तहलका पत्रिका के संपादक तरुण तेजपाल के खिलाफ गोवा पुलिस ने मामला दर्ज कर लिया है और बहुत संभव है कि उनकी गिरफ्तारी भी जल्द हो जाए, लेकिन एक युवा पत्रकार के यौन उत्पीड़न के मामले में उनके संस्थान का रवैया हैरान करने वाला रहा है। इस प्रकरण ने 12 वर्ष पूर्व तहलका के ऑपेरशन वेस्टलैंड के जरिये रक्षा सौदों में दलाली का मामला उजागर करने वाले तेजपाल का एक अलग ही चेहरा सामने लाया है। यह मामला सिर्फ दो व्यक्तियों के बीच का नहीं है, बल्कि कार्यस्थल में मालिक और उसकी मातहत के बीच का भी है। तेजपाल ने छह महीने के लिए खुद को तहलका से अलग करने की सजा मुकर्रर की, उससे ही साफ है कि वह खुद और उनकी पत्रिका का प्रबंधन इस मामले को कितने हल्के में ले रहा था। वरना तहलका की प्रबंध संपादक शोमा चौधरी बलात्कार के मामलों में खासी मुखर रही हैं। सवाल है कि विशाखा बनाम राजस्थान सरकार के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कार्यस्थल में महिलाओं के यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए जो निर्देश दिए हैं, तहलका ने उनका पालन क्यों नहीं किया? क्या कानून और नैतिकता के मानदंड सिर्फ दूसरों के लिए हैं? यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि उच्च स्तर की नैतिकता का दावा करने वालों और लीक से अलग हटकर काम करने वालों का जीवन भी पारदर्शी होना चाहिए। जब ऐसे प्रतीक ध्वस्त होते हैं तो आम लोगों का विश्वास भी दरकने लगता है।
यह संयोग है कि तरुण तेजपाल मानवीय कमजोरियों और नैतिकता के उसी कठघरे में खड़े हैं, जिसे उन्होंने अपनी चर्चित किताब अल्केमी ऑफ डिजायर (हिंदी में 'शिखर की ढलान' नाम से प्रकाशित) के केंद्र में रखा था।
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