देश की राजधानी नई दिल्ली दरिंदगी से एक बार फिर दहल गई है। पिछले साल दिल्ली में चलती बस में हुए गैंगरेप के बाद लोगों का गुस्सा जब सड़क पर फूटा तो लगा कि क्रांति आ जाएगी। समाज बदल जाएगा। कानून का राज साकार हो जाएगा। लेकिन अब तो इंतहा हो गई है। पांच साल की एक मासूम के साथ जिस तरह की हैवानियत की गई, उससे ऐसा लगता है कि वसंत विहार गैंगरेप की शर्मनाक घटना से किसी ने सबक नहीं लिया। धीरे-धीरे सबकुछ पुराने ढर्रे पर चल पड़ा। ताजा घटना से ऐसा लगता है कि कुछ भी नहीं बदला है। गुनाह करने वालों को किसी तरह के कानून का डर नहीं है। सियासतदानों पर भी ऐसी घटनाओं का कुछ खास असर नहीं पड़ता दिख रहा है। ऐसी घटनाएं सामने आने पर जिम्मेदारी लेने के लिए कोई तैयार नहीं होता बल्कि सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष तक राजनीति करने में जुट जाता है। 16 दिसम्बर 2012 के पहले जैसे हालात थे वैसे अब भी हैं। ऐसा लगता है कि समाज में पुलिस, कानून, राजनीतिक व्यवस्था और मानवता का कोई अस्तित्व ही नहीं बचा है। तो सवाल है कि जब इनका कोई वजूद ही नहीं है तो क्यों न इन्हें अंतिम श्रद्धांजलि दे दी जाए?
इस बार अस्पताल में एक मासूम जिंदगी के लिए संघर्ष नहीं कर रही है बल्कि मानवता की सांस अटकी है। यह मौत से पहले की अंतिम हिचकी है और जिंदगी का अंतिम मौका भी। इस बार कोई विकल्प नहीं है। या तो हम हमेशा के लिए शून्य में चले जाएंगे या फिर जिस व्यवस्था में हम जी रहे हैं वह पूरी तरह बदल जाएगी। क्योंकि अब बीच का कोई रास्ता नहीं है।
इस घटनाक्रम के बाद इस बार हम हैरान, आक्रोशित या शर्मिंदा नहीं है। बल्कि हम सुन्न, बेबस, गुमसुम, बेचारे और आशाहीन नजर आ रहे हैं। क्योंकि हमारी सारी कोशिशें, सारे अभियानों का नतीजा शून्य है। 2012 में दिल्ली में रेप के 706 मामले सामने आए थे। एक जनवरी से 31 मार्च तक रेप के 393 मामले दर्ज किए गए। पिछले साल की तुलना में रेप के मामलों में 160 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। 2013 में प्रतिदिन औसतन चार से ज्यादा बलात्कार के मामले सामने आए हैं। अप्रैल में ही दिल्ली-एनसीआर में रेप के आठ मामले सामने आए हैं। 16 दिसंबर की वीभत्स घटना के बाद जब जनता 'दामिनी' को इंसाफ दिलाने के लिए सड़कों पर उतरी थी तब बदलाव की एक रोशनी नजर आई थी। लगा था कि युवा पीढ़ी समाज और व्यवस्था को बदलने के लिए मजबूर कर देगी। लेकिन तीन महीनों में ही उम्मीद की वह किरण नाउम्मीदी और बेबसी के धुंधलके में खो गई है।
दिल्ली में रेप पीडित बच्ची के पेट से मोमबत्ती और बोतल निकलने के एक दिन पहले ही तो एक लड़की ने पत्थर से लिखकर बताया था कि उसके साथ बलात्कार हुआ है। और हम पथरीले मन और आंखों से बस देखते रहे थे। उससे भी एक दिन पहले ही तो एक नाबालिग छात्रा को बलात्कार के बाद कार से फेंक दिया गया था और सुबह की ब्रेकिंग न्यूज शाम के बुलेटिन से गायब हो गई थी। कितनी पीड़िताएं, कितने रेप, कितने पुलिस के लाठीचार्ज? क्या कोई गिनती है या गिनती करने का कोई फायदा? क्या यह सच नहीं कि बुलंदशहर में बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज करवाने गई बच्ची को ही लॉकअप में बंद कर दिया गया, महाराष्ट्र के भंडारा में तीन सगी बहने बलात्कार के बाद कुएं में फेंक दी गई। सच तो यह है कि आज हम 16 दिसंबर से भी पीछे चले गए हैं। दामिनी की दास्तान जब सामने आई थी तो कम से कम हमारे पास आक्रोश और शर्म तो थी। अब तो यह भी नहीं है।
16 दिसंबर की घटना के बाद सरकार ने यौन हिंसा से जुड़े कानून में बदलाव किए। नए कानून के मुताबिक दुष्कर्म के ऐसे जघन्य मामले, जिनमें पीड़ित की मौत हो जाती है या फिर वह मरणासन्न हालत में पहुंच जाती है, उन मामलों में दोषियों को सजा-ए-मौत दी जा सकेगी। लेकिन ताजा घटना से ऐसा लगता है कि इस कानून का भी डर नहीं है। ऐसा लगता है कि बीते तीन महीनों में देश एक शून्य में चला गया है। न उम्मीद है, न आशा है और न ही बदलाव के संकेत। ऐसे में अब हमारे पास विकल्प क्या हैं? सड़क पर उतरें, लाठियां खाएं, नारे लगाए और बदलाव की उम्मीद में घर चले जाएं। और फिर जब किसी और बच्ची से रेप हो तो पुलिसवाले एफआईआर दर्ज करने के बजाए बच्ची के परिवार को मुंह बंद करने के लिए रिश्वत दें। ऐसा क्यों है कि आजादी के 66 साल बाद भी बलात्कार जैसी घटनाओं की एफआईआर दर्ज नहीं हो रही है और एसीपी स्तर के अधिकारी बेशर्मी की तमाम हदों को पार करते हुए कैमरे के सामने ही लड़कियों के मुंह पर तमाचा मारने की हिम्मत कर पा रहे हैं? हर गुजरते वक्त के साथ हम शून्य और अंधकार की ओर बढ़ते जा रहे हैं। क्या यह संवेदनहीनता की इंतहा नहीं कि इतनी वीभत्स घटना की जानकारी दिए जाने पर महिला आयोग की अध्यक्ष तत्काल कार्रवाई का भरोसा देने के बजाय छुट्टी होने का हवाला देती हैं।
सवाल यह भी उठता है कि हम किस समाज में जी रहे हैं। यहां नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है। दिल्ली की ताजा घटना पर पीएम मनमोहन सिंह भी बेहद आहत हैं और वह समाज को खुद के भीतर झांकने की नसीहत दे रहे हैं। लेकिन मुर्दा हो चुकी व्यवस्था की जिंदा हकीकत यह है कि इंडिया गेट पर लगे नारे हवा हो गए हैं, बदलाव की उम्मीद निराशा के अंधेरे में बदल गई है। आक्रोश के लिए जरूरी ऊर्जा बेबसी की थकान में बदल चुकी है। एक विचार जो मन में आता है वह यही है कि अब इस देश का कुछ नहीं हो सकता। बस इस देश के सिस्टम को दी जाए अंतिम श्रद्धांजलि और स्वयं ही कुछ किया जाए। (Bhaskar)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें