यकीन मानिये कि कार्यपालिका (सीबीआइ) और विधायिका (केन्द्र सरकार) के अनैतिक गठजोड़ का खुलासा न होता यदि सर्वोच्च न्यायालय का डण्डा न चलता। केन्द्र सरकार बार-बार यह दावा करती रही कि सीबीआइ स्वायत्त जाँच एजेन्सी है मगर कोयला घोटाले के वर्तमान प्रकरण ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह किस हद तक दबाव में कार्य करती है। वास्तव में सीबीआइ के पास आजादी से कार्य करने की आजादी नहीं है।
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में सरकार के 3 प्रमुख अंगों में से 2 पर जनता को विश्वास नहीं रहा। तीसरी न्यायपालिका पर ही सारी उम्मीदें टिकी हैं। इन दोनों के कर्ता-धर्ता अर्थात् तमाम अधिकारियों-पदाधिकारियों व जनप्रतिनिधियों ने स्वार्थ के आगे जनहित को तिलांजलि दे रखी है। तभी तो नाले व गलियों की सफाई के लिए भी न्यायालय को आदेश देना पड़ रहा है। ऐसे भ्रष्ट तन्त्र के बीच जाँच-पड़ताल के लिए केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) से उम्मीद शेष थी। उस उम्मीद पर भी कोयला घोटाले पर मचे कोहराम ने धूल की मोटी परत बिछा दी। केन्द्र सरकार बार-बार यह दावा करती रही कि सीबीआइ स्वायत्त जाँच एजेन्सी है मगर कोयला घोटाले के वर्तमान प्रकरण ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह किस हद तक दबाव में कार्य करती है।
वास्तव में सीबीआइ के पास आजादी से कार्य करने की आजादी नहीं है। यह गंभीर तथ्य तब उभरा जब सर्वोच्च न्यायालय ने सीबाआइ निदेशक रणजीत सिन्हा से पूछा कि कोयला घोटाले की जाँच रपट सरकार से साझा तो नहीं की गई। तब रणजीत की जो मुँह खुली तो 2 केन्द्रीय मंत्रियों समेत प्रधान मंत्री कार्यालय भी कटघरे में नजर आने लगा। सरकारी दबाव को स्वीकारते हुए सीबीआइ ने यह कहा कि कोयला घोटाले की रपट ही बदलवा दी गई। ऐसे में इस जांच एजेन्सी की तमाम पड़तालों की निष्पक्षता भी संदेह के घेरे में आ गई।
सीबीआइ को सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार द्वारा पिंजड़े में बन्द तोता करार दिया जो मालिक (सरकार) की भाषा ही बोलता है। यकीन मानिये कि कार्यपालिका (सीबीआइ) और विधायिका (केन्द्र सरकार) के अनैतिक गठजोड़ का खुलासा न होता यदि सर्वोच्च न्यायालय का डण्डा न चलता। इस बीच रणजीत सिन्हा मानते हैं कि सीबीआइ की स्वायत्तता में 5 प्रमुख रोड़े हैं- गृह, विधि व कार्मिक विभाग सहित संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) और केन्द्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी)।
अधिकारियों के कैडर क्लीयरेन्स के लिए सीबीआइ को गृह विभाग पर निर्भर रहना पड़ता है। निदेशक स्तर से केवल निरीक्षक स्तर के अधिकारी ही बहाल हो सकते हैं। डीएसपी स्तर के अधिकारियों के लिए यूपीएससी से गुहार लगानी पड़ती है। यों याचिका दायर करने के लिए विधि विभाग की मंजूरी जरूरी है। इसी तरह प्रतिदिन के कार्य, खर्च हेतु राशि व नये अधिकारियों के लिए कार्मिक विभाग का मुँह ताकना पड़ता है। साथ ही भ्रष्टाचार से सम्बन्धित मुकदमों में सीबीसी को जवाब देने की मजबूरी भी सीबाआइ को है।
ऐसी स्थिति में किस आधार पर सरकार इसे स्वायत्त कहती आई है? हालाँकि इस जाँच एजेन्सी के पास काबिल अधिकारियों की टीम भी है पर कुछ वर्षों से इसकी जाँच की धार को सरकार ने कुन्द कर रखा है। लिहाजा इसके पास लम्बित मामलों में लगातार इजाफा हो रहा है। वर्ष 2012 के अन्त में सीबीआइ के 9734 मामले न्यायालयों में लम्बित हैं। ऐसे में यह सवाल उभर रहा है कि आखिर खुले आकाश में स्वतंत्रतापूर्वक सीबीआइ का तोता कब उड़ सकेगा?
इस बीच सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार को सख्त आदेश दिया है कि वह सीबीआइ की स्वायत्तता के लिए उचित कानून 10 जुलाई तक बनाए। 15 वर्षों से स्वायत्तता पर कुछ नहीं करने के मामले में भी सरकार को जवाब देना है। लिहाजा केन्द्र सरकार में खलबली है। केन्द्रीय मंत्रियों कपिल सिब्बल, पी.चिदम्बरम व नारायण सामी आदि की एक समिति गठित कर अन्तिम निर्णय लिये जाने की कवायद जारी है। सरकार अध्यादेश भी जारी करने की प्रक्रिया पूरी कर रही है। इस सरकारी हरकत की पृष्ठभूमि पुरानी है। सीबीआइ को पूरी तरह सरकारी नियंत्रण से बाहर करने की पहली सिफारिश वर्ष 1978 में एलपी सिंह समिति ने की। फिर वर्ष 2007 व 2008 में संसद की स्थाई समिति ने भी सीबीआइ के स्वायत्तता की वकालत की। प्रशासनिक सुधार आयोग भी ऐसा ही चाहता है।
देखना यह है कि सर्वोच्च न्यायालय की डेडलाइन में सरकार कानून बनाती है या स्वायत्तता के मामले को किसी समिति के हवाले कर ठण्डे बस्ते में डालती है।
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