शीतांशु कुमार सहाय
दो दशकों पहले जब देश के वित्तमंत्री के रूप में आज के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने केन्द्रीय राजनीति में अपनी पारी की शुरुआत की, तभी से एक अर्थशास्त्री के तौर पर सभी ने उनका लोहा माना। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी यूपीए की दूसरी पारी में अब चारों ओर से उनपर हमला हो रहा है। उन्हें ऐसे नेता के तौर पर पेश किया जा रहा है जो न तो फ़ैसला कर पाता है, न नेतृत्व देने की क्षमता रखता है और न ही उसके पास देश की अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए कोई स्पष्ट रूपरेखा है। ऊपर से रुपए की क़ीमत लगातार गिरती जा रही है और महँगाई पर सरकार का कोई काबू नहीं है। गोदामों में अनाज सड़ रहे हैं और लोग भूखे मर रहे हैं। किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं। ऐसे में हर कोई सोचने को मजबूर है कि क्या अब भी मनमोहन सिंह को सफल अर्थशास्त्री कहें?
मनमोहन सिंह असफल प्रधानमंत्री और अर्थशास्त्री हैं। वह गठबंधन धर्म को ऊपर और राष्ट्रधर्म को नीचे रखते हैं। उनकी ही नीतियों के बदौलत और फैसला न ले पाने की वजह से देश की दुर्दशा हो रही है। वर्ष 2009 में अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी में ईरान के खिलाफ़ वोट देना उनके असफल अर्थषास्त्र का ही परिचायक है। इस निर्णय की वजह से ईरान ने भारत के साथ 21 अरब डॉलर का गैस समझौता ख़त्म कर दिया। इससे भारत की ऊर्जा सुरक्षा को जैसा नुक़सान हुआ वह अपूरणीय है। ऐसा ही एफ.डी.आई. के मामले में भी दिखाई दिया।
वास्तव में किसी नेता के लिए यह जरूरी नहीं है कि वह किसी विषय विषेष के बारे में गहरी जानकारी रखे। नेतृत्व और विद्वत्ता दो भिन्न चीजें हैं। देश को मजबूत नेतृत्व और मनमोहन सिंह जैसे सलाहकार की जरूरत है। मतलब यह कि मनमोहन सिंह सलाहकार ही बेहतर साबित हो सकते हैं, नेतृत्व करना उनके वश की बात नहीं। वे अच्छे अर्थशास्त्री हो सकते हैं लेकिन सच्चाई यही है कि वह प्रधानमंत्री के रूप में केवल एक मूर्ति ही हैं जो न सुन सकती है, न बोल सकती है और न ही कुछ देख सकती है। तभी तो उनकी तुलना किरण बेदी ने धृतराष्ट्र से की। वैसे इसके लिए सिर्फ उन्हें जिम्मेदार नहीं माना जाना चाहिए। मंत्रिमंडल की सलाह पर ही प्रधानमंत्री निर्णय लेता है। अगर प्रधानमंत्री देश की जनता की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता है, तो इसमें मंत्रिमंडल की भी जवाबदेही है। इस संदर्भ में महान नीतिशास्त्री चाणक्य की बात याद आती है- शासन चलाने के लिए जरूरी है कि आसपास का वातावरण सकारात्मक हो तभी सही नतीजे सामने आएंगे। पर, यहाँ तो मनमोहन सिंह के आसपास का वातावरण बेहद प्रदूषित है। वह कामयाब अर्थशास्त्री हैं पर सही कार्यान्वयन न होने की वजह से उनकी नीतियों के सही नतीजे नहीं निकल पाते। भ्रष्टाचार की वजह से वह असफल साबित हो रहे हैं। इसलिए व्यक्तिगत तौर पर उनके साफ-सुथरे होने का कोई लाभ देश को नहीं मिल पा रहा।
