- शीतांशु कुमार सहाय
ग्रीष्म के सूर्य से तपते-जलते रेत पर चल रहा था अकेला कि तुम मिले। आम की मंजरियों की तरह सुरभित और चाँदनी की तरह शीतलता लिये तुम्हारा मिलन अपूर्व है। यूँ रूक गये मेरे जलते कदम; क्योंकि तुम्हारे सान्निध्य का जल जो मिला। तुम्हारे साहचर्य का, तुम्हारे समर्पण का जल न मिलता, तो जीवन के झंझावातों की अहती तपिश से जल चुका होता मैं।
स्थूल पदार्थ है जल। जबतक यह पुद्गल पदार्थधर्मी है, तबतक इसके अनेक भेद किये जाते हैं- सागर का जल, नदी का जल, कुएँ का जल आदि। जैसे ही यह जल सूर्य की किरणों पर चढ़कर आकाश की यात्रा करता है तो वाष्प कहलाता है। जल स्थूल और वाष्प सूक्ष्म। स्थूल में पृथकता है और सूक्ष्म में एकता। जल को विलगाया जा सकता है, वाष को विलगाने का प्रश्न ही नहीं उठता। ओ मेरे तुम! मिले थे हम जल की तरह और हृदय से मिलकर हो गये वाष्प। वाष्प को देखकर कोई बता सकता है कि यह सागर, नदी या कुएँ के जल का है?
सूक्ष्म आदि अद्वैत है तो स्थूल है द्वैत। सूक्ष्म को अलग नहीं कर सकते, स्थूल में तो अलगाव है ही। सूक्ष्म प्रसारित भी होता है और समर्पित भी। प्रसारण मुक्ति है और समर्पण है भक्ति। ओ मेरे तुम! ये दोनों हैं तुम में- ये तुमने बताया भी, दिखाया भी। इसलिए तुम मेरी चेतना में शामिल हो गये और मैं हो गया अचेत। चेतना का अविराम प्रवाह है जीवन। उसी चेतना को धारण करना ही मूल-धर्म है मेरा। पर, सच तो यही है कि चेतना सूक्ष्म है और जीवन है स्थूल।
एक सन्ध्या थी वो जब पादुका पर मेरे, तुमने सिर रखकर अपना मुझ भगोत्पन्न को भगवान बना दिया। तुम मुक्त हो गये भक्त बनकर! मुक्त और भक्त में असंग और संग का मूल्य उजागर है। मुक्त बनता तो है असंग किन्तु मुक्त को संग कर लेता है। भक्त करता है तो संग भगवान का किन्तु असंग बनकर।
आम्र-मंजरियों की प्रियतम सुगन्ध पुनः खींचती है मुझे। पर, मैं पवन नहीं हूँ- न इस सुगन्ध को चुरा सकता हूँ और न उड़ा सकता हूँ, न पचाकर सुगन्धवाह कहला पा सकता हूँ। केवल नासापुरों में भरकर उसे बाहर उछाल सकता हूँ। आह! इस उछाल में भी कैसी मजबूरी है? सीमा में असीम छिपा है, फिर भी सीमा अपनी निरन्तर अपनी सीमा का गौरव मानती है। तुम्हारी चाहत तो इबादत बनकर सीमाहीन हो गयी पर उसमें भी मर्यादा की सीमा तो है ही।

भाव को आरम्भ करें तो कुछ भी संशय नहीं, बुद्धि से करें तो संशय-ही-संशय। यूँ भक्ति में चाहिये कि ‘तू’ मिट जाये और ‘मैं’ बचा रहे। विलोमतः यही हो और ‘मैं’ मिट जाये और ‘तू-ही-तू’ रहे। न ‘तू’ रहे न ‘मै’ रहूँ, एक हो जायें दोनों। दो न रहे, एक हो जाये और यह एक शून्य में बदल जाये।
अपने को मिटाने की तैयारी भक्ति है। जो भी परायापन है उसे मिटाने की तत्परता मुक्ति है। मिटने का यह संकल्प हो उल्लासपूर्ण! उल्लास निरपेक्ष नहीं होता, अतः यह अतनु है।
शून्य और पूर्ण कहने को दो हैं, पर हैं अद्वैत ही। जाम चाहे आधा खाली हो या आधा भरा- क्या फर्क पड़ता है! ओ मेरे तुम! भक्ति और मुक्ति का यह द्वैताद्वैत बोध आम की मंजरियों का सहज प्रत्यय है जो तुम्हारा ही पर्याय है।