आजकल हम नेपाल की चर्चा सिर्फ माओवाद के संदर्भ में ही करते हैं. लेकिन नेपाल की तराई में बसे मणिग्राम दूसरे कारणों से हमें अपनी ओर बरबस आकर्षित करता है. यहां किसी भी तरह का फैसला पूर्णत: लोकतांत्रिक तरीके से सबकी सहमति के बाद ही किया जाता है। बुटवल नगरपालिका के इस मणिग्राम पंचायत के अध्यक्ष रोमणी प्रसाद पाठक की शिकायत है कि सरकार इस परंपरा के संरक्षण के लिए कोई मदद नहीं कर रही। बहरहाल सैकड़ों वर्ष पुरानी परंपरा बचाने वाली मणिग्राम पंचायत की स्थिति पर भी एक नजर डालनी जरूरी है, ताकि परंपरा और आधुनिक लोकतंत्र की बुनियादी इकाई का तालमेल देखा जा सके।
यहां के समाज की एकता, समझ और दूरदर्शिता थी जो आज भी बदस्तूर जारी है आज भले ही नेपाल राजशाही से हटकर साम्यवादियों के हाथों में चला गया हो। मणिग्राम ग्राम विकास समिति का सालाना विकास बजट है, 86 लाख रुपए। इसमें सरकार का योगदान है 4,82,000 रुपए का। बाकी पैसे कहां से आते होंगे? समिति ने गांव के विकास के लिए तरह-तरह के कर लगा रखे हैं। मसलन तिनाऊ नदी के किनारे से बालू ले जाने पर कर, गांव में लगने वाले साप्ताहिक बाजार का कर, आस-पास लगे छोटे उद्योगों से सालाना कर, किसानों से भूमि कर, घरों से 20 रु. की दर से कर जो हर मंजिल के अनुसार दुगना होता जाता है। यहां मोटर साइकिल पर 25 रु. जबकि साइकिल पर 2 रु. की दर से कर वसूला जाता है। इसी तरह रंगीन टेलीविजन पर 25 रु. तथा श्वेत श्याम टीवी पर 20 रु. कर की दर है। अब जरा उन लोगों पर एक नजर डाली जाए जो इस गांव से निकलकर दुनिया के कोने-कोने में बसे हुए हैं। यहां से भारत आने वालों की संख्या है 300, जबकि 79 हांगकांग में काम कर रहे हैं, 43 लोगों ने इंग्लैंड का रुख किया है तो जर्मनी जाने वालों की संख्या महज 9 है। जबकि 56 लोग सउदी अरब में नौकरी कर रहे हैं और 29 दक्षिण कोरिया में। जाहिर है कि नेपाल की तराई में बसा यह गांव आधुनिकता और परंपरा का अद्भुत मेल है। आज के उपभोक्तावाद के दौर में जहां लोग फैशन और आधुनिकता के चक्कर में अपनी परंपरा भूलते जा रहे हैं, मणिग्राम इन दोनों के बीच जबरदस्त सामंजस्य बिठाकर गांव का विकास कर रहा है। आज भले ही नेपाल राजशाही से हटकर साम्यवादियों के हाथों में चला गया हो पर निश्चित ही ऐसे प्रयोगों को और जगहों पर दुहराने की जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता। गौरतलब है कि इस नहर के पानी के लिए किसी किसान को कर नहीं देना पड़ता। पंचायत का मानना है कि जनता खुद मेहनत कर नहर को साफ रखती है इसलिए उससे किसी तरह का कर नहीं लिया जाएगा। लेकिन अनुषासन का पालन भी तो होना चाहिए। इसके लिए लोगों ने नियम भी बनाए हुए हैं। अगर कोई किसान पानी की चोरी करता पकड़ा जाता है कि उस पर एक हजार रुपए का जुर्माना लगाया जाता है। दुबारा पकड़े जाने पर जुर्माने की राशि बढ़ जाती है। इसी तरह नहर सफाई के काम में बारी के बावजूद न जाने पर 75 रुपए जुर्माना लगाया जाता है। इस परंपरा से जुड़े 92 गांवों के 92 लोग छत्तीस मौजा कुलो समिति के सदस्य हैं, जबकि पांच आमंत्रित होते हैं। इस तरह कुल 97 लोग समिति में होते हैं। जबकि करीब 500 लोग समिति की आम सभा के सदस्य होते हैं। यहां किसी भी तरह का फैसला पूर्णत: लोकतांत्रिक तरीके से सबकी सहमति के बाद ही किया जाता है। बुटवल नगरपालिका के इस मणिग्राम पंचायत के अध्यक्ष रोमणी प्रसाद पाठक की शिकायत है कि सरकार इस परंपरा के संरक्षण के लिए कोई मदद नहीं कर रही। बहरहाल सैकड़ों वर्ष पुरानी परंपरा बचाने वाली मणिग्राम पंचायत की स्थिति पर भी एक नजर डालनी जरूरी है, ताकि परंपरा और आधुनिक लोकतंत्र की बुनियादी इकाई का तालमेल देखा जा सके। यहां आने वाला सारा पानी तिनाऊ नदी से नहर के जरिए लाया जाता है। यह नहर डेढ़ सौ साल पहले सामूहिक श्रम के जरिए बनाई गई थी। नदी से कुछ दूर जाकर नहर पूरब व पश्चिम की नहर में बंट जाती है। पूरब की नहर छत्तीस मौजा कूला कहलाती है जबकि पश्चिम की सोलह मौजा कूलो। खास बात यह है कि आज भी हर साल तिनाऊ से हर गांव तक नहर की सफाई का सारा जिम्मा समाज का है। बारिश के ठीक पहले इस नहर में हजारों की संख्या में सफाई करने वाले किसानों को देखने का नजारा ही कुछ और होता है। छत्तीस मौजा कूलो समिति तथा मणिग्राम ग्राम विकास समिति के अध्यक्ष रोमणी प्रसाद पाठक बताते हैं कि हर साल यहां की जनता नहर के लिए 50 लाख रुपयों के बराबर का श्रमदान करती है। खास बात यह है कि समिति के सदस्य जिसमें हर गांव के लोगों की भागीदारी होती है बेहद वैज्ञानिक ढंग से यह तय करते हैं कि किस मौसम में किस गांव को कितना पानी दिया जाएगा और हर गांव के खेत के आकार के मुताबिक उसके मालिक के परिवार के कितने सदस्य नहर की सफाई के काम में हाथ बंटाएंगे। मसलन अगर किसी गांव में एक किसान के पास कम जमीन है तो लाजिमी है कि वह नहर का पानी कम इस्तेमाल करता है, इसलिए जब नहर में सफाई होती है तो उसके परिवार से उसी अनुपात में लोगों को भागीदारी के लिए जाना होगा। लेकिन ऐसा हमेषा नहीं होता। यहां जरूरत के मुताबिक हर परिवार से लोगों की संख्या बढ़ाई भी जा सकती है। इस परंपरा में सावी, झरुआ व करधाने के नाम से तीन तरह की स्थितियां मानी गई हैं। सावी का अर्थ है कि नहर की सफाई के काम में हर घर से एक आदमी काम पर जाएगा। जबकि झरुआ में हर घर से दो आदमी जाएंगे। लेकिन करधाने जो एक तरह से आपात की स्थिति मानी जाती है, में हर घर से सभी सदस्य, मुख्यत: पुरुषों को नहर की सफाई के काम में जुटना पड़ता है। The Global Source for Summaries & Reviews http://hi.shvoong.comPlease read this Article and send to your friends.
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