14 अगस्त 1947 की काली रात को जो निर्णय हुआ, उसी का परिणाम है कि भारत का एक हिस्सा ‘पाकिस्तान’ के नाम से नये देश के रूप में अस्तित्व में आया। देश के बंटवारे के तुरंत बाद ही पाकिस्तान ने अपना असल रूप दिखाया और गैर-मुस्लिमों पर कहर बरपाया। लाखों घायल हिन्दू व सिक्ख घर-सम्पत्ति छोड़ प्राण बचाने को भारतीय सीमा में दाखिल हुए। उसी दौरान उसने जम्मू-कश्मीर का बड़ा हिस्सा अपने कब्जे में ले लिया और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की कमजोरी व अदूरदर्शिता के कारण वह क्षेत्र आज भी पाकिस्तान के ही कब्जे में है। इसे ‘पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर’ कहा जाता है। फिर 1965 व 1971 में उसने युद्ध किया और पराजित हुआ। वाजपेयी काल में कारगिल युद्ध में उसे फिर भारत ने शिकस्त दी। तब भी वह गाहे-ब-गाहे भारत को परेशान करने से बाज नहीं आ रहा। कुछ सप्ताह पूर्व भारतीय सैनिकों का सिर काट लिया जिसका जख्म भरा भी नहीं कि भारतीय नागरिक सरबजीत की लाहौर के कोट लखपत कारावास में हत्या कर दी गई। इन तमाम प्रकरणों में भारत सरकार की कमजोरी और अदूरदर्शिता ही झलकती है। सारे कूटनीति धरे-के-धरे रह गये। गलत पहचान के चक्कर में फँसकर फँासी की सजा पाए सरबजीत का पक्ष सही ढंग से भारत की सरकार नहीं रख पाई और न ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकार संगठनों के सहयोग से पाकिस्तान पर दबाव ही बना पाई।
दरअसल, लाहौर और मुल्तान विस्फोट के आरोप में 1990 में सरबजीत को फाँसी की सजा पाकिस्तानी न्यायालय ने दी। तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने उनकी दया याचिका को ठुकरा दी। वही मुशर्रफ आज अपने ही देश में दया का पात्र बने हैं, जेल में बंद हैं। वास्तव में नशे की हालत में सरबजीत सीमा पार कर पाकिस्तान में चला गया और उसी दौरान हुए विस्फोट में उन्हें मुख्य अभियुक्त बना दिया गया। पाकिस्तान उन्हें कभी ‘मंजीत सिंह’ तो कभी ‘खुशी मोहम्मद’ का नाम देता रहा। करीब 23 वर्षों तक पाकिस्तानी कारावास में प्रताड़ित होने वाले सरबजीत को मौत की सजा पाए दो पाक कैदियों आमिर व मुदस्सर ने 26 अप्रैल को जेल में ही मार डाला। वास्तव में मृत शरीर ही जिन्ना अस्पताल में रखी थी और ‘सर्वोत्तम इलाज’ की नौटंकी जारी थी। अन्ततः शव भारत पहुंचा और बहन दलवीर कौर की आग सरबजीत को मयस्सर हुई। जैसा हर चर्चित मौत के बाद होता है, वैसा इस बार भी हुआ। सभी दलों के नेता भिखिविण्ड पहुँचकर मातमपुर्सी का कोरम पूरा कर आए। इसमें बाजी मार गए पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश ंिसंह बादल। परिजन को एक करोड़ रुपये का वजीफा दिया और मृतक सरबजीत के लिए विधानसभा से ‘शहीद’ का प्रस्ताव पारित करवा लिया। साथ ही शहीद की दोनों पुत्रियों को सरकारी नौकरी का आश्वासन भी दे आए। ऊपर से तीन दिनों का राजकीय शोक भी घोषित कर दिया और अंतिम संस्कार भी राजकीय सम्मान के साथ करवाया। यदि बादल इस ‘उपकार’ को चुनाव में भुनाएंगे तो कोई आपत्ति भी नहीं कर पाएगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने परिजन को 25 लाख रुपये देने की घोषणा की तो राहुल गांधी दलवीर कौर को गले लगाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री की। इसे कहते हैं चट मौत, पट राजनीतिक फायदा!
इन दिनों पाकिस्तान में चुनावी माहौल है। ऐसे में सरबजीत का खात्मे को जरदारी की पार्टी भुनाने भी लगी। हालाँकि कहने को न्यायिक जांच जारी है और दोनों नामजद अभियुक्तों पर मामला दर्ज किया गया है। पाकिस्तानी पंजाब के कार्यकारी मुख्यमंत्री नजम सेठी आखिर जांच करवाकर करेंगे क्या? जिन अभियुक्तों पर मामला दर्ज हुआ, वे तो पहले ही मौत की सजा पा चुके हैं। अब उन्हें दोषी पाने पर भी कौन-सी सजा होगी? वैसे सरबजीत की हत्या ने कई प्रश्न खड़े किये हैं। सरबजीत की मौत 26 अप्रैल को ही हो गई थी, इसका पता भारत सरकार को भी था। तभी तो भारत सरकार ने चिकित्सकों की टीम न भेजकर पाकिस्तान में अपनी न्यायिक टीम भेजी। जाहिर है कि लाश को इलाज की दरकार नहीं होती। इसी तरह अस्पताल से कोई मेडिकल रिपोर्ट जारी नहीं हुई। इस दौरान भारतीय उच्चायोग के अधिकारी सरबजीत से नहीं मिले। नियमानुसार अंतर्राष्ट्रीय अभियुक्त की स्थिति में सम्बन्धित देश के दूतावास के अधिकारी नियमित रूप से अभियुक्त का कुशल क्षेम लेते हैं। पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग का प्रश्न है कि क्या जेल प्रशासन के सहयोग के बिना सरबजीत ही हत्या सम्भव थी? जेल अधिकारियों पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई? इस बाबत भारत सरकार कोई सफाई नहीं दे पा रही है। ऊपर से केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल कहते हैं कि भारत-पाक वार्ता पर इस हत्या का असर नहीं पड़ेगा। यह सरकारी बयान तब आया जब विपक्षी भारतीय जनता पार्टी ने पाकिस्तान से सारे राजनयिक सम्बन्ध तोड़ लेेने की बात कही है। ऐेसे ही कुछ सुलगते और बूझते प्रश्नों के बीच विश्व के कारावासों में कैद 6569 भारतीयों को भारत सरकार से कोई अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। यों सरबजीत की हत्या के बाद 253 अन्य भारतीय पाकिस्तान में कैद हैं। क्या उन्हें मुक्त कराने के प्रयास होंगे या इनके भी सरबजीत जैसे हश्र का इंतजार करेगी भारत सरकार?
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