अगर भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी प्रधानमंत्री को नाकामयाब बताते हैं, तो कांग्रेसी प्रवक्ता इसे विरोधी दल का षिगूफा कहकर खारिज करते हैं। अब तो सर्वेक्षण करने वाली एजेंसियाँ भी इस सच्चाई को स्वीकारने लगी हैं। वास्तव में यह स्वीकारोक्ति दलगत राजनीति का हिस्सा नहीं है; बल्कि उसके सर्वेक्षण में जो सच्चाई सामने आई, एजेन्सी ने वही कहा। रेटिंग एजेंसी ‘मूडीज’ के विश्लेषकों के मुताबिक भारत में कमजोर केंद्रीय सरकार ही देश की तरक्की में सबसे बड़ी बाधा है। इस वजह से अर्थव्यवस्था अपनी क्षमता से कम गति से बढ़ रही है। इसके मुताबिक, वर्ष 2012 में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 7.5 प्रतिषत से कम रहेगी। गंभीर राजनीतिक हालात के कारण जोखिम का स्तर बना हुआ है। वर्ष 2012 की पहली छमाही के दौरान आर्थिक विकास दर छः प्रतिशत के करीब रहने की संभावना है। हालांकि दूसरी छमाही में यह 6.5 प्रतिषत तक पहुंच सकती है।
अर्थव्यवस्था की खराब हालत पर यूपीए सरकार को अब अपने सहयोगियों की भी खरी-खोटी सुननी पड़ रही है। ताजा हमला एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार ने किया है। कृषि मंत्री शरद पवार ने केंद्र की नीतियों पर सवाल उठाते हुए कहा कि तेल की कीमतें पहले ही बढ़ जानी चाहिए थीं। जब तेल के दाम बढ़ाने चाहिए थे, तब बढ़ाए नहीं गए। नतीजा, देश की आर्थिक हालत बिगड़ी। देश के हित में सरकार को कड़े फैसले लेने चाहिए। सरकारों को देश के फायदे के लिए लोगों की नाराजगी झेलनी पड़ती है। गौरतलब है कि तेल की कीमतों पर पवार की यह उक्ति सरकार के दूसरे सहयोगी तृणमूल काँग्रेस अध्यक्षा ममता बनर्जी से बिल्कुल उलट है। तेल की कीमतें बढ़ाने के विरोध में ममता ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल लिया था। उन्होंने कोलकाता में विरोध मार्च भी निकाला था। बाद में विपक्ष के दबाव बढ़ाने पर सरकार को पेट्रोल की कीमतों में कुछ कमी करनी पड़ी।
मनमोहन सिंह बहुत समझदार व्यक्ति हैं। वे सब कुछ समझते हैं मगर निर्णय ख़ुद ले नहीं पाते, किसी के इशारे पर चलते हैं। पिछले आठ वर्षों में ऐसा एक भी निर्णय याद नहीं आता जो मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री के रूप में लिया हो। नरसिंह राव के प्रेस सलाहकार रहे एच.वाई. शारदा प्रसाद ने लिखा है कि लोकतंत्र में प्रधानमंत्री भले ही ‘फ़र्स्ट एमंग इक्वल्स’ हों लेकिन वह होते अव्वल ही हैं। निर्णय लेने में उनसे आगे कोई नहीं होता। पर, मनमोहन सिंह अव्वल दीखते ही नहीं।
मनमोहन सिंह ने प्रथम बार 72 वर्ष की उम्र में 22 मई 2004 से प्रधानमंत्री का कार्यकाल आरम्भ किया, जो अप्रैल 2009 में सफलता के साथ पूर्ण हुआ। इसके पश्चात् लोकसभा के चुनाव हुए और काँग्रेस की अगुवाई वाला संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन पुनः विजयी हुआ और वह दुबारा प्रधानमंत्री बने। उनका 1992 का भाषण याद आता है। वित्तमंत्री के रूप में आर्थिक सुधार की शुरुआत करते हुए उन्होंने महात्मा गाँधी का उद्धरण देते हुए कहा था कि वे जो कुछ भी कर रहे हैं, वह समाज के आखिरी आदमी के लिए है। आज जब वे प्रधानमंत्री के रूप में आठ साल पूरा कर रहे हैं तो यह देखना पीड़ादायक है कि उनकी अध्यक्षता वाला योजना आयोग को हर रोज़ 26 रुपए कमाने वाला भी ग़रीब नज़र नहीं आता।
