शनिवार, 11 मई 2013
त्याग पत्र के बाद कार्रवाई होगी बंसल व अश्विनी पर?
अपने देश में एक अजीब सिलसिला जारी है। जैसे-तैसे विधायक या सांसद बनो और करोड़ों-अरबों का घोटाला करो। यदि विपक्षियों द्वारा या किसी अन्य माध्यम से हो-हल्ला हुआ तो पद से त्याग पत्र देकर जनता की मोटी रकम को डगार लो। हाल के वर्षों में इस प्रकरण की इतनी पुनरावृत्ति हुई कि अब यह भारतीय लोकतंत्र की एक परम्परा बन गई है। इस परम्परा का निर्वहन कर विपक्षी दलों के नेता भी आरोपों के घेरे में आए मंत्रियों के त्याग पत्र ही माँगते हैं, उन पर कार्रवाई की बात नहीं करते हैं।
क्या महज त्याग पत्र देने से आरोप धुल जाते हैं? पद छोड़ने मात्र से ही आरोपित पवित्र तो नहीं हो जाता! क्या पद त्यागने वालों पर कानून का डण्डा नहीं चलना चाहिये? क्या इस्तीफा देने वालों से घपले की राशि नहीं वसूली जानी चाहिए? ऐसे कई प्रश्न उभरते हैं मगर विपक्षियों की माँग में ये प्रश्न शामिल न होना एक गंभीर सच्चाई को उजागर करता है। वह सच्चाई है कि यदि कल विपक्षियों के हाथ में सत्ता आ गई और उनके सहयोगी घपलेबाज निकले तो वह भी उनका त्याग पत्र लेकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेंगे! यह परम्परा लोकतन्त्र के लिए अत्यन्त घातक है। इसी घातक परम्परा की एक बार फिर पुनरावृत्ति हुई शुक्रवार की रात को। पवन की रेल से टिकट कटी तो अश्विनी को कानून से बाहर किया गया। मतलब यह कि रेल मंत्री के पद से पवन कुमार बंसल और विधि (कानून) मंत्री की कुर्सी से अश्विनी कुमार का त्याग पत्र लिया गया।
यों एक तीर से दो निशाना साधा कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी ने। पहली तो यह कि संसद में मुख्य विपक्षी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) बंसल व अश्विनी सहित प्रधान मंत्री मनमोहन के त्याग पत्र की माँग के मद्देनजर सत्र को बाधित करती रही जो अब चुप रहेगी। दूसरी यह कि इन दोनों मंत्रियों के चलते काँग्रेस व सरकार की काफी छीछालेदर हो रही थी, उम्मीद है उस पर विराम लगेगा। पर,
इस बीच भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने मनमोहन को आत्मावलोकन करने की नसीहत दी। उन्होंने कहा कि आत्मावलोकन करने पर प्रधान मंत्री को मात्र पद त्यागने का ही विकल्प सूझेगा। मतलब यह कि मनमोहन सिंह के पद त्यागने की माँग पर भाजपा अब भी अडिग है।
एक तरफ जहाँ काँग्रेसी खेमे में अश्विनी-बंसल से छुटकारा पाने पर राहत व कर्नाटक फतह पर खुशी महसूस की जा रही है, उसी तरह भाजपा खेमे में भी तीन में से दो के त्याग पत्र पर सफलता की खुशी छाई हैं। खुशी में तो तत्कालीन विधि मंत्री अश्विनी व तत्कालीन रेल मंत्री पवन भी थे। एक ने केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) की कोयला घोटाले की स्टेटस रिपोर्ट बदलवा कर अपने पद का गुरूर दिखाया तो दूसरे ने भांजे के सहारे मोटी रिश्वत लेकर रेल में बहाली को अंजाम दिया। काँग्रेस और मनमोहन की सरकार ने ए. राजा की तरह इन दोनों की भी खूब तरफदारी की, बंसल के ‘मिस्टर क्लीन’ वाली छवि को भी उछाला। पर, सर्वोच्च न्यायालय व सीबीआई की चोट से दोनों को ‘घायल’ होना ही पड़ा।
इस दरम्यान केन्द्र सरकार राहत की साँस ले रही है। पर, यह राहत क्षणिक साबित हो सकती है। सरकार में एकमात्र ईमानदार छवि प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की है। यह छवि ईमानदार जरूर है पर बेदाग नहीं। मूक मनमोहन को आगे कर वाचाल मंत्रियों में लूट की होड़ लगी है।
विकास में सरकार की जितनी ऊर्जा लग रही है उससे कई गुना अधिक ऊर्जा सरकार को बचाने में लगती जा रही है। इस कारण जहाँ महंगाई बेतहाशा बढ़ रही है, वहीं तन्त्र कमजोर व लाचार होता जा रहा है। तंत्र की तंत्रिकाओं में स्फूर्ति भरने का प्रयास नहीं किया जा रहा है।
ऐसे में देश एक भयानक अंधेरे की ओर बढ़ रहा है। पर, इस नकारात्मक कल की चिंता सरकार को नहीं है। ‘सबकुछ’ चुप रहकर जारी है। घपला-घोटाला हो तो चुप। कोई सीमा प्रहरी का सिर काट ले तो चुप। कोई सीमा का अतिक्रमण कर ले तो चुप। तंग-परेशान जनता कराहती रहे तो चुप। संसद चले तो चुप, न चले तो भी चुप। मंत्री गड़बड़ी करे तो चुप, त्याग पत्र दे तब भी चुप। इस चुप्पी के बीच त्याग पत्र तो हो गया मगर फिर वही प्रश्न उभरता है कि क्या पद छोड़ने वालों पर कार्रवाई होगी?
शुक्रवार, 10 मई 2013
सीबीआई : आजाद हो सकेगा पिंजड़े में बन्द तोता
यकीन मानिये कि कार्यपालिका (सीबीआइ) और विधायिका (केन्द्र सरकार) के अनैतिक गठजोड़ का खुलासा न होता यदि सर्वोच्च न्यायालय का डण्डा न चलता। केन्द्र सरकार बार-बार यह दावा करती रही कि सीबीआइ स्वायत्त जाँच एजेन्सी है मगर कोयला घोटाले के वर्तमान प्रकरण ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह किस हद तक दबाव में कार्य करती है। वास्तव में सीबीआइ के पास आजादी से कार्य करने की आजादी नहीं है।
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में सरकार के 3 प्रमुख अंगों में से 2 पर जनता को विश्वास नहीं रहा। तीसरी न्यायपालिका पर ही सारी उम्मीदें टिकी हैं। इन दोनों के कर्ता-धर्ता अर्थात् तमाम अधिकारियों-पदाधिकारियों व जनप्रतिनिधियों ने स्वार्थ के आगे जनहित को तिलांजलि दे रखी है। तभी तो नाले व गलियों की सफाई के लिए भी न्यायालय को आदेश देना पड़ रहा है। ऐसे भ्रष्ट तन्त्र के बीच जाँच-पड़ताल के लिए केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) से उम्मीद शेष थी। उस उम्मीद पर भी कोयला घोटाले पर मचे कोहराम ने धूल की मोटी परत बिछा दी। केन्द्र सरकार बार-बार यह दावा करती रही कि सीबीआइ स्वायत्त जाँच एजेन्सी है मगर कोयला घोटाले के वर्तमान प्रकरण ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह किस हद तक दबाव में कार्य करती है।
वास्तव में सीबीआइ के पास आजादी से कार्य करने की आजादी नहीं है। यह गंभीर तथ्य तब उभरा जब सर्वोच्च न्यायालय ने सीबाआइ निदेशक रणजीत सिन्हा से पूछा कि कोयला घोटाले की जाँच रपट सरकार से साझा तो नहीं की गई। तब रणजीत की जो मुँह खुली तो 2 केन्द्रीय मंत्रियों समेत प्रधान मंत्री कार्यालय भी कटघरे में नजर आने लगा। सरकारी दबाव को स्वीकारते हुए सीबीआइ ने यह कहा कि कोयला घोटाले की रपट ही बदलवा दी गई। ऐसे में इस जांच एजेन्सी की तमाम पड़तालों की निष्पक्षता भी संदेह के घेरे में आ गई।
सीबीआइ को सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार द्वारा पिंजड़े में बन्द तोता करार दिया जो मालिक (सरकार) की भाषा ही बोलता है। यकीन मानिये कि कार्यपालिका (सीबीआइ) और विधायिका (केन्द्र सरकार) के अनैतिक गठजोड़ का खुलासा न होता यदि सर्वोच्च न्यायालय का डण्डा न चलता। इस बीच रणजीत सिन्हा मानते हैं कि सीबीआइ की स्वायत्तता में 5 प्रमुख रोड़े हैं- गृह, विधि व कार्मिक विभाग सहित संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) और केन्द्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी)।
अधिकारियों के कैडर क्लीयरेन्स के लिए सीबीआइ को गृह विभाग पर निर्भर रहना पड़ता है। निदेशक स्तर से केवल निरीक्षक स्तर के अधिकारी ही बहाल हो सकते हैं। डीएसपी स्तर के अधिकारियों के लिए यूपीएससी से गुहार लगानी पड़ती है। यों याचिका दायर करने के लिए विधि विभाग की मंजूरी जरूरी है। इसी तरह प्रतिदिन के कार्य, खर्च हेतु राशि व नये अधिकारियों के लिए कार्मिक विभाग का मुँह ताकना पड़ता है। साथ ही भ्रष्टाचार से सम्बन्धित मुकदमों में सीबीसी को जवाब देने की मजबूरी भी सीबाआइ को है।
ऐसी स्थिति में किस आधार पर सरकार इसे स्वायत्त कहती आई है? हालाँकि इस जाँच एजेन्सी के पास काबिल अधिकारियों की टीम भी है पर कुछ वर्षों से इसकी जाँच की धार को सरकार ने कुन्द कर रखा है। लिहाजा इसके पास लम्बित मामलों में लगातार इजाफा हो रहा है। वर्ष 2012 के अन्त में सीबीआइ के 9734 मामले न्यायालयों में लम्बित हैं। ऐसे में यह सवाल उभर रहा है कि आखिर खुले आकाश में स्वतंत्रतापूर्वक सीबीआइ का तोता कब उड़ सकेगा?
