बुधवार, 22 अक्टूबर 2025

गोवर्द्धन पूजा का इतिहास History Of Govardhan Puja

 -शीतांशु कुमार सहाय 

     गोवर्द्धन पूजा के अवसर पर जानते हैं इस का इतिहास...

     भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्द्धन पर्वत वाली लीला कर एकेश्वरवाद की परम्परा को आगे बढ़ाया। उन्होंने अलग-अलग कार्य के लिए अलग-अलग देवता को पूजने की परम्परा के बदले एकमात्र सर्वशक्तिमान भगवान को पूजने का उपदेश दिया है। भगवान श्रीकृष्ण ने इन्द्र के बदले साक्षात् भगवान स्वरूप गोवर्द्धन की पूजा करवायी। पर्वत के रूप में भगवान गोवर्द्धन उस समय गाय और अन्य पशुओं व कई तरह के जीवों के लिए भोजन और शरणस्थली के लिए प्रसिद्ध थे। 

     वृन्दावन के गोपों ने इन्द्र की पूजा बन्द कर गोवर्द्धन भगवान की पूजा करने लगे। अपनी पूजा न हो पाने से देवराज इन्द्र अत्यन्त क्रोध में आकर वृन्दावन को डूबा देने के उद्देश्य से भारी वर्षा आरम्भ कर दी। तब वर्षा से त्रस्त लोग और अन्य जीवों की रक्षा भगवान श्रीकृष्ण ने की। उन्होंने अपनी कनिष्ठा अँगुली पर गोवर्द्धन पर्वत को उठाया और उस के नीचे वर्षा पीड़ितों को सुरक्षित रखा। 

     अन्ततः इन्द्र को अपनी ग़लती का भान हुआ। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से क्षमा याचना की। 

     इस घटना के बाद से ही प्रतिवर्ष कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की प्रथमा तिथि को 'गोवर्द्धन पूजा' का उत्सव मनाया जा रहा है। 

     गोवर्द्धन पूजा के अवसर पर वृन्दावन में गोवर्द्धन पर्वत के आसपास साक्षात् पर्वत की पूजा करने के लिए दूर-दराज से श्रद्धालु आते हैं। घर पर गाय के गोबर से पर्वत की आकृति बनाकर गोवर्द्धन पूजा की जाती है। इस सुअवसर पर गाय सहित सभी गोवंश की भी पूजा की परम्परा द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने आरम्भ की थी जो सद्यः जारी है।

जय श्रीकृष्ण 

जय गोवर्द्धन 

गोवर्द्धन पूजा की मङ्गलकामना!

शनिवार, 18 अक्टूबर 2025

धनतेरस क्यों मनाया जाता है और क्या है वामन अवतार का सम्बन्ध


 -शीतांशु कुमार सहाय 

     धनतेरस के सुअवसर पर वामनरूप भगवान श्रीविष्णु, अमृत कलश लेकर समुद्र मन्थन में औषधियों सहित प्रकट होनेवाले भगवान धनवन्तरि और धनाध्यक्ष कुबेर अपनी असीम कृपा का वर्षण करते रहें!
     आध्यात्मिक धन, स्वास्थ्य धन और वस्तुगत धन प्राप्ति हेतु साधन-परिश्रम का विशेष दिवस 'धनतेरस' का आयोजन कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को होता है। 
     अब जानते हैं 'धनतेरस' से जुड़ी कथा। राजा बलि के भय से देवताओं को मुक्ति दिलाने के लिए भगवान विष्णु ने वामन अवतार लिया था। इस पाँचवें अवतार में वे राजा बलि के यज्ञ स्थल पर जा पहुँचे। इस बीच असुरों के गुरु शुक्राचार्य पहचान गये थे कि वामन के रूप में भगवान विष्णु ही हैं। तब शुक्राचार्य ने राजा बलि से कहा कि वामन जो भी माँगे, वह उन्हें न दिया जाय। साथ ही उन्होंने कहा कि वामन के रूप में भगवान विष्णु हैं, जो देवताओं की सहायता करने के लिए यहाँ आये हैं।
     शुक्राचार्य ऐसा नहीं चाहते थे कि बलि के हाथों भगवान वामन को कुछ भी दान में न मिले। राजा बलि को दान करने से रोकने के लिए शुक्राचार्य ने वामनरूप भगवान के कमण्डल में लघु रूप धारण कर प्रवेश कर लिया। गुरु शुक्राचार्य की ये चालाकी भगवान विष्णु समझ गये। तब उन्होंने अपने हाथों में मौजूद कुश को कमण्डल में इस तरह रखा कि शुक्राचार्य की एक आँख फूट गयी। इस के बाद सदा के लिए वे एक आँख गँवा बैठे।
     इस घटना के बाद भगवान द्वारा माँगी गयी तीन पग भूमि को बलि ने दान करने का फैसला ले लिया। उस समय भगवान वामन ने अपने एक पैर से पूरी धरती को मापा और दूसरे पैर से अंतरिक्ष के सभी लोकों को माप लिया। अब तीसरा पैर रखने के लिए कोई स्थान नहीं बचा था, तो भगवान के सम्मुख सिर झुकाकर असुरराज बलि ने अपने सिर नरेन्द्र भगवान वामन को पैर रखने का आग्रह किया। भगवान ने अपने श्रीचरणों से वलि को मुक्ति प्रदान किया। इस तरह देवताओं को बलि के भय से मुक्ति मिल गयी। इसी जीत की उल्लासमय अभिव्यक्ति धनतेरस है।
     समुद्र मन्थन में अमृत कलश लेकर औषधियों सहित प्रकट होनेवाले आयुर्वेद अर्थात् चिकित्सा शास्त्र के प्रणेता भगवान धनवन्तरि की भी आराधना की जाती है। इसी दिन धन-वैभव के अध्यक्ष कुबेर देव की भी पूजा की जाती है।