-शीतांशु कुमार सहाय / Sheetanshu Kumar Sahay
झारखंड से राज्यसभा में महिला प्रतिनिधित्व इस बार भी नहीं होगा। राज्यसभा की दो सीटों पर इस बार भी किसी भी दल ने कोई महिला प्रत्याशी नहीं दिया। झारखंड गठन के बाद से अब तक जब भी राज्यसभा के लिए चुनाव हुए सभी पार्टियों ने महिला प्रत्याशियों की अनदेखी की है। झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) ने इस बार राज्यसभा में महिला प्रत्याशी सविता महतो को आगे बढ़ाया तो राजनीतिक समीकरण के नाम पर 24 घंटे के अंदर पार्टी को उसका नाम वापस लेना पड़ा। गठबंधन सहित अन्य दलों की राजनीति का शिकार महिला प्रत्याशी को बनना पड़ा। सहयोगी दल की फिरकी के आगे झामुमोे को अपना प्रत्याशी वापस लेना पड़ा। अब तक काँग्रेस की माबेल रिबेलो ही झारखंड से राज्यसभा की सदस्य रही हैं। उनका कार्यकाल समाप्त होने के बाद से किसी भी दल ने महिलाओं को तरजीह नहीं दी। आधी आबादी के हक की लड़ाई को आगे बढ़ाने का दावा करने वाली काँग्रेस पार्टी भी अपनी ही नीति पर कायम न रह सकी।
माबेल रिबेलो
झारखंड में गठबंधन दल (झामुमो, काँग्रेस व राजद) चाहते तो महिला प्रत्याशी को राज्यसभा में भेज सकते थे। सविता महतो को मौका मिलने से स्थानीय प्रत्याशी के साथ-साथ एक आंदोलनकारी परिवार को सम्मान भी मिलता। पूर्व उपमुख्यमंत्री स्व. सुधीर महतो की पत्नी सविता महतो को समर्थन देकर राजद और काँग्रेस राजनीति का एक अलग उदाहरण पेश कर सकते थे लेकिन राजद अपनी दावेदारी पर अडिग रहा और काँग्रेस ने भी अपनी मौन स्वीकृति दे दी। झामुमो ने भी दोनों दलों के सुर-में-सुर मिला दिया। पूरे प्रकरण में सबसे ज्यादा चोट महिलाओं के सम्मान को लगी है। सविता महतो ने खुद टिकट नहीं माँगा था; बल्कि पार्टी ने स्वयं आगे बढ़कर उन्हें प्रत्याशी बनाया था। पति के गुजरने के मात्र चार दिनों बाद ही वह घर से निकलीं। ऐसे में एक तरफ पति का गम तो दूसरी तरफ राँची आकर उलटे पाँव लौट जाने का अफसोस। इससे उन्हें जो पीड़ा हुई, वह सिर्फ वही समझ सकती हैं। इस घटना से राज्य की नेत्रियों के मनोबल पर भी प्रभाव पड़ा है।
भले किसी की भद्द पिटी या किसी की साख गिरी लेकिन झारखंड की जनता ने देखा कि राजनीतिक दलों की बात हाथी के दाँत की तरह है जो दिखाने के लिए कुछ और खाने के लिए कुछ और! महिला सशक्तीकरण और आरक्षण को लेकर पार्टियाँ बड़ी-बड़ी बातें तो करती हैं लेकिन जब उसे धरातल पर उतारने का मौका आता है तो सभी नीति और सिद्धांत धरे-के-धरे रह जाते हैं। भले महिलाएँ आज घर की चौखट को पार कर हर क्षेत्र में परचम लहरा रही हैं लेकिन राज्य के राजनीतिक दल आज भी महिलाओं को सिर्फ उसी समय राजनीति में स्थान देते हैं, जब उनकी नैया भंवर में फँसती है और उन्हें सहानुभूति की जरुरत होती है।
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