इस बीच सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार को सख्त आदेश दिया है कि वह सीबीआइ की स्वायत्तता के लिए उचित कानून 10 जुलाई तक बनाए। 15 वर्षों से स्वायत्तता पर कुछ नहीं करने के मामले में भी सरकार को जवाब देना है। लिहाजा केन्द्र सरकार में खलबली है। केन्द्रीय मंत्रियों कपिल सिब्बल, पी.चिदम्बरम व नारायण सामी आदि की एक समिति गठित कर अन्तिम निर्णय लिये जाने की कवायद जारी है। सरकार अध्यादेश भी जारी करने की प्रक्रिया पूरी कर रही है। इस सरकारी हरकत की पृष्ठभूमि पुरानी है। सीबीआइ को पूरी तरह सरकारी नियंत्रण से बाहर करने की पहली सिफारिश वर्ष 1978 में एलपी सिंह समिति ने की। फिर वर्ष 2007 व 2008 में संसद की स्थाई समिति ने भी सीबीआइ के स्वायत्तता की वकालत की। प्रशासनिक सुधार आयोग भी ऐसा ही चाहता है।
देखना यह है कि सर्वोच्च न्यायालय की डेडलाइन में सरकार कानून बनाती है या स्वायत्तता के मामले को किसी समिति के हवाले कर ठण्डे बस्ते में डालती है।
गुरुवार, 9 मई 2013
अनैतिक गठजोड़ सरकार व सीबीआई का
सर्वोच्च न्यायालय की तल्खी कुछ इन शब्दों में झलकी- सीबीआई पिंजरे में बंद ऐसा तोता बन गई है जो केवल अपने मालिक की बोली बोलता है। यह ऐसी अनैतिक कहानी है जिसमें एक तोते के कई मालिक हैं। वास्तव में सीबीआई को एक अस्त्र के रूप में सरकार प्रयोग करती रही है। हाल के वर्षों में यह देखने में आया है कि जिसने भी काँग्रेस की खिलाफत की उसके पीछे सीबीआई को लगा दिया गया।
आरोप-प्रत्यारोप के बीच शर्म, सामाजिक-राजनीतिक मर्यादा और नैतिकता को तिलांजलि देकर निरन्तर अनियमितताओं को अंजाम देती हुई कांग्रेस नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन (संप्रग) की केन्द्र सरकार सत्ता से चिपकी हुई है। साथ ही सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह सभी चर्चित मुद्दों पर मौन धारण किये रहते हैं।
मनमोहन सरकार के कई कदमों को कैग, विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक संगठनों, विपक्षी दलों, आम जनता सहित न्यायालय ने भी गलत करार दिया है। पर, सरकार को लगता है कि वह जो भी कर रही है, वही सच है। अपनी पीठ थपथपाने वाली संप्रग सरकार की कारगुजारियों पर इस बार सर्वोच्च न्यायालय ने प्रश्न चिह्न लगाया है।
कोयला खदान आवंटन काण्ड में केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) की जांच रपट को ही हस्तक्षेप कर केन्द्र सरकार ने बदलवा दिया जिसपर न्यायालय ने बुधवार को कड़ा ऐतराज किया है। सर्वोच्च न्यायालय की तल्खी कुछ इन शब्दों में झलकी- सीबीआई पिंजरे में बंद ऐसा तोता बन गई है जो केवल अपने मालिक की बोली बोलता है। यह ऐसी अनैतिक कहानी है जिसमें एक तोते के कई मालिक हैं। वास्तव में सीबीआई को एक अस्त्र के रूप में सरकार प्रयोग करती रही है। हाल के वर्षों में यह देखने में आया है कि जिसने भी काँग्रेस की खिलाफत की उसके पीछे सीबीआई को लगा दिया गया। जो समर्थन में हैं उनकी सीबीआई जांच भी शिथिल हो गई।
दरअसल, सीबीआई सरकार के हाथों की कठपुतली बनकर रह गई है। तभी तो सर्वोच्च न्यायालय को कहना पड़ा कि 15 वर्षों पूर्व चर्चित विनीत नारायण मामले में सीबीआई की स्वायत्तता के जो हालत थे, आज उससे भी बदतर स्थिति है। उस समय न्यायालय ने केन्द्र सरकार को आदेश दिया था कि वह सीबीआई को स्वायत्तता देकर मजबूत बनाए। उस आदेश पर 9 वर्षों से सत्ता पर काबिज मनमोहन सरकार ने अमल तो नहीं ही किया, ऊपर से सीबीआई की जांच रपट में फेर-बदल करने का दुस्साहस कर कोर्ट के आदेश का उल्लंघन करती चली आ रही है। आदेश के इस उल्लंघन पर सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र को कडे़ लहजे में कहा कि वह 10 जुलाई से पूर्व सीबीआई की स्वायत्तता हेतु काननू बनाए। यदि सरकार ऐसा नहीं करेगी तो कोर्ट हस्तक्षेप करेगा।
न्यायालय इस बात से भी नाराज है कि निष्पक्ष जांच करने वाले अधिकारियों की तुरंत बदली कर दी जाती है। ऐसे में कोयला खदान आवंटन काण्ड की त्वरित जांच करने वाले उप महानिरीक्षक रविकांत मिश्र को इंटेलिजेंस ब्यूरो (आइबी) से वापस सीबीआई में भेजने का आदेश भी केन्द्र को दिया गया। साथ ही सीबीआई को ‘दिमाग’ से काम करने की हिदायत दी।
अब तक राजनीतिक व सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा केन्द्र सरकार पर यह आरोप लगाया जाता रहा कि सीबीआई को उसने कठपुतली बनाकर रखा है। इसलिए सरकार के साथ जनलोकपाल की बैठकों में अन्ना हजारे और उनके सहयोगी सीबीआई को सरकार के नियंत्रण से मुक्त कर जनलोकपाल के अधीन लाने की मांग करते रहे। पर, सरकार अन्त तक नहीं मानी। वर्तमान हालातों में यह स्पष्ट हो गया कि सीबीआई की हर जांच व गतिविधि को सरकार प्रभावित करती है। ऐसे में सीबीआई की साख धूमिल हुई और उसकी जांच को भी निष्पक्ष नहीं माना जा सकता।
इस प्रकरण में केन्द्र सरकार की परेशानी बढ़ गई है। चूँकि कोयला खदानों के आवण्टन के दौरान कोयला मंत्रालय का प्रभार प्रधान मंत्री के पास ही था। ऐसे में एक लाख 76 हजार करोड़ रुपये के महाघोटाले में सीधे प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की संलिप्तता दीख रही थी। लिहाजा मनमोहन को स्वच्छ साबित करने के लिए सरकार ने अनैतिक रूप से सीबीआई का जांच प्रतिवेदन ही बदलवा दिया।
न्यायालय के अनुसार, प्रतिवेदन में से हृदय को ही निकाल दिया गया। इस गंभीर गड़बड़ी को अंजाम देने वालों का नेतृत्व किया विधि मंत्री अश्विनी कुमार ने। उनके साथ इसमें दागदार नजर आते हैं कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल, प्रधान मंत्री कार्यालय व कोयला विभाग के एक-एक संयुक्त सचिव, एटार्नी जनरल और एडिशनल सालिसिटर जनरल भी।
इस सदंर्भ में विपक्षियों की ओर से अश्विनी का त्याग पत्र मांगा जा रहा है। पर, इस मामले में पहला त्याग पत्र दिया एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ने। इस बीच कर्नाटक फतह से काँग्रेस प्रसन्न है। इसी महीने में वर्तमान सरकार का चौथा वर्ष पूरा होगा और प्रश्नों के घेरे में मौजूद पवन बंसल व अश्विनी कुमार के मात्र विभाग में बदलाव होगा। टारगेट 2014 के मद्देनजर यही काँग्रेसी चाल होगी। इस दौरान जनता धोखे में है कि अबतक सीबीआई ने जिस भी मामले में जांच की, वह निष्पक्ष नहीं थी!
बुधवार, 8 मई 2013
कर्नाटक : भाजपा की चिन्ता, काँग्रेस की खुशी
कर्नाटक में 224 में से 223 सीटों के लिए हुए चुनावों में कांग्रेस को 121, भाजपा को 40, जनता दल (एस) को 40, कर्नाटक जनता पार्टी को 6 और अन्य 16 सीटों पर जीत मिली है।
केन्द्र में सत्ता हथिया लेने का सुखद स्वप्न पाले भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को बुधवार के दिन जोरदार झटका लगा। यह झटका दिया काँग्रेस ने जिसने उसके हाथ से कर्नाटक की सत्ता छीन ली। भाजपा हारी भी तो बहुत बुरी तरह, सीटों की अर्द्धशतक भी पूरी नहीं कर सकी। सदन में वह मुख्य विपक्षी पार्टी भी नहीं रह पाएगी। इस बीच भाजपा खेमे में मातम के बीच मंथन का दौर जारी है। दूसरी तरफ काँग्रेसी पक्ष फूला नहीं समा रहा। पार्टी इसे 2014 के लोकसभा निर्वाचन का सेमीफाइनल मानकर लगातार राहुल गाँधी के माथे जीत का सेहरा बांधे जा रही है। हालाँकि कर्नाटक में प्रचार करने प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह भी सोनिया के साथ गए थे पर वे भी जीत का श्रेय राहुल को ही दे रहे हैं। ऐसा कहकर उन्होंने इतना तो प्रदर्शित कर ही दिया कि राज्य में पार्टी को प्राप्त मतों में उनकी छवि का कोई सकारात्मक असर नहीं पड़ा। मतलब साफ है कि विशेष अवसरों पर मूक रहने वाले मनमोहन ने मुँह खोलकर यह भी जता दिया कि काँग्रेस लोकसभा का निर्वाचन राहुल के नेतृत्व में ही लड़ेगी। कर्नाटक में पिछले एक-दो साल में कई नाटक हुए। राज्य में पहली बार कमल खिलाने वाले बीएस येदियुरप्पा को मुख्य मंत्री का पद त्यागने के साथ ही भाजपा से भी बाहर होना पड़ा। राज्य में सिंहासन के फाइनल में भाजपा की ऐसी करारी हार व काँग्रेस को बहुमत के साथ इतनी बेहतरीन जीत नसीब होगी, यह दोनों में से किसी को अनुमान नहीं था। वैसे कर्नाटक में मतदान से ऐन पहले देश में राजनीतिक भूचाल आया। रेल मंत्री पवन कुमार बंसल व उनके परिवार वाले रिश्वत काण्ड में बुरी तरह फँस गए। इससे जहाँ काँग्रेस सहम गयी, वहीं भाजपा खुशफहमी में थी। पर, जनता ने तमाम कयासों को दरकिनार कर अपना निर्णय दिया।
धर्मग्रन्थों में उल्लेख है कि मनुष्य स्वयं अपने दुःख का कारण बनता है। सनातन धर्म की बात करने वाली भाजपा धर्म की इस बात को भूल गई तो उसे मुँह की खानी पड़ी। अपनी हार की पटकथा को भाजपा ने लिखना तब शुरू किया जब उसने भ्रष्टाचार में लिप्त तत्कालीन मुख्य मंत्री येदियुरप्पा को पद से नहीं हटाया। जब काफी छीछालेदर हो गई तब येदियुरप्पा को पद व पार्टी से चलता किया गया। उनकी जगह जगदीश शेट्टार को मुख्य मंत्री की कुर्सी दी गई। भाजपा के तत्कालीन केन्द्रीय अध्यक्ष गडकरी का वह अदूरदर्शी फैसला था, खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा। पार्टी से अलग होकर येदि ने कर्नाटक जनता पार्टी (कजपा) बनाई और विधान सभा की कुछ सीटों पर कब्जा करने में कामयाब रही। येदियुरप्पा के भाजपा से हटने के बाद उनके कद का कोई चेहरा पार्टी में नहीं रह गया। निर्वाचन के दौरान शेट्टार में कोई सम्मोहन नहीं दिखाई दिया जिससे मतों की बरसात होती। येदियुरप्पा के करिश्मे का अंदाज भाजपा के केन्द्रीय नेताओं को भले ही न था मगर राज्य में जमीन से जुड़े नेताओं को था। जब वे भ्रष्टाचार के कुछ मुकदमों में बरी कर दिये गए तब उमा भारती ने उन्हें दुबारा पार्टी में लेने की पुरजोर वकालत की पर वह इस मामले में अकेली पड़ गईं। ऐसी स्थिति में काँग्रेस को बहुत लाभ हुआ। एक के आन्तरिक कलह ने दूसरे की जीत को सुनिश्चित कर दिया। एक समय भाजपा नेता जनार्दन रेड्डी, करुणाकरण रेड्डी व सोमशेखर रेड्डी का कर्नाटक में अवैध खनन पर एकाधिकार था। इस मामले में जनार्दन हैदराबाद कारावास में बन्द हैं। इस प्रकरण का सीधा लाभ काँग्रेसी प्रत्याशियों को मिला। यों वेल्लारी काण्ड को भी काँग्रेस अपने पक्ष में भुनाने में कामयाब रही।
उत्तराखण्ड के बाद कर्नाटक की सत्ता भाजपा से काँग्रेस ने छीन ली। वास्तव में भ्रष्टाचार के आरोपों से चौतरफा घिरी काँग्रेस यदि जीत दर्ज करती है तो इसका मतलब है कि कुछ मायनों में यह भाजपा से आगे है। भाजपा नेता विपक्षियों की खामियों को जोरदार ढंग से जनता के बीच नहीं रख पाते। इस संदर्भ में द्रष्टव्य है कि काँग्रेस या अन्य विरोधियों से पस्त भाजपा काफी समय तक बचाने के बाद भी अन्ततः येदियुरप्पा पर कार्रवाई करने को विवश हुई थी। दूसरी तरफ अभी का संदर्भ देखिये कि वह लाख प्रयास के बाद भी रेल मंत्री पवन बंसल, प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह या विधि मंत्री अश्विनी कुमार के पद त्याग करवाने में सफल नहीं हो पा रही है। वास्तव में केन्द्र की काँग्रेस नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की सरकार जितने घपले-घोटालों में फँसी है, उसे जनता के बीच ले जाने में भाजपा को कामयाबी नहीं मिल पा रही है। वरना सरकार सत्ता में नजर नहीं आती। जहाँ तक कर्नाटक फतह की बात है तो इसमें काँग्रेस को अपनी खूबी पर जनादेश नहीं मिला; बल्कि भाजपा की कलह-कमजोरी की बदौलत मिला। जीत में सोनिया-मनमोहन-राहुल की तिकड़ी के प्रचार का असर कम और भाजपा की खामियों का अधिक हाथ रहा। प्रचार में भाजपा ने नरेन्द्र मोदी का भी उचित उपयोग नहीं किया। 224 विधान सभा क्षेत्रों के बदले मात्र 37 क्षेत्रों में ही मोदी से प्रचार करवाया गया। फिलहाल जीतने वाली पार्टी ने अपने को सत्ता का हकदार बताया तो हारने वाली पार्टी समीक्षा करने की बात कह रही है।
मंगलवार, 7 मई 2013
झारखण्ड में ताल ठोंक रहे राजनीतिक दल
वर्तमान झारखण्ड विधान सभा में दलों की स्थिति
यदि कांग्रेस कोयला घोटाला व रेल रिश्वत काण्ड से उबर गई तो 18 जुलाई से पहले झारखण्ड विधान सभा का निर्वाचन हो जाएगा। आज झारखण्ड में राष्ट्रपति शासन के 4 माह 20 दिन हो गए। संवैधानिक रूप से राष्ट्रपति शासन की अवधि 6 माह की ही होती है। इस बीच विधान सभा का निर्वाचन न हुआ तो अगले 6 महीने के लिये इसे विस्तारित किया जा सकता है। यों 6-6 माह के अन्तराल पर इसे कई बार भी विस्तारित किया जा सकता है। पर, अधिक विस्तार सरकार की खामियों को उजागर करता है। लिहाजा केन्द्र की कांग्रेसी नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की सरकार राज्य में राष्ट्रपति शासन को लम्बा नहीं खींचना चाहती। ऐसा ही पिछले दिनों लोकसभा में गृह मंत्री पी चिदम्बरम भी स्वीकार कर चुके हैं। साथ ही गृह मंत्रालय ने एक मसौदा भी तैयार कर लिया है जिसे कभी भी केन्द्रीय मंत्रिमण्डल पारित कर राष्ट्रपति के पास स्वीकृति के लिये भेज सकता है। इस स्वीकृति के बाद राज्य की निलम्बित विधान सभा भंग हो जाएगी। ऐसा होने पर ज्यादा उम्मीद है कि 18 जुलाई से पूर्व चुनाव करा लिये जाएंगे; क्योंकि उक्त तिथि को राष्ट्रपति शासन की 6 माह की मियाद पूरी हो रही है। केन्द्र सरकार के इस कवायद के प्रकाश में आते ही राज्य के सभी राजनीतिक दलों ने अपनी-अपनी तैयारियां शुरू कर दी हैं। बैठकों व सम्मेलन के दौर जोर-शोर से चल पड़े हैं। साथ ही दल बदलने का सिलसिला भी जारी है। सभी अपने को विकास का साथी व जनता का हितैषी बताने लगे हैं। नेता अपने नए-पुराने कीर्तिमानों को खोज-खोजकर जनता के सामने ला रहे हैं और विरोधियों को पटखनी देने का उपाय ढूंढ रहे हैं।
12 वर्ष से अधिक उम्र के झारखण्ड में स्थिर सरकार का जनस्वप्न पूरा नहीं हो पाया है। कोई सरकार 5 वर्षों की संवैधानिक अवधि पूरी न कर सकी। जो भी सरकारें बनीं उनमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), झारखण्ड मुक्ति मोर्चा (झामुमो), ऑल झारखण्ड स्टूडेण्ट्स यूनियन (आजसू), जनता दल (युनाइटेड), राष्ट्रीय जनता दल (राजद), कांग्रेस आदि शामिल रही हैं। इन दलों की अस्थिर सरकारों को जनता झेल चुकी है, उनके रग-रग से वाकिफ है। पर, निर्वाचन में ये शून्य पर आउट तो नहीं होंगे। इन दलों के दलदल में झारखण्ड विकास मोर्चा (झाविमो) कुछ अलग नजर आ रहा है। झारखण्ड के प्रथम मुख्य मंत्री बाबूलाल मराण्डी ने भाजपा से नाता तोड़कर झाविमो का गठन किया था। हाल ही में वे एक बार फिर से झाविमो के अध्यक्ष बन गए हैं। राज्य में सर्वाधिक 860 दिनों तक शासन करने का कीर्तिमान उन्हीं के नाम है। पुनः पार्टी का कमान सम्भालने के बाद मराण्डी ने कार्यकर्ताओं को चुनाव के प्रति सजग किया। अन्य दल भी अपनी सजगता में लगातार वृद्धि कर रहे हैं। इस संदर्भ में राष्ट्रीय दलों से आगे हैं क्षेत्रीय दल। सत्ता का सर्वाधिक स्वाद चख चुका क्षेत्रीय दल झामुमो है जिसने गठबन्धन सहयोगी भाजपा से समर्थन खींचकर अर्जुन मुण्डा की सरकार गिरा दी और राज्य को राष्ट्रपति शासन के भरोसे छोड़ दिया। वह अपनी काबिलियत से ज्यादा भाजपा को कोसकर ही चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश करेगी। वैसे झामुमो विधान सभा क्षेत्रवार अपनी पैठ बनाने में लगी है। संताल परगना सहित कई क्षेत्रों में उसकी बैठकें हो रही हैं। इस बीच आजसू युवाओं को दल में शामिल करने पर ज्यादा जोर दे रही है। आजसू प्रमुख सुदेश महतो भी सहयोगियों के साथ चुनावी गहमागहमी में जोर-आजमाइश कर रहे हैं। वैसे जनता को गिनाने के लिए उनके पास कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है। इस बीच जदयू व राजद फिलहाल खामोश हैं। जदयू नीतीश कुमार की बिहारी उपलब्धियों को गिनाकर मत बटोरेगी जबकि राजद सबकी खामियों को उजागर कर केवल लालू के भरोसे ही कुछ सीट बढ़ाने की फिराक में है।
नजर डालें राष्ट्रीय दलों पर तो भाजपा व कांग्रेस दोनों की अधिकतर उर्जा आन्तरिक कलह को सलटाने में ही खप जा रही है। भाजपा का कलह तो सतह पर है। रवीन्द्र के प्रदेशाध्यक्ष बनते ही बौखलाए यशवन्त सिन्हा ने पार्टी छोड़ने की धमकी दे डाली जिसे फिलहाल तो सलटा लिया गया है पर चुनाव के दौरान नजारा कुछ और होगा। राज्य में भाजपा मुख्यतः दो गुटों में बंटी है। एक छोर पर यशवन्त तो दूसरे छोर पर अर्जुन मुण्डा के साथ रवीन्द्र दीख रहे हैं। इनमें मुण्डा गुट प्रबल दिखाई दे रहा है। वैसे पार्टी झामुमो को सरकार गिराने का दोषी बताकर व कांग्रेस के भ्रष्टाचारों को ही उजागर कर जीतने की प्रयास करेगी। यों कांग्रेस की स्थिति ठीक नहीं दीख रही। वह कोयला घोटाला व रेल रिश्वत काण्ड से उबरने में ही लगी है। ऊपर से वोट फॉर नोट काण्ड में भी कांग्रेस की काफी फजीहत हो रही है। पर, वह चाहती है कि राज्य में जल्द चुनाव हो। ऐसे में वह छवि सुधारने को छटपटा रही है पर प्रदेशाध्यक्ष प्रदीप कुछ विशेष नहीं कर पा रहे हैं। इस बीच जनता उचित मौके पर जवाब देने को तमाम राजनीतिक पैंतरेबाजी पर पैनी नजर रख रही है।
अमेरिकी कंपनी मोरसैंटों ने भारतीय तरबूज का पेटेंट किया हासिल
गर्मियों में चाव से खाया जाने वाले भारतीय फल तरबूज का पेटेंट एक अमेरिकी कंपनी ने हासिल कर लिया है। अमेरिकी कंपनी मोरसैंटों ने भारतीय तरबूज में पाए जाने वाले एक एक जीन का पेटेंट हासिल कर लिया है। कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण राज्य मंत्री तारिक अनवर ने लोकसभा में वरुण गांधी के सवाल के लिखित जवाब में यह जानकारी दी। उन्होंने बताया, सरकार को इस बात की जानकारी है कि मोनसैंटों नामक अमेरिकी कंपनी ने भारतीय तरबूज में पाए जाने वाले जीन का पेटेंट ले लिया है। अनवर ने बताया कि अन्य देशों में मंजूर बौद्धिक संपदा अधिकार पर कंपनी के विरूद्ध कार्रवाई करने का मुद्दा भारत सरकार के केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (एनबीए) के अधिकार क्षेत्र में आता है। उन्होंने बताया कि इस समय एनबीए आरोपित अतिक्रामकों के विरूद्ध इस मामले को दर्ज करने की कार्रवाई कर रहा है।
गुणकारी तरबूज और तरबूज के बीज
तरबूज का सेवन तो हमारे स्वास्थ्य और सौंदर्य दोनों के लिए फायदेमंद है। साथ ही इसके बीज भी बहुत गुणकारी होते हैं।
तरबूज के बीज के गुण :-
