भारतीय संस्कृति में विभिन्नता उस का दूषण नहीं वरन् भूषण है। यहाँ सनातन यानी हिन्दू धर्म के अगणित रूपों और सम्प्रदायों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन, सिक्ख, इस्लाम, ईसाई, यहूदी आदि धर्मों की विविधता का भी एक सांस्कृतिक समायोजन देखने को मिलता है।
हिन्दू धर्म के विविध सम्प्रदाय एवं मत सारे देश में फैले हुए हैं, जैसे वैदिक मत, शैव, वैष्णव, शाक्त आदि पौराणिक धर्म, राधा-वल्लभ सम्प्रदाय, श्री सम्प्रदाय, आर्यसमाज, समाज आदि। परन्तु इन सभी मतवादों में सनातन धर्म की एकरसता खण्डित न होकर विविध रूपों में गठित होती है। यहाँ के निवासियों में भाषा की विविधता भी इस देश की मूलभूत सांस्कृतिक एकता के लिए बाधक न होकर साधक प्रतीत होती है।
'अध्यात्म' शब्द अधि+आत्म– इन दो शब्दों से बना है। अधिक-से-अधिक आत्म अर्थात् स्वयं को समझना ही अध्यात्म है। आत्मा को आधार बनाकर जो चिन्तन या कथन हो, वह अध्यात्म है। भारतीय आध्यात्मिकता में धर्मान्धता को महत्त्व नहीं दिया गया। इस संस्कृति की मूल विशेषता यह रही है कि व्यक्ति अपनी परिस्थितियों के अनुरूप मूल्यों की रक्षा करते हुए कोई भी मत, विचार अथवा धर्म अपना सकता है। यही कारण है कि यहाँ समय-समय पर विभिन्न धर्मों के उदय तथा साम्प्रदायिक विलय होते रहे हैं।
आध्यात्मिकता हमारी संस्कृति का प्राणतत्त्व है। इस में ऐहिक अथवा भौतिक सुखों की तुलना में आत्मिक अथवा पारलौकिक सुख के प्रति आग्रह देखा जा सकता है। चतुराश्रम-व्यवस्था (अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वाणप्रस्थ व संन्यास आश्रम) तथा पुरुषार्थ-चतुष्ट्य (धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष) का विधान मनुष्य की आध्यात्मिक साधना के ही प्रतीक हैं। इन में जीवन का मुख्य ध्येय धर्म अर्थात् मूल्यों का अनुरक्षण करते हुए मोक्ष माना गया है।
आज धर्म के जिस रूप को प्रचारित एवं व्याख्यायित किया जा रहा है उस से बचने की ज़रूरत है। धर्म मूलतः संप्रदाय नहीं है। ज़िंदगी में हमें जो धारण करना चाहिये, वही धर्म है। नैतिक मूल्यों का आचरण ही धर्म है। धर्म वह पवित्र अनुष्ठान है जिस से चेतना का शुद्धिकरण होता है। धर्म वह तत्त्व है जिस के आचरण से व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ कर पाता है। यह मनुष्य में मानवीय गुणों के विकास की प्रभावना है, सार्वभौम चेतना का सत्संकल्प है।
मध्ययुग में विकसित धर्म एवं दर्शन के परम्परागत स्वरूप एवं धारणाओं के प्रति आज के व्यक्ति की आस्था कम होती जा रही है। मध्ययुगीन धर्म एवं दर्शन के प्रमुख प्रतिमान थे- स्वर्ग की कल्पना, सृष्टि एवं जीवों के कर्ता रूप में ईश्वर की कल्पना, वर्तमान जीवन की निरर्थकता का बोध, अपने देश एवं काल की माया एवं प्रपंचों से परिपूर्ण अवधारणा। उस युग में व्यक्ति का ध्यान अपने श्रेष्ठ आचरण, श्रम एवं पुरुषार्थ द्वारा अपने वर्तमान जीवन की समस्याओं का समाधान करने की ओर कम था, अपने आराध्य की स्तुति एवं जय गान करने में अधिक था।
धर्म और अध्यात्म के मार्ग पर चलकर अगर भगवद्कृपा प्राप्त करनी है तो कोई परिश्रम करने की ज़रूरत नहीं है, केवल इन्द्रियों को वश में कर मन को शुद्ध रखने का प्रयास आज से ही आरम्भ के दीजिये।
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