यूपीए-1 के लिए यूपीए-2 एक भयानक शत्रु बन गया है। इसमें घोटालों का जन्म तेज रफ्तार से हो रहा है। इस सरकार में शुरुआती सौदे काफी तेजी से हो जाते हैं। दोनों पक्षों को आपस में संवाद करने में ज्यादा वक्त नहीं लगता। यहां दलाली करने वाले बेहद सक्षम और योग्य हैं। अगर देरी होती है तो बस तोल-मोल में ही। दोनों पक्षों को यह मालूम होता है कि सौदा तो किया ही जाना है, इसलिए यह सब एक निश्चित समय सीमा के भीतर निबटा लिया जाता है। समय लगता है इन घोटालों पर से पर्दा हटाने में। परियोजनाओं के जमीन पर उतरने में वक्त लगता है। फिर कोई शिकायत करता है, तब इस पर जाँच शुरू होती है लेकिन निर्णय नहीं आता। वैसे यूपीए-2 का हर मंत्री ईमानदार और पवित्र होना चाहता है लेकिन मंत्री पद छोड़ने के बाद। जब वे सत्ता में हैं तो जेब का ही ख्याल रखेंगे नऽ। काँग्रेस ने यह धारणा प्रचारित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है कि प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत ईमानदारी पर प्रश्न खड़ा नहीं किया जा सकता। शायद ऐसा है भी। पर, यह कम महत्त्वपूर्ण नहीं है कि मुझे इस बावत ‘शायद’ षब्द का प्रयोग करना पड़ रहा है।
अब देखिये कि इन दिनों कोयला घोटाले का षोर बहुत ज्यादा है। शिबू सोरेन के इस्तीफे के बाद से कोयला मंत्रालय प्रधानमंत्री के ही पास है। अगर कोयला मंत्रालय में उनकी निगरानी में बड़ी लूट को अंजाम दिया गया, तो उन्हें इसकी जिम्मेदारी लेनी ही होगी। अगर उन्होंने देश के संसाधनों की लूट की इजाजत दी, तो उन्हें जवाब देना होगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लूट का पैसा दूसरे लोग ले गए। प्रधानमंत्री की कमजोरी का आलम देखिये कि झारखण्ड से आनेवाले केन्द्रीय मंत्री सुबोध कान्त सहाय एक कम्पनी के पक्ष में प्रधानमंत्री को पत्र लिखते हैं और उस कम्पनी को कोल ब्लॉक का आवण्टन हो जाता है।
वर्ष 2004 में जब प्रधानमंत्री ने अपना पहला भाषण दिया था तो उन्होंने संस्थागत सुधारों की बात कही थी। उन्होंने मूल रूप से नौकरशाही में सुधार की बात थी। पर, वह नौकरशाहों के सामने भी कमजोर साबित हुए और सुधार की बातं हवा-हवाई हो गई। इसी तरह अनशन के दौरान अन्ना हजारे को पुलिस हिरासत में लेना और स्वामी रामदेव के सो रहे सत्याग्रहियों पर रात में पुलिसिया कार्रवाई करवाकर अपनी कमजोरी की पराकाष्ठा उन्होंने दिखा दी। इसी सन्दर्भ में प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री सहित टीम अन्ना ने जिन केन्द्रीय मंत्रियों के खिलाफ स्वतंत्र विशेष जाँच टीम से तहकीकात करवाने की माँग की है उनमें पी. चिदंबरम, शरद पवार, एस.एम. कृष्णा, कमलनाथ, प्रफुल्ल पटेल, विलास राव देशमुख, वीरभद्र सिंह, कपिल सिब्बल, सलमान खुर्शीद, जी.के. वासन, फारुख अब्दुल्ला, एम.अझागिरी और सुशील कुमार शिंदे के नाम शामिल हैं। उन्होंने यह सुझाव भी दिया है कि सरकार छः अवकाष प्राप्त न्यायाधीश के एक पैनल में से तीन न्यायाधीश का चुनाव भी कर सकती है। न्यायाधीषों में न्यायमूर्ति सुदर्शन रेड्डी, ए.के. गांगुली, ए.पी. शाह, कुलदीप सिंह, जे.एस. वर्मा और एम.एन. वेंकटचेलैया शामिल हैं। यों काले धन को स्वदेश लाने के मुद्दे पर मुहिम चला रहे रामदेव ने प्रधानमंत्री पर निशाना साधते हुए कहा है कि अगर वह वाकई में ईमानदार हैं तो काले धन को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर दें।
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