-शीतांशु कुमार सहाय
सन् २०८० ईस्वी तक मकर संक्रान्ति १५ जनवरी को ही मनायी जायेगी। यह धारणा सही नहीं है कि मकर संक्रान्ति केवल १४ जनवरी को ही मनायी जाती है। यह पृथ्वी, सूर्य आदि की खगोलीय गति पर आधारित है। यह गूढ़ ज्ञान पूरी तरह भारतीय ज्योतिषीय गणना है। हमारे इस प्राचीन वैज्ञानिक प्रगति को देखकर आज का विज्ञान और वैज्ञानिक हतप्रभ हैं। इस गणना का परिणाम आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर भी पूरी तरह सच सिद्ध होता है। वास्तव में सूर्य के उत्तरायण होने के प्रथम दिवस को मकर संक्रान्ति का पर्व मनाया जाता है। इस दिन सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते हैं। सूर्य के उत्तरायण अवधि (छः माह) को पुण्य काल माना जाता है। भगवान ने 'श्रीमद्भगवद्गीता' में भी इस की चर्चा करते हुए कहा है कि इस काल में मृत्यु को प्राप्त होने वाला जीव देवलोक में जाता है या जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है। यही कारण है कि शर-शय्या के कष्ट को सहते हुए भी भीष्म पितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा की और तब प्राण त्यागे। यहाँ मकर संक्रान्ति की महत्ता, धार्मिकता और ऐतिहासिकता पर सामान्य नज़र डालते हैं :-
गंगा मिली थीं सागर से
मकर संक्रांति के दिन ही स्वर्ग से पृथ्वी पर आने के बाद माँ गंगा महर्षि भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होती हुई नदी रूप में सागर में जाकर मिली थीं। वर्तमान में उस सागर को बंगाल की खाड़ी कहते हैं। जिस स्थान पर बंगाल की खाड़ी में गंगा मिलती है, उस स्थान को गंगा सागर कहा जाता है। इस उपलक्ष्य में मकर संक्रान्ति के अवसर पर गंगा सागर में मेला लगता है और विश्व भर के श्रद्धालु यहाँ डुबकी लगाते हैं। इस दिन गंगा, अन्य नदियों और तीर्थों में स्नान करने की पवित्र परम्परा है।
श्राद्ध और तर्पण का दिन
महाराज भगीरथ ने अपने पूर्वजों के लिए मकर संक्रान्ति के दिन तर्पण किया था। राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों का गंगाजल, अक्षत, तिल से श्राद्ध व तर्पण किया था। तब से मकर संक्रांति स्नान और मकर संक्रांति श्राद्ध तर्पण की प्रथा आज तक प्रचलित है। पावन गंगा जल के स्पर्श मात्र से राजा भगीरथ के पूर्वजों को स्वर्ग की प्राप्ति हुई थी। कपिल मुनि ने वरदान देते हुए कहा था, "हे माँ गंगे! त्रिकाल तक जन-जन का पापहरण करेंगी और भक्तजनों की सात पीढ़ियों को मुक्ति एवं मोक्ष प्रदान करेंगी। गंगा जल का स्पर्श, पान, स्नान और दर्शन सभी पुण्यफल प्रदान करेगा।"
गंगा को पृथ्वी पर क्यों लाये भगीरथ
एक कथा के अनुसार, एक बार राजा सगर ने अश्वमेघ यज्ञ किया और अपने अश्व को विश्व-विजय के लिए छोड़ दिया। इन्द्रदेव ने उस अश्व को छल से कपिल मुनि के आश्रम में बाँध दिया। जब कपिल मुनि के आश्रम में राजा सगर के साठ हजार पुत्र युद्ध के लिए पहुँचे तो कपिल मुनि ने शाप देकर उन सब को भस्म कर दिया। राजा सगर के पोते अंशुमान ने कपिल मुनि के आश्रम में जाकर विनती की और अपने परिजनों के उद्धार का रास्ता पूछा। तब कपिल मुनि ने बताया कि इन के उद्धार के लिए गंगा को धरती पर लाना होगा। तब राजा अंशुमान ने तप किया और अपनी आनेवाली पीढ़ियों को यह सन्देश दिया। बाद में अंशुमान के पुत्र दिलीप के यहाँ भगीरथ का जन्म हुआ और उन्होंने अपने पूर्वज की इच्छा पूर्ण की। भगीरथ की तपस्या के प्रभाव से ही स्वर्ग में प्रवाहित होनेवाली पवित्र नदी गंगा पृथ्वी पर आयीं। पृथ्वीवासी माँ की पवित्र संज्ञा देते हुए गंगा की पूजा करते हैं।