* तरबूज के बीज शीतवीर्य, शरीर में स्निग्धता बढ़ानेवाले, पौष्टिक, मूत्रल, गर्मी का शमन करने वाले, कृमिनाशक, दिमागी शक्ति बढ़ाने वाले, दुर्बलता मिटाने वाले, गुर्दों की कमजोरी दूर करने वाले, गर्मी की खाँसी एवं ज्वर को मिटाने वाले क्षय एवं मूत्ररोगों को दूर करने वाले हैं।
* तरबूज के बीज के सेवन की मात्रा हररोज 10 से 20 ग्राम है। तरबूज के ज्यादा बीज खाने से तिल्ली की हानि होती है।
* तरबूज के बीजों को छीलकर अंदर की गिरी खाने से शरीर में ताकत आती है। मस्तिष्क की कमजोर नसों को बल मिलता है, टखनों के पास की सूजन भी ठीक हो जाती है।
* तरबूज के बीजों की गिरी की ठंडाई बनाकर प्रात: नियमित पीने के स्मरण शक्ति बढ़ती है।
* बीजों की गिरी में मिश्री, सौंफ, बारीक पीसकर मिलाकर खाने से गर्भ में पल रहे शिशु का विकास अच्छा होता है।
* बीजों को चबा-चबाकर चूसने से दाँतों के पायरिया रोग में लाभ होता है।
* पुराने सिरदर्द को दूर करने के लिये तरबूज के बीजों की गिरी को पानी के साथ पीसकर लेप तैयार कर नियमित माथे पर लगायें।
* ग्रीष्म ऋतु में दोपहर के भोजन के 2-3 घंटे बाद तरबूज खाना लाभदायक है। यदि तरबूज खाने के बाद कोई तकलीफ हो तो शहद अथवा गुलकंद का सेवन करें।
* तरबूज के लाल गूदे पर काली मिर्च, जीरा एवं नमक का चूर्ण डालकर खाने से भूख खुलती है एवं पाचनशक्ति बढ़ती है।
* यह रसीला फल गुर्दे की पथरी, कोलोन कैंसर, अस्थमा, दिल की बीमारी, र्यूमेटाइड अर्थराइटिस और प्रोस्टेट कैंसर का खतरा घटाता है।
* यदि आप अपने दिल को स्वस्थ रखना चाहते हैं तो हर रोज तरबूज जरूर खाएं। एक नए अध्ययन में पाया गया है कि तरबूज आपके शरीर में हानिकारक कोलेस्ट्रॉल नहीं बनने देता और वजन कम करने में भी मदद करता है।
* तरबूज ब्लड प्रेशर को कंट्रोल कर हार्टबीट को रेगुलेट करता है।
* वैज्ञानिक ने दावा किया है कि तरबूज यौन शक्तिवर्द्ध दवा वियाग्रा ज्यादा प्रभावशाली भी होता है।
* तरबूज का सेवन मोटापा कम करने में बहुत अधिक कारगर होता है।
* नित्य तरबूज का ठंडा-ठंडा शरबत पीने से हमारे शरीर को शीतलता तो मिलती ही है साथ ही हमारे चेहरे पर गुलाबी-गुलाबी आभा भी दमकने लगती है।
विशेष ध्यान रखें :-
* गर्म तासीरवालों के लिए तरबूज एक उत्तम फल है लेकिन वात व कफ प्रकृतिवालों के लिए हानिकारक है। अतः सर्दी-खाँसी, श्वास, मधुप्रमेह, कोढ़, रक्तविकार के रोगियों को इसका सेवन नहीं करना चाहिए।
* तरबूज खाकर तुरंत पानी या दूध-दही या बाजार के पेय नहीं पीने चाहिए।
* तरबूज खाने के 2 घंटे पूर्व तथा 3 घंटे बाद तक चावल का सेवन न करें।
* गर्म या कटा बासी तरबूज सेवन न करें। इससे कई बीमारियाँ फैलने की आशंका रहती है।
सोमवार, 6 मई 2013
दाग धोने में लगी सीबीआइ
वर्तमान हालातों में यह स्पष्ट हो गया कि सीबीआइ की हर जांच व गतिविधि को सरकार प्रभावित करती है। ऐसे में सीबीआइ की साख धूमिल हुई और उसकी जांच को भी निष्पक्ष नहीं माना जा सकता। हालाँकि खुलासा करके सीबीआइ ने अपने दाग धोने के प्रयास किये। पर, यह दाग अधिवक्ता के काले कोट पर लगे दाग की तरह नहीं; बल्कि अधिवक्ता के सफेद शर्ट पर लगे दाग की तरह है जो दीखता है, दीखता रहेगा।
विधि मंत्री अश्विनी कुमार
सोमवार को एक और सच देश के सामने आया। इस सच ने कई दिग्गजों के झूठ को बेनकाब कर दिया। सच-दर-सच उद्घाटित होते जा रहे हैं और लगातार मौन धारण किये रहने वाले प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की सरकार कटघरे में नजर आ रही है। सोमवार वाला सच ऐसा है जिसमें सीधा मनमोहन सिंह का कार्यालय भी कटघरे में दीख रहा है। इसमें केन्द्रीय मंत्रियों के साथ-साथ उच्च पदस्थ प्रशासनिक व न्यायिक अधिकारियों की भी पोल-पट्टी खुल गई है। यह खुलासा किया है केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) के निदेशक रंजीत सिन्हा ने। सिन्हा ने सर्वोच्च न्यायालय में उन नामों को उजागर किया जिन्होंने कोयला ब्लॉक आवंटन घोटाले की जाँच रपट में रद्दोबदल करवाए। दरअसल, सर्वोच्च न्यायालय ने 12 अप्रैल को सीबीआइ से पूछा कि कोयला घोटाले की रपट किसी से साझा तो नहीं की गई। 26 अप्रैल को रंजीत सिन्हा ने न्यायालय को बताया कि रपट को प्रधान मंत्री कार्यालय, विधि मंत्रालय व कोयला मंत्रालय से साझा कर उसमें फेर-बदल किये गए। तब सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप करने वालों के नाम बताने का आदेश दिया। उसी आदेश का पालन करते हुए जब सोमवार को सीबीआइ ने नामों की घोषणा की तो कई दिग्गजों के झूठ पकड़े गए और केन्द्रीय राजनीति में भूचाल आ गया। वास्तव में कोयला महाघोटाला एक लाख 76 हजार करोड़ रुपये का है। सीबीआइ के इस खुलासे ने सीने तक भ्रष्टाचार में डूबी केन्द्र सरकार को अब गर्दन तक डूबो दिया है। विपक्षी भारतीय जनता पार्टी चाहती है कि सरकार की गर्दन भी डूब जाए, प्रधान मंत्री त्याग पत्र दे दें।
प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह, सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा व विधि मंत्री अश्विनी कुमार
सीबीआइ ने सर्वोच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति आरएम लोढ़ा की खण्डपीठ को एक शपथ पत्र के माध्यम से विधि मंत्री अश्विनी कुमार, अटार्नी जनरल जीई वाहनवती, एडिशनल सॉलिसिटर जनरल हरीन पी. रावल, प्रधान मंत्री कार्यालय और इस कार्यालय के संयुक्त सचिव शत्रुघ्न सिंह, कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल, कोयला मंत्रालय के संयुक्त सचिव अजय कुमार भल्ला के नाम बताए। कोयले के रंग में इन सबके चेहरे काले नजर आने लगे हैं। यह कालापन और गहराएगा जब कल सर्वोच्च न्यायालय इसपर अगली सुनवाई करेगा। हालाँकि इस मामले में सीबीआइ निदेशक ने न्यायालय से बिना शर्त्त क्षमा मांगी कि उन्होंने नियमित सुनवाई के दौरान ये खुलासे नहीं किये। यदि न्यायालय यह स्पष्टीकरण नहीं मांगता तो इस गंभीर बात को रंजीत सिन्हा हजम ही कर जाते। ऐसे में वे किस हद तक