिद्धान्तश्रवणं चैव ह्रीर्मतिश्च जपो हुतम्।।
श्रीमद्देवीभागवत पुराण के उपर्युक्त श्लोक में भगवती दुर्गा ने समझाया है कि तप, सन्तोष, आस्तिकता, दान, देवपूजन, शास्त्र के सिद्धान्तों को सुनना, लज्जा, सद्बुद्धि, जप और हवन करने से सहज ही जीवन को आनन्दपूर्ण बनाया जा सकता है।
अब इन दस बिन्दुओं को संक्षेप में समझते हैं-
१. तप- परिश्रम को तप कहते हैं। आत्मप्रगति के लिए किया गया वैसा परिश्रम जिस से किसी को हानि न हो, मन शान्त और इच्छाएँ सीमित होने लगें, उसे ही तप या तपस्या कहा जाता है। योग की भाषा में इसे ध्यान कहते हैं। तप या ध्यान से जहाँ मन शान्त होता है, वहीं कई लौकिक और अलौकिक लाभ होते हैं। ध्यान से मन एकाग्र होता है, केन्द्रित हो जाता है। इस कारण किसी भी विषय को समझने और जटिल मुद्दों को सुलझाने में सहायता मिलती है। कई मानसिक और शारीरिक रोगों का भी नाश तप यानी ध्यान से सम्भव है। मन के शान्त, एकाग्र और केन्द्रित होने से जीवन की प्रत्येक समस्या का समाधान आसानी से निकाला जा सकता है।
२. सन्तोष- सन्तुष्टि का ही पर्याय है सन्तोष। जिस के पास सन्तोष है, उसे सन्तोषी कहा जाता है। आप भी सन्तोषी बनेंगे तो जीवन आनन्दपूर्ण होने लगेगा। तप यानी ध्यान से जब मन शान्त होने लगता है, तब सन्तोष का फल प्राप्त होना आरम्भ होता है। यह सर्वविदित है कि इच्छाएँ अनन्त हैं। प्रत्येक इच्छा को पूरा कर पाना सम्भव नहीं है। जब इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं तो दुःख होता है। दुःख की यह स्थिति असन्तोष के कारण उत्पन्न होती है। असन्तोष के कारण मनुष्य लालच और घृणा जैसी कई बुराइयों का शिकार हो जाता है और ग़लत यानी असामाजिक कार्य करने लगता है। इस तरह जीवन कष्टपूर्ण हो जाता है। सन्तोष की भावना मन में रखें और आनन्द का अनुभव करें।
३. आस्तिकता- सफल जीवन के लिए आस्तिकता की भावना होना बहुत ही ज़रूरी है। आस्तिकता का सामान्य अर्थ है- गुरु और भगवान के प्रति सम्मान और उन में विश्वास रखना। आनन्दपूर्ण जीवन जीना है तो आप हमेशा गुरु के बताये मार्ग पर चलें और देवी-देवताओं का स्मरण करते रहें, उन की पूजा करंे। अनावश्यक भूखे रहकर गुरु या भगवान की पूजार्चना करना आवश्यक नहीं है। जो ऐसा करते हैं, वे आस्तिकता का ढोंग कर रहे हैं। ऐसा करने से उन्हें पुण्य नहीं मिलेगा; क्योंकि वह भूखा रखकर भगवान के दिये हुए शरीर को अनावश्यक कष्ट पहुँचाते हैं। पूजा या तप के दौरान भूखे व्यक्ति का ध्यान गुरु या भगवान की छवि पर कम और भोजन पर ज़्यादा होता है। इस कारण भी वह पुण्य का भागीदार नहीं होता। इसलिए आस्तिकता की प्रक्रिया को निभाने के दौरान भगवान विष्णु के नौवें अवतार भगवान बुद्ध के बताये मध्यम मार्ग का ही अनुसरण कीजिये।
४. दान- भौतिक या अभौतिक वस्तुओं का दान देने का विधान धर्म में है। भोजन, वस्त्र, आवास या सुख-सुविधाओं की वस्तुओं के दान भौतिक दान की श्रेणी में हैं। गुरु द्वारा दिया गया ज्ञान, किसी को पढ़ाना, ज्ञान की बात सिखाने और रहस्य समझाने जैसी घटनाएँ अभौतिक दान हैं। किसी को दी गयी वस्तु के बदले में यदि द्रव्य या शुल्क लिये जायें तो वह दान की श्रेणी में नहीं आता। ग्रन्थों में कहा गया है कि अगर दायें हाथ से दान दिये जायें तो बायें हाथ को भी पता न चले, मतलब यह कि दान का कदापि प्रचार नहीं करना चाहिये। जो अपने का दानवीर के रूप में प्रचारित करते हैं, उन्हें दान का पुण्य प्राप्त नहीं होता। वास्तव में दान करने से पुण्य मिलता है और ग्रहों के दोष भी दूर होते हैं।