असुरों के अन्त का दिन
मकर संक्रान्ति के दिन ही भगवान विष्णु ने असुरों का अन्त कर युद्ध समाप्ति की घोषणा की थी। उन्होंने सभी असुरों के सिरों को मन्दार पर्वत में दबा दिया था। इसलिए यह दिन बुराइयों और नकारात्मकता को समाप्त करने का सन्देश देता है।
दैनिक सूर्य पूजा
अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में दैनिक सूर्य पूजा का प्रचलन चला आ रहा है। रामकथा में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा नित्य सूर्य पूजा का उल्लेख मिलता है। मकर संक्रान्ति के दिन सूर्य की विशेष आराधना होती है।
सूर्य की सातवीं किरण
सूर्य की सातवीं किरण भारतवर्ष में आध्यात्मिक उन्नति की प्रेरणा देनेवाली है। सातवीं किरण का प्रभाव भारत वर्ष में गंगा-यमुना के मध्यभूमि पर अधिक समय तक रहता है। इस भौगोलिक स्थिति के कारण ही हरिद्वार और प्रयाग में माघ मेला अर्थात् मकर संक्रान्ति या पूर्ण कुम्भ अथवा अर्द्धकुम्भ मेले के विशेष धार्मिक उत्सव का आयोजन होता है।
यहाँ यह जानने की बात है कि भारतीय हजारों-लाखों वर्ष पूर्व ही यह जानते थे कि सूर्य से सात प्रमुख रंगों की किरणें निकलती हैं। आधुनिक विज्ञान ने तो प्रिज्म के आविष्कार के बाद यह जान सका कि धूप में सात रंग की किरणें हैं- बैंगनी, नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी और लाल। इन रंगों के मिश्रण से अनेक रंग बनाये जा सकते हैं।
भीष्म और उत्तरायण सूर्य
द्वापर युग में भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिए सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा की थी। उत्तरायण में देह छोड़नेवाली आत्माएँ या तो कुछ काल के लिए देवलोक में चली जाती हैं या पुनर्जन्म के चक्र से उन्हें छुटकारा मिल जाता है। भीष्म का श्राद्ध-संस्कार भी सूर्य की उत्तरायण गति में हुआ था। फलतः आज तक पितरों की प्रसन्नता के लिए तिल अर्घ्य एवं जल तर्पण की प्रथा मकर संक्रान्ति के अवसर पर प्रचलित है।
पुत्र के घर जाते हैं सूर्यदेव
मकर संक्रान्ति के दिन सूर्यदेव अपने पुत्र शनिदेव के घर (मकर) एक महीने के लिए जाते हैं। विदित हो कि मकर राशि के स्वामी शनि हैं। मतलब यह कि मकर संक्रान्ति के दिन सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते हैं। पहले कुम्भ राशि के स्वामी धे शनिदेव। इस सन्दर्भ में एक कथा जानिये।
सूर्य और शनि की कथा
कथा के अनुसार, सूर्यदेव ने शनि और उन की माता छाया को स्वयं से अलग कर दिया था। इस कारण शनि के प्रकोप के चलते उन्हें कुष्ठ रोग हो गया था। तब सूर्यदेव के दूसरे पुत्र यमराज ने रोग को ठीक किया। रोगमुक्त होने के बाद सूर्यदेव ने क्रोधवश शनि के घर कुम्भ को जला दिया था। तत्पश्चात् यमराज के समझाने पर वे जब शनि के घर गये तो उन्होंने वहाँ देखा कि सबकुछ जल चुका था केवल काला तिल ही शेष बचा था। अपने पिता को देखकर शनिदेव ने उन का स्वागत उसी काले तिल से किया। इस से प्रसन्न होकर सूर्य ने उन्हें दूसरा घर ‘मकर’ उपहार में दे दिया। इस के बाद सूर्यदेव ने शनि को कहा कि जब वे उनके नये घर मकर में आयेंगे, तो उन का घर फिर से धन-धान्य से भर जायेगा। साथ ही कहा कि मकर संक्रान्ति के दिन जो भी काले तिल और गुड़ से मेरी पूजा करेगा उस के सभी कष्ट दूर हो जायेंगे।