क्षमा के पात्र हो सकते हैं? वैसे चर्चित अधिवक्ता प्रशान्त भूषण के अनुसार, अटार्नी जनरल वाहनवती पर कोर्ट के अवमानना का मामला चलना चाहिए; क्योंकि उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में स्वीकार किया था कि वे सीबीआइ की रपट को देखे ही नहीं जबकि वे रद्दोबदल वाली बैठक में शामिल थे। रद्दोबदल के लिए 3 बैठकें हुईं- विधि मंत्री के कार्यालय में, अटार्नी जनरल के साथ व सीबीआइ कार्यालय में। सीबीआइ के इस खुलासे के केन्द्र में विधि मंत्री अश्विनी कुमार हैं। यह जाहिर हो गया है कि अबतक अश्विनी झूठ बोलते रहे। यदि वे सच बोल रहे थे तो खुलासे के तुरंत बाद बचाव के उपाय पर मंथन करने प्रधान मंत्री के पास क्यों गए? वास्तव में अश्विनी ने सीबीआइ की रपट में से पूरा एक अवतरण ही निकलवा दिया। क्या रद्दोबदल हुए यह भी न्यायालय जानना चाहता है जिसे सीबीआइ बन्द लिफाफे के माध्यम से अवगत कराएगी। मतलब यह कि केन्द्र सरकार की परेशानी को सीबीआइ अभी और बढ़ाएगी।
अब तक राजनीतिक व सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा केन्द्र सरकार पर यह आरोप लगाया जाता रहा कि सीबीआइ को उसने कठपुतली बनाकर रखा है। इसलिए सरकार के साथ जनलोकपाल की बैठकों में अन्ना हजारे और उनके सहयोगी सीबीआइ को सरकार के नियंत्रण से मुक्त कर जनलोकपाल के अधीन लाने की मांग करते रहे। पर, सरकार अन्त तक नहीं मानी। वर्तमान हालातों में यह स्पष्ट हो गया कि सीबीआइ की हर जांच व गतिविधि को सरकार प्रभावित करती है। ऐसे में सीबीआइ की साख धूमिल हुई और उसकी जांच को भी निष्पक्ष नहीं माना जा सकता। हालाँकि खुलासा करके सीबीआइ ने अपने दाग धोने के प्रयास किये। पर, यह दाग अधिवक्ता के काले कोट पर लगे दाग की तरह नहीं; बल्कि अधिवक्ता के सफेद शर्ट पर लगे दाग की तरह है जो दीखता है, दीखता रहेगा। इस पूरे मामले में एक बार फिर प्रधान मंत्री ने मौन साध रखा है। हालाँकि कोयले की कालिख उनके कार्यालय पर भी लगी है। इस बीच काँग्रेस एक बार फिर मनमोहन सिंह की व्यक्गित इमानदारी की दुहाई देती हुई भ्रष्टाचारियों को बचाने में लगी है। उधर मुख्य विपक्षी भाजपा संसद के दोनों सदनों को चलने नहीं दे रही है। वह प्रधान मंत्री, विधि मंत्री व रेल मंत्री के त्याग पत्र से कम पर फिलहाल मानने के मूड में नहीं है। इस बीच आपके साथ हम भी प्रतीक्षा करते हैं 8 मई के सर्वोच्च न्यायालय के रुख का।
रेलमंत्री पवन बंसल का निराला खेल
विश्व में सर्वाधिक रोजगार देनेवाला संगठन ‘भारतीय रेल’ इन दिनों कुछ ज्यादा ही चर्चा में है। यह चर्चा इसलिए नहीं कि भारतीय रेल ने कोई अनुकरणीय या प्रशंसनीय कीर्तिमान बनाया है; बल्कि इसलिए कि पहली बार रेलमंत्री का कोई इतना करीबी बड़े रिश्वत काण्ड में केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) की गिरफ्त में आया है। मामला केवल रेल बोर्ड के उच्च पद पर रिश्वत लेकर नियुक्ति का ही नहीं है; बल्कि इस वर्ष रेलवे में होने वाली 51 हजार नियुक्तियों में भी अरबों का बंदरबांट होने वाला था। यदि कोल ब्लॉक मामले में सीबीआइ की सर्वोच्च न्यायालय में फजीहत न हुई होती तो यकीन मानिये कि यह रिश्वत मामला उजागर न होता। कोल ब्लॉक जांच प्रकरण में सीबीआइ पर आरोप लगा कि वह केन्द्र सरकार की कठपुतली है। सीबीआइ निदेशक रंजीत सिन्हा को सर्वोच्च न्यायालय में स्वीकारना पड़ा कि उसने एक लाख 76 हजार करोड़ रुपये के कोल ब्लॉक घोटाले में केन्द्र सरकार से मिलकर आरोप पत्र तैयार किया। अपनी इसी शर्मिन्दगी से उबरने की बौखलाहट में सीबीआइ ने रेल मंत्रालय को कटघरे में खड़ा किया। त्वरित कार्रवाई में 10 को गिरफ्तार कर 12 करोड़ रुपयों के डील में से पेशगी के 90 लाख रुपये जब्त भी किये गए। गिरफ्त में आए आरोपितों में रेलमंत्री पवन कुमार बंसल के भांजे विजय सिंगला सहित अन्य करीबी भी हैं। मजे की बात कि जिस तरह 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में तत्कालीन संचार मंत्री ए. राजा की तरफदारी प्रधानमंत्री व कांग्रेस की तरफ से की गई, वैसा ही बचाव बंसल का किया जा रहा है।
काँग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए-2 की केन्द्र सरकार भ्रष्टाचार के तमाम कीर्तिमान ध्वस्त कर चुकी है। राजा तो कारावास में भी गए, इसके अलावा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व उनका कार्यालय सहित अश्विनी कुमार, श्रीप्रकाश जायसवाल, चिदम्बरम, सिब्बल, सलमान खुर्शीद जैसे कई केन्द्रीय मंत्रियों पर विभिन्न आरोप लगे हैं। इतने आरोपित मंत्रियों वाली यह विश्व की पहली सरकार है। ऐसे में भाजपा प्रवक्ता प्रकाश जावडे़कर कहते हैं कि केन्द्रीय मंत्रियों में देश को लूटने की होड़ लगी है और काँग्रेस को देश को लूटने का रोग लग गया है। आलोच्य विषय पर दृष्टिपात करें तो पाएंगे कि रेलमंत्री बंसल के कई कदम सवालों के घेरे मेें हैं। रेल बजट में चंडीगढ़-पंजाब के आगे अन्य राज्यों की उपेक्षा पर बिहार, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश व पश्चिम बंगाल से विरोध के स्वर उभरे। रेल मंत्रालय में आते ही वीके गुप्ता को उत्तर रेलवे का महाप्रबंधक बनाया और उनसे वरिष्ठ अधिकारियों की अनदेखी की। मंत्रालय की कारगुजारी बाहर न जाए इसलिए मीडिया सलाहकार नियुक्त ही नहीं किया। ऊपर से कुछ और, अंदर से कुछ और करते रहे। खर्च घटाने के नाम पर कुछ समितियों को भंग कर उनकी शक्तियां अपने चहेते अधिकारियों में निहित कर दी। कुछ महीनों के रेल मंत्रित्व काल में 2 बार किराया बढ़ा चुके हैं। रेल बजट से पूर्व की वृद्धि के बाद बजट में ईंधन अधिभार लगाकर पुनः किराए में वृद्धि की। बजट पूर्व की वृद्धि का मकसद बंसल समझा नहीं पाए। जब इस वृद्धि का निर्णय हुआ उस समय दिल्ली के तमाम रेल पत्रकार मुम्बई में थे। वहां उनके मोबाइल फोन पर सूचना दी गई। पत्रकारों को पश्चिम रेलवे के महाप्रबंधक महेश कुमार से मिलवाया गया जो अब सीबीआइ की गिरफ्त में हैं। दिल्ली आकर पत्रकारों ने इस हड़बड़ी का मकसद पूछा तो बंसल का जवाब था- मैं आपको कारण नहीं बता सकता। आखिर किसने उन्हें कारण बताने से रोका था? रेलवे बोर्ड में हाल में सदस्य बने और अब निलम्बित महेश कुमार पर बंसल की विशेष कृपा के फलस्वरूप ही इस वर्ष रेलवे में होनेवाली 51 हजार बहालियाँ उन्हीं की देख-रेख में होनेवाली थी। 12 करोड़ लगाकर इन बहालियों में अरबों कमाने के स्वप्न को सीबीआइ ने भंग कर दिया।
इधर नई बात सामने आई है। बंसल के भांजे, भतीजे व बेटे का आपस में कारोबारी रिश्ता भी है। जेटीएल इन्फ्रा में बंसल का भतीजा व भांजा जबकि एक अन्य कम्पनी रौनक एनर्जी में बेटा व भतीजा पार्टनर हैं। अपने ऊपर लगे लांछन को आसानी से रेलमंत्री नहीं धो सकते; क्योंकि उनके घर का पता ही उनके भतीजे का पता है। तभी तो भाजपा नेता किरीट सोमैया सप्रमाण कहते हैं कि बंसल का पूरा परिवार रेल घूस काण्ड में सहभगी है। यहां ‘कमाई’ का एक अन्य स्रोत ढूँढा गया। रेलमंत्री ने अकारण ही रेलवे कैटरिंग का नया ठेका 20 मई तक देने की घोषणा कर रखी है। ऐसे में ठेकों के नवीनीकरण की प्रक्रिया पूरी होने से पूर्व ही रेल का खान-पान महंगा हो गया मगर इस ओर बंसल का ध्यान ही नहीं गया। ऐसे में उनका यह कहना कि वे सदा ईमानदारी का उच्च मानक कायम रखते हैं, सत्य से परे ही महसूस होता है। अपने देश मंे एक बात सदा से चली आ रही है कि किसी भी घपले में फँसने पर त्याग पत्र मांगा जाता है, उस आरोपित पर कार्रवाई की माँग नहीं होती। इस बार भी विपक्षी भाजपा व अन्य बंसल का त्याग पत्र मांग रहे हैं, उनपर कार्रवाई की बात कोई नहीं कर रहा। क्या करोड़ों-अरबों डकारने के बाद त्यागपत्र दे देेने से ही वह शख्स पाक-साफ हो जाता है?
शनिवार, 4 मई 2013
राजनीतिक अस्थिरता के दौर में झारखण्ड
अगले कुछ दिनों में झारखण्ड विधान सभा भंग हो सकती है। तब निर्वाचन अवश्यम्भावी हो जाएगा। पर, इस बात की गारण्टी कदापि नहीं होगी कि किसी दल को बहुमत मिलेगा और राज्य में अस्थिर सरकारों का दौर खत्म हो जाएगा। 12 वर्ष 5 माह और 20 दिनों के झारखण्ड में राजनीतिक अस्थिरता का दौर अभी भी जारी है। इस अवधि में 8 सरकारें बनीं और तीसरी बार इसी वर्ष 18 जनवरी को राष्ट्रपति शासन लगा जो जारी है। 5 वर्षों की संवैधानिक अवधि को किसी भी सरकार ने पूरा नहीं किया। सर्वाधिक लम्बी अवधि तक भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बाबूलाल मराण्डी ही प्रथम मुख्यमंत्री के रूप में कार्यरत रहे। 15 नवम्बर 2000 से 18 मार्च 2003 तक के 860 दिनों तक मराण्डी की सरकार ने शासन किया। फिर भाजपा के ही अर्जुन मुण्डा पहली बार 18 मार्च 2003 को दूसरे मुख्यमंत्री बने। तब मराण्डी ने भाजपा का दामन छोड़ अलग दल ‘झारखण्ड विकास मोर्चा’ (झाविमो) का गठन किया। वर्तमान निलम्बित विधान सभा में झाविमो के 11 विधायक हैं। 81 निर्वाचित सदस्यों वाले झारखण्ड विधान सभा में प्रथम सरकार को छोड़कर कभी भी एक दल की सरकार नहीं बनी। कारण है कि किसी दल को बहुमत मिला ही नहीं। राज्य में अबतक कांग्रेस की सरकार नहीं बनी। भाजपा के नेतृत्व में सरकारें बनीं भी तो स्थिर नहीं रह पाईं। 7 सरकारें क्षेत्रीय दलों के सहयोग से बनीं और बेमौत मारी गयीं। पिछली अर्जुन मुण्डा की सरकार में झारखण्ड मुक्ति मार्चा (झामुमो), ऑल झारखण्ड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू), जदयू व अन्य शामिल थे। जनवरी में झामुमो ने कंधे का सहारा देना बंद किया और धराशायी हो गई मुण्डा की सरकार।
झारखण्ड में लगातार जारी राजनीतिक अस्थिरता ने छोटे राज्यों की अवधारणा पर ही प्रश्न खड़ा कर दिया है। छोटे राज्यों के गठन का मुख्य मुद्दा अच्छा शासन और दु्रत विकास ही रहा है। इसके विपरीत झारखण्ड में कुशासन, भ्रष्टाचार, भयादोहन और राजनीतिक दलों द्वारा सौदेबाजी का बोलवाला है। राष्ट्रीय दल आगे बढ़े तो क्षेत्रीय दलों ने अड़ंगा लगाया। इससे क्षेत्रीय दलों की फूट से सरकार बन नहीं पाती, चल नहीं पाती। आज का झारखण्ड वास्तव में एकीकृत बिहार में ‘दक्षिण बिहार’ कहलाता था। उस दौरान राजधानी पटना में बैठे शासक वर्ग का ध्यान दक्षिण बिहार पर बहुत कम गया। इसलिए यहां क्षेत्रीय दल उभरे। क्षेत्रीय दलों या निर्दलीय विधायकों की बढ़ती संख्या के पीछे एक कारण यह भी है कि बड़े या राष्ट्रीय दल जनता के सामने विकास का बड़ा चित्र प्रस्तुत नहीं कर सके। वर्ष 1951 के बिहार विधान सभा निर्वाचन में क्षेत्रीय दल ‘झारखण्ड पार्टी’ को 32 सीटें दक्षिण बिहार में मिलीं। इसी तरह वर्ष 2000 के निर्वाचन में भाजपा को 34 सीटों पर विजयश्री मिली, वह इसलिए कि पार्टी ने पृथक झारखण्ड के नाम पर मत मांगा था। उसके बाद इतनी सीटें किसी के पास नहीं आईं और राजनीतिक स्थिरता एक तरह से राज्य की ‘तकदीर’ बन गई।
राजनीतिक अस्थिरता की नकारात्मक तकदीर से सर्वाधिक क्षति राज्य के आमजन को हुई। कई योजनाएं-परियोजनाएं अधूरी पड़ी हैं। न आदिवासियों का उत्थान हुआ न बेरोजगारी घटी। न कृषि में क्रांति आई और न उद्योग-धन्धों में निवेश बढ़ा। हाँ, कुछ शिलान्यास जरूर हुए, बड़े-बड़े घोटालों को अंजाम दिया गया। यों जनता अपने भरोसे ही जी रही है, सिसक रही है। इस बीच एक और ‘विकास’ हुआ। विधायकों, मंत्रियों और मुख्य मंत्रियों की संख्या बढ़ी। बहुमत न रहने पर भी झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन 10 दिनों तक मुख्यमंत्री बन बैठे। इस बार बेटे को मुख्यमंत्री बनाने की जिद्द में मुण्डा की सरकार गिरा दी। राज्य में राजनीतिक स्थिरता का प्रथम मंत्र विधान सभा में सीटों की संख्या बढ़ाने से संबद्ध है। कहा गया है कि सीटें बढ़ेंगी तो जन प्रतिनिधित्व बढ़ेगा और बहुमत की सम्भावना भी बनी रहेगी। झारखण्ड विधान सभा ने इस सम्बंध में 5 बार प्रस्ताव पारित कर केंद्र को भेजा पर मंजूरी नहीं मिली। यहां द्रष्टव्य है कि हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ या पूर्वोत्तर के छोटे राज्यों में आखिर किसी प्रकार एक दल को बिना सीट बढ़ाए ही बहुमत मिलता है। वास्तव में राज्य के 4 मुख्य क्षेत्रों छोटानागपुर, सिंहभूम, पलामू व संताल परगना की गतिविधियों में घुलने-मिलने वाले दल को ही बहुमत मिलना संभव है। क्षेत्रीय व बड़े दलों को निहित स्वार्थ छोड़कर राज्य की तकदीर बदलने का प्रयास तो करना ही चाहिए।