५. देवपूजन- आदिशक्ति अर्थात् भगवान ने अपने को कई देवी-देवताओं के रूप में व्यक्त किया है। सृष्टि के अलग-अलग कार्यों के संचालन के लिए उन्होंने अलग-अलग रूप धारण किये जिन्हें देव या देवी के कई नामों से जाना जाता है। भगवान ने श्रीमद्भगवद्गीता’ में स्पष्ट कहा है कि देवताओं या देवियों के रूप में भी लोग उन्हें ही पूजते हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट हुआ कि सभी देवी-देवता एक ही हैं, केवल नाम अलग हैं। देवपूजन से पारिवारिक सुख-शान्ति के साथ पुण्य की प्राप्ति होती है। पर, आनन्दपूर्ण जीवन के लिए इच्छापूर्ति या कामनाओं की सिद्धि के लिए देवपूजन नहीं करना चाहिये। हालाँकि देवपूजन से कामनाओं की पूर्ति होती है मगर निष्काम देवपूजन अधिक फलदायी होता है।
६. शास्त्र के सिद्धान्तों को सुनना- धर्म ग्रन्थों, पुराणों और अन्य शास्त्रों में ज्ञान के भण्डार भरे पड़े हैं। ये ज्ञान जीवन को सार्थक और आनन्दपूर्ण बनाने में सक्षम हैं। इसलिए शास्त्रों का अध्ययन अवश्य करना चाहिये और उन में निहित ज्ञान को आत्मसात् करना चाहिये। अगर पढ़ना सम्भव न हो तो किसी अच्छे जानकार से शास्त्रों के सिद्धान्त सुनकर शास्त्रसम्मत कार्य ही कीजिये और जीवन में सकारात्मक बदलाव महसूस कीजिये। शास्त्रों के नियमों पर चलने से दुःख दूर होते हैं और जीवन सुखमय बनता है। आधुनिकता में रमे हुए लोग शास्त्रों के सिद्धान्तों को बेकार समझने की भूल कर बैठते हैं जबकि सच यह है कि शास्त्रों की बातें आज भी उतने ही उपयोगी हैं, जितने तब थे। जीवन की कठिनाइयों को दूर करने क उपाय ग्रन्थों में दिये गये हैं। कोरोना काल में पूरे विश्व ने भारतीय ग्रन्थों में दी गयी स्वास्थ्यपरक सिद्धान्तों को आज के सन्दर्भ में भी पूरी तरह सच पाया और उन्हें अपनाकर कोविड-१९ (COVID-19) के संक्रमण से बचे रहे। हाथ मिलाकर अभिवादन करने की आधुनिक रीति को छोड़कर लोग भारतीय ग्रन्थों में दी गयी हाथ जोड़कर प्रणाम या नमस्कार करने की शैली को अपनाया। यही नहीं कहीं बाहर से घर में आने पर हस्तप्रक्षालन (हाथों की सफाई) और पादप्रक्षालन (पैरों की सफाई) के सिद्धान्त को अपनाकर ही पूरे संसार के लोग नोवेल कोरोना विषाणु (Novel Corona Virus) के संक्रमण को रोकने में सक्षम हो पाये। ग्रन्थ की बातों पर अमल करने से पुण्य की भी प्राप्ति होती है।
७. लज्जा- लज्जा व्यापक अर्थ वाला शब्द है- बड़ों से लज्जा, छोटों से लज्जा, कानून से लज्जा, समाज से लज्जा। जीवन को खुशनुमा बनाये रखने के लिए व्यवहार में लज्जा का समावेश होना आवश्यक है। माँ दुर्गा ने समझाया है कि जिस मनुष्य में लज्जा का भाव नहीं होता वह असामाजिक होता है। लज्जाहीन अर्थात् बेशर्म लोग की तुलना पशु से की गयी है जो किसी भी तरह का दुष्कर्म कर सकता है। दुष्कर्मी स्वयं भी अपमानित होता है और परिजनों को भी अपमानित होना पड़ता है। लज्जा या शर्म ही मनुष्य को सही और ग़लत, उचित और अनुचित में फ़र्क करना सिखाती है। अगर आप अपने व्यवहार में लज्जा को शामिल करेंगे तो हर जगह आप की प्रतिष्ठा होगी।
८. सद्बुद्धि- बुद्धि दो प्रकार के होते हैं- सद्बुद्धि और दुर्बुद्धि। जो विकास और सही मार्ग पर ले जाये, वह सद्बुद्धि है और जो ग़लत मार्ग की ओर प्रेरित करे, वह दुर्बुद्धि है। बुद्धि हमारी विचार-शक्ति को प्रभावित करती है। सद्बुद्धि से अच्छा सोच और दुर्बुद्धि से बुरा सोच प्रकट होता है। जैसा सोच होगा, वैसा ही स्वभाव होगा। स्वभाव ही कार्य को प्रभावित करता है। भगवती दुर्गा ने सद्बुद्धि अपनाने का आदेश दिया है। सद्बुद्धि वाला मनुष्य धर्म का पालन करनेवाला होता है और उस की बुद्धि कभी ग़लत कार्य की ओर नहीं जाती। इसलिए हमेशा सद्बुद्धि के अनुसार कार्य करना चाहिये। किसी भी मनुष्य को अच्छा या बुरा उस की बुद्धि ही बनाती है। अच्छा सोच रखनेवाला मनुष्य जीवन में सदैव सफल होता है। बुरे विचारवाले लोग कभी उन्नति नहीं कर पाते।
९. जप- कलियुग में भगवान के नाम का जप अन्य युगों की अपेक्षा अधिक कल्याणकारक बताया गया है। इस कारण पाप कटते हैं और पुण्य की प्राप्ति होती है। भगवान के नाम का जप, उन के मन्त्र का जप और उन के गुणों का कीर्तन करने सेे मन के दुर्गुण मिटते हैं, शान्ति मिलती है और विचार शुद्ध होने लगते हैं। इस प्रकार भगवान की कृपा मिलती है और जीवन की बाधाएँ नष्ट हो जाती हैं। सही कार्य को बार-बार करना भी जप की श्रेणी में ही आता है। इसलिए भगवती दुर्गा ने समझाया है कि उन्हें या उन के किसी अन्य रूप के नाम या मन्त्र का जप भले न करें लेकिन सही कार्य करते रहें तो वह सदैव प्रसन्न रहती हैं और कृपा बरसाती रहती हैं।
१०. हवन- हवन का भी व्यापक अर्थ है। सामान्य तौर पर पूजा या यज्ञ के दौरार्न अिग्न में दी गयी आहुति को हवन कहते हैं। ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में भगवान श्रीकृष्ण ने हवन और यज्ञ के कई रूपों की व्याख्या की है। योगी किसी वस्तु से या किसी कुण्ड में हवन नहीं करते। वे शरीर के अन्दर ही पंचवायु का आपस में हवन कर मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं। सामान्य गृहस्थ किसी भी शुभ कार्य के अवसर पर हवन करते हैं। जिस देवी या देवता के नाम से हवन किया जाता है, उन्हें हवन में डाली गयी सामग्रियाँ सूक्ष्म रूप से प्राप्त हो जाती हैं। देवी ‘स्वाहा’ देवी-देवताओं को और देवी ‘स्वधा’ पितरों को सूक्ष्म रूप से हवन सामग्रियाँ पहुँचाती हैं। अग्नि किसी भी वस्तु को उस के मूल तत्त्व में बदल देती है। हवन करने से पर्यावरण शुद्ध होता है, घर-समाज में सकारात्मक ऊर्जा बढ़ती है और जीवन आनन्दमय हो जाता है। कुछ लोग हवन के धुएँ से हवा में प्रदूषण बढ़ने की बात करते हैं। पर, सच यह है कि भारतीय शास्त्रों में वर्णित हवन प्रक्रिया से वातावरण शुद्ध होता है। इसे कई देशों के वैज्ञानिकों ने भी प्रायोगिक रूप से सच ठहराया है। हवन का एक अर्थ बुरी आदतों को तिलांजलि देना भी है। कर्म की अग्नि में बुरी आदतों को जला देना चाहिये।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें