'देश की सभी शास्त्रीय भाषाओं, विशेषकर संस्कृत का संरक्षण सरकार का काम है और सरकार को इसके लिए मजबूर कर देना हमारा' यह कहना है पंडित गुलाम दस्तगीर बिराजदार का। संस्कृत के प्रकांड विद्वान, एक प्राचीन मुस्लिम दरगाह के मुतवल्ली गुलाम साहब शान से खुद को 'संस्कृत का गुलाम' कहा करते हैं।
पंडित गुलाम दस्तगीर बिराजदार - नाम सुनकर आपको आश्चर्य होगा, पर असली आश्चर्य तो वर्ली स्थित उनके घर पर आपकी प्रतीक्षा कर रहा है। छोटे से कमरे में कुरान और मुस्लिम मजहबी किताबों के साथ रामायण, महाभारत, वेद, पुराण और उपनिषदों से भरे ताखे और आलमारियां, मुख से धाराप्रवाह झरते मंत्र व हिंदू धार्मिक आख्यान और उनका 'संस्कृतमय' बायोडाटा।
'बेटा और दोनों बेटियां शादी-विवाह करके बाहर नहीं गए होते तो आपको इस परिवार के बीच शुद्ध संस्कृत संभाषण भी सुनने को मिलता।' यह कहना है पत्रकार मोहम्मद वजीहुद्दीन का, जिन्होंने हमारी जानकारी में वृद्धि की और बताया कि गुलाम साहब ने तीनों बच्चों के विवाह की पत्रिका भी संस्कृत में ही छपवाई थी।
हिंदी, मराठी, कन्नड, उर्दू, अरबी और अंग्रेजी के विद्वान, 'विश्व भाषा' पत्रिका के संपादक, 'कुरान' व अमर चित्र कथा के संस्कृत रूपांतरकार - पं. गुलाम दस्तगीर बिराजदार नाम का उनके धर्म से कोई वास्ता नहीं। वे नाम से नहीं, काम से पंडित हैं। संस्कृत उनका प्रेम है, आदत है, जुनून है और शायद उनकी जिंदगी भी। वे जैसे माहिर हैं हदीस, कुरान और इस्लामी तहजीब के, संस्कृत पुराणों और कर्मकांड के भी वैसे ही उद्भट् विद्वान हैं।
पं. गुलाम दस्तगीर बिराजदार हिंदू कर्मकांडों का ज्ञान भी हिंदू धर्मशास्त्रों के ज्ञान से कम नहीं रखते। लिहाजा, उन्हें शादी-विवाह, जैसे शुभ संस्कार और अंत्यक्रिया कराने के आग्रह भी मिलते रहते हैं, पर यह उन्हें मंजूर नहीं। वजह? 'क्योंकि ये शुद्ध धार्मिक संस्कार हैं', अपने घर के पास सूफी संत सैयद अहमद बदवी की सैकड़ों साल पुरानी दरगाह के मुतवल्ली (प्रमुख) ने हमें समझाया।
80 वर्षीय पं. गुलाम दस्तगीर आज भी बचपन के वे दिन भूले नहीं हैं, जब सोलापुर के अपने गांव में खेतिहर मजदूर के रूप में दिन भर खेतों में खटने के बाद वे रात्रिशाला में पढ़ने जाते समय पास की संस्कृत शाला के बाहर बैठे घंटों संस्कृत के मंत्र व श्लोक सुनने में बिता देते। उनकी लगन देखकर शाला के ब्राह्मण शिक्षक ने आखिरकार उन्हें कक्षा में बैठने की अनुमति दी। फिर जो हुआ वह अब इतिहास है।
उनकी संस्कृत सेवाओं का ही पुण्यप्रताप था, जो वर्षों महाराष्ट्र राज्य संस्कृत संगठन का मानद राजदूत रखने के बाद महाराष्ट्र सरकार ने देवभाषा की देख-रेख करने वाली अपनी संस्कृत स्थायी समिति का सदस्य बनाया और काशी के विश्व संस्कृत प्रतिष्ठान ने अपना महासचिव। आज भी काशी उनका दूसरे घर जैसा है। काशी नरेश जब भी मुंबई में होते हैं, उनके घर जरूर आया करते हैं।
पंडितजी खुद को संस्कृत के मामूली प्रचारक से ज्यादा नहीं मानते और मराठा मंदिर स्कूल के संस्कृत विभाग से सेवानिवृत्त होने के बाद देश भर घूम-घूमकर सभा-सेमिनारों को संबोधित कर संस्कृत और सर्वधर्म समभाव का प्रचार किया करते हैं। उनकी संस्कृत विरासत अभी कायम है। उनके नवासे दानिश ने देवभाषा में संभाषण की कला सीखी है और बेटी गयासुन्निसा ने संस्कृत में 'शास्त्री' कर इस्लाम और हिंदू धर्मों में तुलनात्मक शोधकार्य किया।
संस्कृत को लेकर मौजूदा विवाद से खिन्न पंडितजी कहते है, 'संस्कृत बहुत ही सरल और ज्ञान की भाषा है। संस्कृत को सीखने के लिए जरूरत है सिर्फ इच्छा एवं उत्कंठा की। सरकार को उसे प्रश्रय देना चाहिए। नहीं तो यह हमारा काम है कि हम उसे उसके लिए मजबूर कर दें।'
पंडित गुलाम दस्तगीर बिराजदार कहते हैं, 'वेदों और कुरान का एक ही जैसा संदेश है - मानवता का कल्याण। केवल उसे हासिल करने के तरीके अलग-अलग हैं।' (संदर्भ : नवभारत टाइम्स/विमल मिश्र)
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