भारत के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद का वास्तविक चित्र |
-प्रस्तोता : शीतांशु कुमार सहाय
भारत के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की ‘अन्तिम इच्छा’ उन की समाधि-स्थल पर अंकित है। बिहार की राजधानी पटना में अशोक राजपथ के किनारे गंगा तट पर देशरत्न डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की समाधि स्थित है। अब देशरत्न की अन्तिम इच्छा को जानिये-
‘‘हे भगवान! तुम्हारी दया असीम है। तुम्हारी कृपा का कोई अन्त नहीं। आज मेरे सत्तर वर्ष पूरे हो रहे हैं। तुम ने मेरी त्रुटियों की ओर निगाह न कर के अपनी दया की वर्षा मुझ पर हमेशा की। इन सत्तर वर्षों में जितना सुख, मान-मर्यादा, धन, पुत्र इत्यादि जितने समाज में सुख और बड़प्पन के साधन समझे जाते हैं, सब तुम ने विपुल मात्रा में दिया। मैं किसी भी योग्य नहीं था, तो भी तुम ने मुझ को बड़ा बनाया। यह कृपा बचपन से ही मेरे ऊपर रही। सब से छोटा बच्चा होने के कारण मेरे ऊपर पिता-माता तथा घर के सारे लोग का अधिक प्रेम रहा करता था। पढ़ने में भी मैं जिस योग्य नहीं था, उतना ही यश और प्रसिद्धि अनायास मेरे बिना परिश्रम और इच्छा के दी।
घर में अधिक कठिनाइयाँ होते हुए भी मुझे उस का कभी अनुभव नहीं होने दिया। जैसे पिता, वैसी ही माता; देवता-देवी तुल्य हर तरह से मुझे सुख देने के लिए हमेशा तत्पर और स्वयं अपनी तपस्या से हम को सुखी बनानेवाले हमारे ऊपर प्रेम की वर्षा करते रहे। भाई ऐसा मिला जैसा किसी को भी शायद ही कभी नसीब हुआ हो- जिस ने मेरे ऊपर ठीक साी तरह छत्रछाया कर के न केवल कष्टों से; बल्कि सभी प्रकार की चिन्ताओं से मुक्त कर रखा, जिस तरह कृष्ण ने गोवर्द्धन को उठाकर गोप-गोपियों को इन्द्र के कोप से सुरक्षित रखा और अपने ऊपर सभी कष्टों को ले लिया- पर इस भावना से कि यदि मुझे उस का अनुमान हो जाय तो मैं दुखी होऊँगा- मुझे कभी उस का आभास तक न होने दिया।
बच्चों को इस तरह पाला जिस तरह कोई भी पिता अपने बच्चों को पाल सकता है। मैं मनमाना अपने आदर्शों और विचारों पर चलता रहा जिस का प्रभाव उन के जीवन पर कष्ट के रूप में ही मैं समझता हूँ, पड़ता रहा होगा, पर उन्होंने कभी भी यह नहीं जाहिर होने दिया कि वह मुझ से कुछ दूसरा करवाना चाहते थे या आशा रखते थे। बराबर मुझे अपनी इच्छा और भावना के अनुसार चलने देना ही अपने लिए आनन्द का विषय बना रखा था और यह कृत्रिम नहीं था- स्वाभाविक था। उन के लिए मेरे को खुश रखने के समान और दूसरा कोई आनन्द का विषय नहीं था। मैं अपने ढंग से विकसित होऊँ- ऊँचे-से-ऊँचे उठ सकूँ, यही उन के लिए सब से अधिक प्रिय स्वप्न था और इसी को उन्होंने चरितार्थ किया।
घर के लोग के अलावा संसार में भी मेरे ऊपर जितनी कृपा रखी, शायद दूसरों पर नहीं रखी। यह तुम्हारे ही पथ-प्रदर्शन का फल है कि किसी का ध्यान मेरी त्रुटियों, अयोग्यताओं और कमजोरियों की ओर नहीं गया और सब ने मुझे केवल आदर-सम्मान ही नहीं दिया, मुझे यश भी दिया, जिस यश का मैं ने तो अपने को कभी अधिकारी ही नहीं समझता और न योग्य। घर में और बाहर सब के प्रेम और कृपा का पात्र बना रहा और इस प्रकार कोई भी ऐसी लालसा मुझे नहीं रह गयी जो किसी भी मनुष्य की हो सकती है। लालसा हो या न हो, कोई भी मनुष्य जो भी लालसा कर सकता है, सब मुझे बिना लालसा के अनायास ही तुम ने मुझे दिया और देते जा रहे हो। मैं तुम्हारी इस दया-दृष्टि को बनाये रखने के लिए क्या प्रार्थना करूँ! तुम ने आज तक बिना माँगे ही सब कुछ दिया है।
मैं जानता हूँ कि यह भी बिना माँगे ही बनाये रखेंगे। घर में सती-साध्विनी पत्नी, सुशील, आज्ञाकारी लड़के-लड़कियों और दूसरे सगे-सम्बन्धी हमें सुख देना ही अपना कर्तव्य मानते हैं। इस अवस्था में भी मैं अपने ढंग से ही अपनी इच्छा के अनुसार ही काम करता। उन की परवाह नहीं करता और न उन के सुख-दुख ही चिन्ता करता। पर तो भी उन का प्रेम वैसा ही असीम!
अधिक मैं क्या कहूँ। एक ही भीख माँगनी है- मेरे बाकी दिनों को तुम अपनी ओर खींचने में लगाओ। मैं सांसारिक रीति से बहुत सफल अपने जीवन में रहा, पर आध्यात्मिक रीति से भक्ति बढ़ सकती- पथ बतानेवालों की कमी कभी नहीं रही। महात्माजी से बढ़कर कौन हो सकता है! उन की कृपा भी असीम रही। यदि मुझ में कुछ भी शक्ति होती तो मैं उन का सच्चा अनुयायी बन सकता था, पर उन की कृपा और उन के सम्पर्क का सांसारिक लाभ जो किसी को भी मिल सकता था, मैं ने प्रचुर मात्रा में पाया। उन के आध्यात्मिक और भगवान-भक्ति में से मैं कुछ भी नहीं ले सका और न अपने जीवन को किसी भी तरह उन के साँचे में ढाल सका। यदि कभी वह मुझे तौलते तो देखते की मुझ में सच्चा वज़न कुछ भी नहीं है। जिस तरह से तुम ने कभी तौलकर मुझे योग्यता के अनुसार कुछ नहीं दिया; बल्कि बिना तौले ही विपुल मात्रा में सब कुछ देते रहे- सब कुछ सुख, समृद्धि, धन, वंश, मित्र, सेवक और सब से अधिक यश- बराबर देते रहे; उसी तरह उन्होंने भी बिना तौले ही जो कुछ मैं आज सांसारिक दृष्टि से पाया, बनाया। क्या अब भी मुझे अपनी ओर नहीं खींचोगे? जीवन को सच्चा आध्यात्मिक नहीं बनाओगे? क्या बाकी दिन भी यश और सांसारिक समृद्धि लुटने में ही बिताने दोगे और मुझ से ऐसे कर्म कराओगे जो मुझे तुम्हारी ओर ले जाय? यदि कृपा है तो मुझे उस ओर खींचो और उस ओर ले चलो और जो मुझे आज बिना कारण मिल रहा है उस को सचमुच सार्थक बनाओ और सब को सच्चा अधिकारी बनाओ। पर, मुझे सचमुच इन सब को छोड़कर भी अपनी ओर खींचो और उसी दया-दृष्टि से एक बार मेरी आँखों को खोल दो जिस में मैं तुम्हारे सच्चे आनन्दमय दर्शन पा सकूँ।’’