शनिवार, 4 मई 2013
राजनीतिक अस्थिरता के दौर में झारखण्ड
अगले कुछ दिनों में झारखण्ड विधान सभा भंग हो सकती है। तब निर्वाचन अवश्यम्भावी हो जाएगा। पर, इस बात की गारण्टी कदापि नहीं होगी कि किसी दल को बहुमत मिलेगा और राज्य में अस्थिर सरकारों का दौर खत्म हो जाएगा। 12 वर्ष 5 माह और 20 दिनों के झारखण्ड में राजनीतिक अस्थिरता का दौर अभी भी जारी है। इस अवधि में 8 सरकारें बनीं और तीसरी बार इसी वर्ष 18 जनवरी को राष्ट्रपति शासन लगा जो जारी है। 5 वर्षों की संवैधानिक अवधि को किसी भी सरकार ने पूरा नहीं किया। सर्वाधिक लम्बी अवधि तक भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बाबूलाल मराण्डी ही प्रथम मुख्यमंत्री के रूप में कार्यरत रहे। 15 नवम्बर 2000 से 18 मार्च 2003 तक के 860 दिनों तक मराण्डी की सरकार ने शासन किया। फिर भाजपा के ही अर्जुन मुण्डा पहली बार 18 मार्च 2003 को दूसरे मुख्यमंत्री बने। तब मराण्डी ने भाजपा का दामन छोड़ अलग दल ‘झारखण्ड विकास मोर्चा’ (झाविमो) का गठन किया। वर्तमान निलम्बित विधान सभा में झाविमो के 11 विधायक हैं। 81 निर्वाचित सदस्यों वाले झारखण्ड विधान सभा में प्रथम सरकार को छोड़कर कभी भी एक दल की सरकार नहीं बनी। कारण है कि किसी दल को बहुमत मिला ही नहीं। राज्य में अबतक कांग्रेस की सरकार नहीं बनी। भाजपा के नेतृत्व में सरकारें बनीं भी तो स्थिर नहीं रह पाईं। 7 सरकारें क्षेत्रीय दलों के सहयोग से बनीं और बेमौत मारी गयीं। पिछली अर्जुन मुण्डा की सरकार में झारखण्ड मुक्ति मार्चा (झामुमो), ऑल झारखण्ड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू), जदयू व अन्य शामिल थे। जनवरी में झामुमो ने कंधे का सहारा देना बंद किया और धराशायी हो गई मुण्डा की सरकार।
झारखण्ड में लगातार जारी राजनीतिक अस्थिरता ने छोटे राज्यों की अवधारणा पर ही प्रश्न खड़ा कर दिया है। छोटे राज्यों के गठन का मुख्य मुद्दा अच्छा शासन और दु्रत विकास ही रहा है। इसके विपरीत झारखण्ड में कुशासन, भ्रष्टाचार, भयादोहन और राजनीतिक दलों द्वारा सौदेबाजी का बोलवाला है। राष्ट्रीय दल आगे बढ़े तो क्षेत्रीय दलों ने अड़ंगा लगाया। इससे क्षेत्रीय दलों की फूट से सरकार बन नहीं पाती, चल नहीं पाती। आज का झारखण्ड वास्तव में एकीकृत बिहार में ‘दक्षिण बिहार’ कहलाता था। उस दौरान राजधानी पटना में बैठे शासक वर्ग का ध्यान दक्षिण बिहार पर बहुत कम गया। इसलिए यहां क्षेत्रीय दल उभरे। क्षेत्रीय दलों या निर्दलीय विधायकों की बढ़ती संख्या के पीछे एक कारण यह भी है कि बड़े या राष्ट्रीय दल जनता के सामने विकास का बड़ा चित्र प्रस्तुत नहीं कर सके। वर्ष 1951 के बिहार विधान सभा निर्वाचन में क्षेत्रीय दल ‘झारखण्ड पार्टी’ को 32 सीटें दक्षिण बिहार में मिलीं। इसी तरह वर्ष 2000 के निर्वाचन में भाजपा को 34 सीटों पर विजयश्री मिली, वह इसलिए कि पार्टी ने पृथक झारखण्ड के नाम पर मत मांगा था। उसके बाद इतनी सीटें किसी के पास नहीं आईं और राजनीतिक स्थिरता एक तरह से राज्य की ‘तकदीर’ बन गई।
राजनीतिक अस्थिरता की नकारात्मक तकदीर से सर्वाधिक क्षति राज्य के आमजन को हुई। कई योजनाएं-परियोजनाएं अधूरी पड़ी हैं। न आदिवासियों का उत्थान हुआ न बेरोजगारी घटी। न कृषि में क्रांति आई और न उद्योग-धन्धों में निवेश बढ़ा। हाँ, कुछ शिलान्यास जरूर हुए, बड़े-बड़े घोटालों को अंजाम दिया गया। यों जनता अपने भरोसे ही जी रही है, सिसक रही है। इस बीच एक और ‘विकास’ हुआ। विधायकों, मंत्रियों और मुख्य मंत्रियों की संख्या बढ़ी। बहुमत न रहने पर भी झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन 10 दिनों तक मुख्यमंत्री बन बैठे। इस बार बेटे को मुख्यमंत्री बनाने की जिद्द में मुण्डा की सरकार गिरा दी। राज्य में राजनीतिक स्थिरता का प्रथम मंत्र विधान सभा में सीटों की संख्या बढ़ाने से संबद्ध है। कहा गया है कि सीटें बढ़ेंगी तो जन प्रतिनिधित्व बढ़ेगा और बहुमत की सम्भावना भी बनी रहेगी। झारखण्ड विधान सभा ने इस सम्बंध में 5 बार प्रस्ताव पारित कर केंद्र को भेजा पर मंजूरी नहीं मिली। यहां द्रष्टव्य है कि हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ या पूर्वोत्तर के छोटे राज्यों में आखिर किसी प्रकार एक दल को बिना सीट बढ़ाए ही बहुमत मिलता है। वास्तव में राज्य के 4 मुख्य क्षेत्रों छोटानागपुर, सिंहभूम, पलामू व संताल परगना की गतिविधियों में घुलने-मिलने वाले दल को ही बहुमत मिलना संभव है। क्षेत्रीय व बड़े दलों को निहित स्वार्थ छोड़कर राज्य की तकदीर बदलने का प्रयास तो करना ही चाहिए।
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