-शीतांशु कुमार सहाय / Sheetanshu Kumar Sahay
अभी कुछ ही दिन हुए हैं झारखण्ड में भारतीय जनता पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार बने हुए। तीन महीने से भी कम समय में रघुवर सरकार ने झारखण्ड के माननीयों के वेतन भत्ते को बढ़ाने हेतु समिति का गठन भी कर दिया। और तो और 13 मार्च 2015 को गठित इस समिति ने मात्र 12 दिनों के अंदर ही अपनी रिपोर्ट भी सौंप दी। 24 मार्च को सौंपे गये रिपोर्ट को यदि सरकार अक्षरशः लागू करती है तो झारखण्डी माननीयों का वेतन भत्ता लगभग दोगुना हो जायेगा। वर्तमान में विधानसभा अध्यक्ष व मुख्यमंत्री को 1 लाख 33 हजार रूपये बतौर वेतन भत्ता मिलता है जो समिति के अनुशंसा के अनुसार बढ़कर 2 लाख 20 हजार रूपये प्रतिमाह हो जायेगा। वहीं मंत्रियों व नेता विपक्ष का वेतन भत्ता 1 लाख 17 हजार से बढकर 2 लाख 10 हजार हो जायेगा तो विधायकों को मिलने वाला वेतन भत्ता 96 हजार रूपये से बढ़कर 1 लाख 75 हजार रूपये हो जायेगा। माननीयों के लिए अच्छे दिन लाने वाले इस वृद्धि से झारखण्ड सरकार पर सलाना 80 करोड़ रूपये का अधिक बोझ पड़ने का अनुमान है।
गौरतलब है कि 15 नवंबर 2000 में झारखण्ड बनने के बाद से यहां के विधायकों के वेतन भत्ते में 3 बार वृद्धि की जा चुकी है। गरीब जनता वाले इस राज्य के माननीयों के वेतन में सबसे पहली वृद्धि 21 दिसंबर 2001 को हुई। पुनः 21 सितंबर 2005 और 3 सितंबर 2011 को इनके लिए वेतन भत्ते में वृद्धि करनी पड़ी। इस बार गरीब गुरबों की बात करने वाली मासस के विधायक अरूप चटर्जी के नेतृत्व में बनी विधानसभा समिति ने मात्र 12 दिनों में ही अपनों के वेतन भत्ते में वृद्धि की सिफारिश कर दी। इस समिति के कार्य करने की तीव्रता को देखकर लोगों के मन में एक आह बरबस आ ही जाता है कि काश! झारखण्ड के विकास के लिए बने में हर इक योजना पर इतनी तीव्रता से काम होता तो आज झारखण्ड का कायाकल्प ही हो जाता है। बात सिर्फ इतनी सी नहीं है कि झारखण्डी माननीयों के वेतन भत्ते में वृद्धि हो रही है। इस वृद्धि की सबसे बड़ी बात यह है कि विधायकों के वेतन वृद्धि के घोर विरोधी रहे भाकपा माले के पूर्व विधायक विनोद सिंह की अनुपस्थिति में इस वृद्धि का किसी भी विधायक ने विरोध करने का साहस तक नहीं दिखाया। विनोद सिंह के पहले विधायकों के वेतन वृद्धि का विरोध उनके पिता भाकपा माले के ही पूर्व विध्ाायक स्वर्गीय महेन्द्र सिंह किया करते थे।
अभी कुछ ही दिन हुए थे जब सरकार ने अपने मंत्रियों के एसयूवी गाड़ी खरीदने की स्वीकृति दी थी। झारखण्ड की जनता जानना चाहती है कि जिस राज्य के बहुसंख्यक लोगों को एक अदद साइकिल तक नसीब नहीं होती है वहां के मंत्रियों के लिए इतनी महंगी गाड़ियों की आवश्यकता भला क्या है ? यह सर्वविदित है कि खनिज संपदा के मामले में धनी इस राज्य के 40 प्रतिशत से भी अधिक की आबादी जहां दो जून रोटी के संघर्षरत है। किसान आज भी खेती के लिए मानसून पर ही आश्रित हैं। आज भी झारखण्ड में सिंचाई की स्थिति राज्य बनने के पहले जैसी ही है भले ही सरकारी आंकड़े कुछ कहते हों। मानसून के साथ जुआ खेलते हुए किसान किसी तरह साल में एक बार ही फसल उपजा पाते हैं। किसान कहना चाहती है काश! हमारे बारे में हमारी सरकार ने ऐसे ही तेजी से काम किया होता तो आज हम भी समृद्धि के मामले में पंजाब और हयिाणा के किसानों का टक्कर दे रहे होते। सरकारी कार्यालयों में वर्षों से पड़े रिक्त पदों को सरकार फंड के अभाव में भर नहीं पा रही है। नगरपालिकाओं में तो आजादी के बाद से बहाली तक नहीं हो पाई है। ऐसे में झारखण्डी माननीयों के वेनत भत्ते में वृद्धि आम आदमी के मन में निश्चित ही टीस पैदा करती है।
