रविवार, 1 सितंबर 2013
राज छिपाने के लिए कानून : सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक 2013
शीतांशु कुमार सहाय
दरअसल, देश के सभी राजनीतिक दल अब आरटीआई से बाहर रहेंगे। सरकार इस संशोधन विधेयक के जरिये सार्वजनिक इकाइयों की परिभाषा बदल रही है; ताकि सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे से बाहर रखा जा सके। सरकार इस मुद्दे पर सभी दलों की राय ले चुकी है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने इस प्रस्ताव पर संसद में सरकार को समर्थन देने का वचन दिया है। वास्तव में जब स्वार्थ साधना हो तब दुश्मन को भी दोस्त बना लेना चाहिये! भाजपा ने ऐसा ही किया। विदित हो कि आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चन्द्र अग्रवाल व अनिल बैरवाल ने केन्द्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) के समक्ष अलग-अलग शिकायतें दर्ज कराकर राजनीतिक दलों को आरटीआई के तहत लाने की माँग की थी। इस मामले पर सुनवाई के दौरान 3 जून को सीआईसी ने कहा था कि 6 राष्ट्रीय दलों काँग्रेस, भाजपा, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी को केन्द्र सरकार की ओर से आर्थिक मदद मिलती है, अतः आरटीआई की धारा-2(एच)(2) के मुताबिक उनका स्वरूप सार्वजनिक इकाई का है। सीआईसी ने दलों को जन सूचना अधिकारियों व अपीलीय अधिकारी की नियुक्ति के लिए 6 सप्ताह का समय दिया था। यह नागवार गुजरा राजनीतिक दलों को और कानून बनाकर सीआईसी के आदेश को ही खत्म कर दिया।
आरटीआई की धारा-2(एच)(2) के अनुसार, जिन्हें सरकार की ओर से पूर्णतः या आंशिक वित्तीय मदद मिलती है वे सार्वजनिक इकाई हैं और वे आरटीआई के अन्तर्गत आएंगे। इस धारा को संशोधित करने का दूरगामी परिणाम भी होगा। आरटीआई संशोधन की आड़ में राजनीतिक दलों के पीछे ऐसी संस्थाएँ भी अपने को आरटीआई से बाहर मानेंगी जिन्हें सरकार से आंशिक या पूर्णतः आर्थिक लाभ मिलता है। कई निजी अस्पतालों-विद्यालयों-संस्थाओं को सरकार अर्थ लाभ देती है। सेचना माँगने पर वे अदालत का दरवाजा खटखटाएंगे; क्योंकि इसका आधार केंद्र सरकार ने संशोधित आरटीआई के माध्यम से उपलब्ध करा दिया है। इस संदर्भ में केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि राजनीतिक दल निर्वाचन आयोग के प्रति जवाबदेह हैं और आय का ब्योरा आयोग को दिया जाता है। 20 हजार रुपये से अधिक के चन्दे के आँकड़े आयकर विभाग को दिये जाते हैं। जो बातें निर्वाचन आयोग व आयकर विभाग को बतायी जाती हैं, वही बातें जनता को बताने से पार्टियाँ क्यों घबरा रही हैं? जिसे जनता चुनकर भेजती है, वह अपने बारे में जनता को नहीं बताएगा। यह कैसा जनप्रतिनिधित्व? बकौल सिब्बल वे (दलीय नेता) नियुक्त नहीं होते, उन्हें जनता चुनती है, इसलिये उन पर आरटीआई लागू नहीं होगा। नेताओं ने अपने को कानून से ऊपर की चीज बना लिया है। राजनीतिक दल भले ही अपनी विचारधारा छिपाएँ मगर आय-व्यय को जनता के सामने रखना ही चाहिये। यदि ऐसा नहीं किया गया तो जनता हिसाब माँगेगी ही। यह सच है कि जनता अब जाग गयी है। यही सच नेताओं के गले नहीं उतर रहा है। इसका असर 2014 के लोकसभा आम चुनाव में हो या न हो मगर दूरगामी प्रभाव तो अवश्य पड़ेगा, बस इन्तजार कीजिये।
अब तक केन्द्र सरकार व काँग्रेस कहती रही है कि उनकी तरफ से जनता को सूचना का अधिकार देकर उन्हें ऐसा हथियार प्रदान किया गया है जिसके माध्यम से जनसरोकार से जुड़ी सूचनाएँ प्राप्त की जा सकती हैं। इसे लागू करने के दौरान काँग्रेस द्वारा यह भी प्रचारित किया गया कि अब हर चीज पारदर्शी होगी, जनता सब कुछ देख सकेगी। पर, वह प्रचार छलावा साबित हुआ जब स्वयं काँग्रेस के ही पारदर्शी होने की बारी आयी। झटपट ‘सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक 2013’ बनाकर 12 अगस्त को कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन राज्य मंत्री वी नारायणसामी ने लोकसभा में पेश किया। लोकसभा की सोमवार यानी आज की कार्यसूची में यह चर्चा व पारित कराने के लिए सूचीबद्ध है। यकीन मानिये कि बिना हिल-हुज्जत के यह पारित हो जाएगा। जिस विधेयक से सीधा जनता को लाभ हो, वह भले ही विरोध या शोरगुल की भेंट चढ़ जाए मगर जिससे नेताओं को फायदा हो, वह तुरन्त पारित हो जाता है। यह भारतीय जनतन्त्र का व्यावहारिक सच है। अब राजनीतिक दलों के आन्तरिक सच को जानने का अवसर जनता को नहीं मिल पाएगा, कभी नहीं। जनतन्त्र की दुहाई देने वाले दल जनता से ही छिपाएंगे अपना राज। वे कभी नहीं बताएंगे कि उनके पास वैध या अवैध तरीके से कितना धन आया। पद पर रहकर महज कुछ हजार वेतन पाने वाले नेता लाखों की यात्रा व मौज-मस्ती में करोड़ों उड़ाने का राज ढँककर रखेंगे। पद से हटने पर भी उनके रुतबे में कमी क्यों नहीं हुई? यह प्रश्न अनुत्तरित ही रहेगा। गला फाड़कर पारदर्शिता की बात कहने वाले नेता अपनी पार्टी को कभी पारदर्शी नहीं बनाएंगे। वे ऐसा करें भी क्यों? अब कोई कहेगा भी तोे वे कानून की लाचारी समझा देंगे और कहेंगे, क्या करें, हम तो चाहते हैं कि हमारी पार्टी अपनी आय-व्यय और अन्य बातें सार्वजनिक करे लेकिन कानून ऐसा करने नहीं देता। ऐसा तर्क देने का मौका किसी और ने नहीं दिया; बल्कि दल वाले स्वयं ही ‘हिफाजत’ के लिए ऐसा कानून बना रहे हैं। केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने पहले ही राजनीतिक दलों को सूचना का अधिकार कानून (आरटीआई) से बाहर कर दिया है।
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