श्रीकृष्ण के लिए यशोदा का व्रत
माता यशोदा ने श्रीकृष्ण के लिए व्रत किया था तब सूर्य उत्तरायण हो रहे थे। मतलब यह कि उस दिन मकर संक्रान्ति थी। तभी से पुत्र और पुत्री के सौभाग्य के लिए मकर संक्रान्ति के व्रत का प्रचलन प्रारंभ हुआ।
पुण्यकाल
मकर संक्रान्ति के दिन सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण गति करने लगते हैं। इस दिन से देवताओं का छः माह आरम्भ होता है, जो आषाढ़ मास तक रहता है। सूर्य के उत्तरायण होने के बाद से देवों की ब्रह्म मुहूर्त उपासना का पुण्यकाल प्रारम्भ हो जाता है। इस काल को ही परा-अपरा विद्या की प्राप्ति का काल कहा जाता है। इसे साधना का सिद्धिकाल भी कहा गया है। इस काल में देव प्रतिष्ठा, गृह निर्माण, यज्ञ कर्म आदि शुभ कर्म किये जाते हैं। मकर संक्रान्ति के एक दिन पूर्व से ही व्रत उपवास में रहकर योग्य पात्रों को दान देना चाहिए।
आराधना का विशेष अवसर
वास्तव में मकर संक्रांति का पर्व ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, आद्यशक्ति और सूर्य की आराधना एवं उपासना का पावन व्रत है, जो तन-मन-आत्मा को शक्ति प्रदान करता है। इस के प्रभाव से प्राणी की आत्मा शुद्ध होती है। संकल्प शक्ति बढ़ती है। ज्ञान तन्तु विकसित होते हैं। मकर संक्रान्ति चेतना को विकसित करनेवाला पर्व है।
तिल के छः प्रयोग अवश्य करें
विष्णु धर्मसूत्र में उल्लेख है कि पितरों की आत्मा की शान्ति के लिए और स्वयं के स्वास्थ्यवर्द्धन तथा सर्वकल्याण हेतु तिल के छः प्रयोग पुण्यदायक एवं फलदायक होते हैं- तिल जल से स्नान करना, तिल दान करना, तिल से बना भोजन, जल में तिल अर्पण, तिल से आहुति, तिल का उबटन लगाना।
खिचड़ी की परम्परा
मकर संक्रान्ति के दिन खिचड़ी ग्रहण करने की परम्परा बहुत ही पुरानी है। एक ऐतिहासिक कथा के अनुसार, आतंकी और मुस्लिम हमलावर अलाउद्दीन खिलजी और उस की सेना के विरुद्ध बाबा गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) और उन के शिष्यों (योगियों) ने भी धर्म और आमजन की रक्षा के लिए जमकर युद्ध किया था। युद्ध के कारण समयाभाव में योद्धा योगी भोजन पकाकर खा नहीं पाते थे। इस कारण योगियों की शारीरिक शक्ति घटती जा रही थी। तब बाबा गोरखनाथ ने दाल, चावल और हरी सब्जियों और औषधियों (मसालों) को मिलाकर एक व्यञ्जन तैयार किया। इसे 'खिचड़ी' की संज्ञा दी गयी। यह कम समय और कम परिश्रम में बनकर तैयार हो गया। इस के सेवन से योगी शारीरिक रूप से ऊर्जावान भी रहते थे। खिलजी जब भारत छोड़कर गया तो योगियों ने मकर संक्रान्ति के उत्सव में प्रसाद के रूप में खिचड़ी बनायी। इस कारण प्रतिवर्ष मकर संक्रान्ति पर खिचड़ी बनाने और ग्रहण करने की परम्परा चल पड़ी। गोरखपुर में बाबा गोरखनाथ को खिचड़ी का भोग लगाकर इसे प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है।
भगवान की कृपा आप पर बनी रहे!
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