पता नहीं ऐसा क्यों है कि हर मसले पर अपनी अलग-अलग राय रखने वाले तमाम राजनीतिक दल माननीयों के वेतन भत्ते में वृद्धि के मामले में इतनी एकजुट कैसे हो जाती है ? झारखण्ड के अधिकतर विभागों की स्थिति ऐसी है कि वर्षों से यहां कम्प्यूटर ऑपरेटर का पद तक सृजित नहीं किया जा सका है जबकि आज के युग में कम्प्यूटर के बिना किसी भी विभाग का काम चल नहीं सकता है। 400-500 रूपये दैनिक की दर से अनुबंध्ा पर वर्षों से काम करने वाले कम्प्यूटर ऑपरेटर आज भी अपने कार्यालय के बॉस के रहमोकरम पर कार्य कर रहे हैं। सबसे दुखद बात यह कि झारखण्ड बनने के 14 वर्ष बीत जाने के भी आज तक किसी भी सरकार ने अनुबंध पर काम करने वाले इन कम्प्यूटर ऑपरेटरों के लिए श्रम विभाग में मानदेय की दर निर्धारित करना भी जरूरी नहीं समझा। ऐसे में इन बेचारों के मन में विधायकांे के वेतन भत्ते में हो रही वेतन वृद्धि पर प्रश्न उठना स्वभाविक है।
झारखण्ड में वर्षों से शिक्षा का अलख जलाने वाले पारा शिक्षकों के वेतन वृद्धि व स्थायीकरण के मुद्दे पर हरेक सरकार ने इन्हें केवल आश्वासन का घूंट पिलाने का ही काम किया है। झारखण्ड सरकार के द्वारा इनके समस्याओं के निराकरण के लिए समिति बनाई गई। पर समिति की सिफारिश का कुछ पता नहीं। ऐसे कितनी ही समितियां हैं जिनके द्वारा सालों से कोई रिपोर्ट नहीं दी गई है। कई बार तो पिछली सरकारों ने माना कि पारा शिक्षकों को स्थायी करना संभव नहीं है क्योंकि इससे राज्य सरकार पर अतिरिक्त वित्तीय बोझ बढ़ेगा। भला ऐसे में पारा शिक्षकों से ईमानदारीपूर्वक कार्य करने की आशा कैसे की जा सकती है। आज वर्षों से पारा शिक्षक के रूप में कार्य कर सरकार नौकरी प्राप्त करने की उम्र सीमा खो चुके हजारों युवाओं के मन से एक ही सवाल उठ रहा है क्या मानीनयों के वेतन भत्ते में होने वाली वृद्धि से राज्य सरकार पर अतिरिक्त वित्तीय बोझ नहीं पड़ेगा ? माननीयों के वेतन भत्ता में वृद्धि पर पारा शिक्षका संघ के प्रदेश नेता विक्रांत ज्योति कहते हैं कि लोकतंत्र में आज राजा हित प्रजा हित से ऊपर हो चुका है। यही कारण है कि वर्षों से कार्य करने वाले पारा शिक्षकों की समस्याओं के समाधान के बदले सरकार और विपक्ष अपने हित पर काम करने में मशगुल हैं। पारा शिक्षकों की बात छोड़ दीजिये आज सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले मासूमों के मन में भी सवाल उठ रहा है। देश के भावी कर्णध्ाार अपने भाग्य विधाताओं से पूछ रहा है कि पैसे के अभाव में हमारे छात्रवृत्ति व पोशाक में कटौती की जाती है तो ऐसे में आपके वेतन वृद्धि के लिए पैसे कहां से आ जाते हैं ? अभी-अभी विधानसभा में मुख्यमंत्री रघुवर दास ने बयान दिया कि मनरेगा कर्मियों के मानदेय में वृद्धि करने की कोई योजना सरकार के पास नहीं है। अर्थात् रोजगार सेवकों का मानदेय बढ़ने वाला नहीं हैं। भला ऐसे में अनुबंध पर काम करने वाले रोजगार सेवक अपने भाग्य निर्माताओं से पूछ ही सकता है कि माननीयों के वेतन भत्ते में वृद्धि के मामले में रघुवर राज में ऐसा रवैया क्यों नहीं अपनाया जाता है ?
अभी हाल ही की बात है। यहां वर्षों से झारखण्ड शिक्षा परियोजना परिषद् के अध्ाीन प्रखंड साधन सेवी व संकुल साधन सेवी यानि बीआरपी व सीआरपी कार्य कर रहे हैं। शिक्षाधिकार कानून के मुताबिक इस पद पर आसीन व्यक्तियों के लिए बीएड या समकक्ष की डिग्री होना आवश्यक माना गया है। अनुमानित तौर पर पूरे राज्य मे लगभग 4000 बीआरपी-सीआरपी कार्यरत हैं जिनमें से प्रशिक्षित की संख्या मात्र 500 के आसपास है। अप्रशिक्षित बीआरपी-सीआरपी के लिए जब प्रशिक्षण की बात आई तो परियोजना के कार्यकारिणी ने वित्तीय भार का हवाला देते हुए फैसला लिया कि अप्रशिक्षित बीआरपी-सीआरपी को प्रशिक्षित किया जायेगा, लेकिन उनके प्रशिक्षण में होने वाले व्यय का वहन संबंधित बीआरपी-सीआरपी करेंगे। विदित हो कि इन अप्रशिक्षित बीआरपी-सीआरपी को प्रशिक्षण कराने में अनुमानित तौर पर बमुश्किल केवल 5 करोड़ रूपये ही खर्च होना है। अब भला जिस राज्य की सरकार अपने माननीयों के वेतन भत्ते के लिए सलाना 80 करोड़ रूपये का अतिरिक्त बोझ झेल सकती है तो बीआरपी-सीआरपी के लिए केवल 5 करोड़ रूपये खर्च नहीं कर सकती है ? ऐसे में उम्र के बेकाम पड़ाव में पहुंचे ऐसे युवाओं के मन में भी सवाल है कि हमारे माननीय क्या केवल अपने बारे में ही सोचते रहेंगे ? जिस शिक्षा विभाग का काम आज बीआरपी-सीआरपी के बिना चल नहीं सकता है उस पद को स्थायी करने की जहमत भी किसी सरकार ने नहीं उठाया जबकि इस पद की स्वीकृति आरटीई में भी है जिसमें इस पद को संकुल समन्वयक का नाम दिया गया है।
लोकसभा चुनाव 2014 के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने ‘अच्छे दिन आयेंगे’ का नारा दिया था। जनता का तो पता नहीं पर वेतन भत्ते में वृद्धि के द्वारा झारखण्ड के माननीयों के लिए अच्छे दिन लाने की तैयारी की जा रही है। लोकसभा चुनाव के समय भाजपा ने एक और नारा दिया था- ‘सबका साथ, सबका विकास‘। माननीयों के वेतन वृद्धि के मामले को देख कर आम आदमी अपने निजाम से पूछ रही है क्या यही है सबका साथ, सबका विकास। आम आदमी कह रहा है कि अपनी वेतन वृद्धि के मामले में भाजपा ने सबका यानि सभी विध्ाायकों का साथ मिला और सभी विधायकों के वेतन में होने वाली वृद्धि से सबका विकास भी हो जायेगा। आम आदमी सोच रहा है हमारी सरकार ने अपने लोगों यानि विधायकों के लिए तो यह नारा सच कर दिखाया। अब देखना है कि राज्य की जनता के लिए यह नारा कब और कितना सार्थक सिद्ध हो पाता है ?
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