शुक्रवार, 3 मई 2013
सरबजीत की हत्या के कई अनुत्तरित प्रश्न
14 अगस्त 1947 की काली रात को जो निर्णय हुआ, उसी का परिणाम है कि भारत का एक हिस्सा ‘पाकिस्तान’ के नाम से नये देश के रूप में अस्तित्व में आया। देश के बंटवारे के तुरंत बाद ही पाकिस्तान ने अपना असल रूप दिखाया और गैर-मुस्लिमों पर कहर बरपाया। लाखों घायल हिन्दू व सिक्ख घर-सम्पत्ति छोड़ प्राण बचाने को भारतीय सीमा में दाखिल हुए। उसी दौरान उसने जम्मू-कश्मीर का बड़ा हिस्सा अपने कब्जे में ले लिया और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की कमजोरी व अदूरदर्शिता के कारण वह क्षेत्र आज भी पाकिस्तान के ही कब्जे में है। इसे ‘पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर’ कहा जाता है। फिर 1965 व 1971 में उसने युद्ध किया और पराजित हुआ। वाजपेयी काल में कारगिल युद्ध में उसे फिर भारत ने शिकस्त दी। तब भी वह गाहे-ब-गाहे भारत को परेशान करने से बाज नहीं आ रहा। कुछ सप्ताह पूर्व भारतीय सैनिकों का सिर काट लिया जिसका जख्म भरा भी नहीं कि भारतीय नागरिक सरबजीत की लाहौर के कोट लखपत कारावास में हत्या कर दी गई। इन तमाम प्रकरणों में भारत सरकार की कमजोरी और अदूरदर्शिता ही झलकती है। सारे कूटनीति धरे-के-धरे रह गये। गलत पहचान के चक्कर में फँसकर फँासी की सजा पाए सरबजीत का पक्ष सही ढंग से भारत की सरकार नहीं रख पाई और न ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकार संगठनों के सहयोग से पाकिस्तान पर दबाव ही बना पाई।
दरअसल, लाहौर और मुल्तान विस्फोट के आरोप में 1990 में सरबजीत को फाँसी की सजा पाकिस्तानी न्यायालय ने दी। तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने उनकी दया याचिका को ठुकरा दी। वही मुशर्रफ आज अपने ही देश में दया का पात्र बने हैं, जेल में बंद हैं। वास्तव में नशे की हालत में सरबजीत सीमा पार कर पाकिस्तान में चला गया और उसी दौरान हुए विस्फोट में उन्हें मुख्य अभियुक्त बना दिया गया। पाकिस्तान उन्हें कभी ‘मंजीत सिंह’ तो कभी ‘खुशी मोहम्मद’ का नाम देता रहा। करीब 23 वर्षों तक पाकिस्तानी कारावास में प्रताड़ित होने वाले सरबजीत को मौत की सजा पाए दो पाक कैदियों आमिर व मुदस्सर ने 26 अप्रैल को जेल में ही मार डाला। वास्तव में मृत शरीर ही जिन्ना अस्पताल में रखी थी और ‘सर्वोत्तम इलाज’ की नौटंकी जारी थी। अन्ततः शव भारत पहुंचा और बहन दलवीर कौर की आग सरबजीत को मयस्सर हुई। जैसा हर चर्चित मौत के बाद होता है, वैसा इस बार भी हुआ। सभी दलों के नेता भिखिविण्ड पहुँचकर मातमपुर्सी का कोरम पूरा कर आए। इसमें बाजी मार गए पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश ंिसंह बादल। परिजन को एक करोड़ रुपये का वजीफा दिया और मृतक सरबजीत के लिए विधानसभा से ‘शहीद’ का प्रस्ताव पारित करवा लिया। साथ ही शहीद की दोनों पुत्रियों को सरकारी नौकरी का आश्वासन भी दे आए। ऊपर से तीन दिनों का राजकीय शोक भी घोषित कर दिया और अंतिम संस्कार भी राजकीय सम्मान के साथ करवाया। यदि बादल इस ‘उपकार’ को चुनाव में भुनाएंगे तो कोई आपत्ति भी नहीं कर पाएगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने परिजन को 25 लाख रुपये देने की घोषणा की तो राहुल गांधी दलवीर कौर को गले लगाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री की। इसे कहते हैं चट मौत, पट राजनीतिक फायदा!
इन दिनों पाकिस्तान में चुनावी माहौल है। ऐसे में सरबजीत का खात्मे को जरदारी की पार्टी भुनाने भी लगी। हालाँकि कहने को न्यायिक जांच जारी है और दोनों नामजद अभियुक्तों पर मामला दर्ज किया गया है। पाकिस्तानी पंजाब के कार्यकारी मुख्यमंत्री नजम सेठी आखिर जांच करवाकर करेंगे क्या? जिन अभियुक्तों पर मामला दर्ज हुआ, वे तो पहले ही मौत की सजा पा चुके हैं। अब उन्हें दोषी पाने पर भी कौन-सी सजा होगी? वैसे सरबजीत की हत्या ने कई प्रश्न खड़े किये हैं। सरबजीत की मौत 26 अप्रैल को ही हो गई थी, इसका पता भारत सरकार को भी था। तभी तो भारत सरकार ने चिकित्सकों की टीम न भेजकर पाकिस्तान में अपनी न्यायिक टीम भेजी। जाहिर है कि लाश को इलाज की दरकार नहीं होती। इसी तरह अस्पताल से कोई मेडिकल रिपोर्ट जारी नहीं हुई। इस दौरान भारतीय उच्चायोग के अधिकारी सरबजीत से नहीं मिले। नियमानुसार अंतर्राष्ट्रीय अभियुक्त की स्थिति में सम्बन्धित देश के दूतावास के अधिकारी नियमित रूप से अभियुक्त का कुशल क्षेम लेते हैं। पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग का प्रश्न है कि क्या जेल प्रशासन के सहयोग के बिना सरबजीत ही हत्या सम्भव थी? जेल अधिकारियों पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई? इस बाबत भारत सरकार कोई सफाई नहीं दे पा रही है। ऊपर से केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल कहते हैं कि भारत-पाक वार्ता पर इस हत्या का असर नहीं पड़ेगा। यह सरकारी बयान तब आया जब विपक्षी भारतीय जनता पार्टी ने पाकिस्तान से सारे राजनयिक सम्बन्ध तोड़ लेेने की बात कही है। ऐेसे ही कुछ सुलगते और बूझते प्रश्नों के बीच विश्व के कारावासों में कैद 6569 भारतीयों को भारत सरकार से कोई अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। यों सरबजीत की हत्या के बाद 253 अन्य भारतीय पाकिस्तान में कैद हैं। क्या उन्हें मुक्त कराने के प्रयास होंगे या इनके भी सरबजीत जैसे हश्र का इंतजार करेगी भारत सरकार?
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