-प्रस्तोता : शीतांशु कुमार सहाय
माता आदिशक्ति अपने दुर्गा अवतार को नौ रूपों में व्यक्त किया है। इन्हें 'नवदुर्गा' कहते हैं। नवरात्र के दौरान इन की आराधना-उपासना की जाती है। कई मन्त्रों, स्तवनों, श्लोकों और स्तोत्रों से नवदुर्गा की पूजा-अर्चना की जाती है। इन में महत्त्वपूर्ण रूप से 'भवान्यष्टक' यानी 'भवानी अष्टक' शामिल है जिसे आचार्य शंकर (शंकराचार्य) ने रचा था।
भवान्यष्टक की रचना का एक इतिहास है। इस बारे में आप भी जानिए। एक बार आदिगुरु शंकराचार्य शाक्तमत (शक्ति को माननेवाले का मत) का खण्डन करने के लिए कश्मीर पहुँचे थे। कश्मीर में उन का स्वास्थ्य बिगड़ गया। उन का शरीर शक्तिहीन हो गया था। एक पेड़ के नीचे आराम करते हुए विचारमग्न थे कि इतनी शारीरिक शक्तिहीनता कैसे प्रकट हुई और इस का निराकरण क्या है।
वहाँ से एक ग्वालिन सिर पर दही का बर्तन लेकर निकली। आचार्य शंकर का पेट जल रहा था और वे बहुत प्यासे भी थे। उन्होंने ग्वालिन को इशारा किया कि वह उन के पास आकर दही दे। ग्वालिन थोड़ी दूर पर रूकी और कहा, "दही लेना है तो आप यहाँ आइए।"
आचार्य शंकर ने धीरे से कहा, “मुझ में इतनी दूर आने की शक्ति नहीं है। बिना शक्ति के कैसे तुम्हारे पास पहुँच सकता हूँ।"
हँसती हुई ग्वालिन ने कहा, "शक्ति के बिना कोई एक कदम भी नहीं उठा सकता और आप शक्ति का खण्डन करने निकले हैं?"
ग्वालिन की बात सुनते ही शंकराचार्य की आँखें खुल गयीं। वह समझ गये कि भगवती स्वयं ही इस ग्वलिन के रूप में आयी हैं। उन के मन में जो शिव और शक्ति के बीच का अंतर था वो मिट गया और उन्होंने शक्ति के सामने समर्पण कर दिया और शब्द निकले "गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानी"
समर्पण का यह स्तवन 'भवानी अष्टक' या 'भवान्यष्टक' नाम से प्रसिद्ध है, जो अद्भुत है। शिव स्थिर शक्ति हैं और भवानी उन में गतिशील शक्ति हैं। दोनों अलग-अलग हैं... एक दूध है और दूसरा उस की सफेदी है। इस तरह नेत्रों पर अज्ञान का जो आखिरी पर्दा भी माँ ने ही उसे हटाया था। इसलिए शंकर ने कहा, "माँ, मैं कुछ नहीं जानता"।
यहाँ शंकराचार्य रचित 'भवान्यष्टक' को प्रस्तुत किया गया है।
न तातो न माता न बन्धुर्न दाता
न पुत्रो न पुत्री न भृत्यो न भर्ता ।
न जाया न विद्या न वृत्तिर्ममैव
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि॥१॥
भवाब्धावपारे महादुःखभीरु
प्रपात प्रकामी प्रलोभी प्रमत्तः।
कुसंसारपाशप्रबद्धः सदाहं
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि॥२॥
न जानामि दानं न च ध्यानयोगं
न जानामि तन्त्रं न च स्तोत्रमन्त्रम् ।
न जानामि पूजां न च न्यासयोगं
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि॥३॥
न जानामि पुण्यं न जानामि तीर्थं
न जानामि मुक्तिं लयं वा कदाचित्।
न जानामि भक्तिं व्रतं वापि मातर्-
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि॥४॥
कुकर्मी कुसङ्गी कुबुद्धिः कुदासः
कुलाचारहीनः कदाचारलीनः।
कुदृष्टिः कुवाक्यप्रबन्धः सदाहं
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि॥५॥
प्रजेशं रमेशं महेशं सुरेशं
दिनेशं निशीथेश्वरं वा कदाचित्।
न जानामि चान्यत् सदाहं शरण्ये
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि॥६॥
विवादे विषादे प्रमादे प्रवासे
जले चानले पर्वते शत्रुमध्ये।
अरण्ये शरण्ये सदा मां प्रपाहि
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि॥७॥
अनाथो दरिद्रो जरारोगयुक्तो
महाक्षीणदीनः सदा जाड्यवक्त्रः।
विपत्तौ प्रविष्टः प्रनष्टः सदाहं
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि॥८॥
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