-शीतांशु कुमार सहाय
शरीर को सुचारू रखने के लिए विरेचन, सफाई या शु़िद्ध प्रतिदिन तो हम करते ही हैं किन्तु अंग-प्रत्यंगों की पूरी तरह से भीतरी सफाई के लिए वर्ष में चार नवरात्र आते हैं। ये चारों अवसर ऋतुओं के परिवर्तन के हैं। इस दौरान अनेक व्याधियों की उत्पत्ति होती है। इन से बचने के लिए नवरात्र में शरीर व मन की शुद्धि की जाती है। ये चार अवसर हैं- चैत्र, आषाढ़, आश्विन और माघ।
चैत्र में वसन्त ऋतु की समाप्ति व ग्रीष्म ऋतु की शुरुआत होती है। आषाढ़ में ग्रीष्म ऋतु की समाप्ति व वर्षा ऋतु की शुरुआत होती है। आश्विन में वर्षा ऋतु की समाप्ति व शरद ऋतु की शुरुआत होती है। यों माघ में शिषिर ऋतु की समाप्ति व वसन्त ऋतु की शुरुआत होती है। इन चारों महत्त्वपूर्ण ऋतुओं के सन्धिकाल में शरीर और मन को शुद्धकर माता आदिशक्ति दुर्गा की आराधना करनी चाहिये।
सात्त्विक आहार से शरीर की शुद्धि होती है। साफ-सुथरे शरीर में शुद्ध बुद्धि, शुद्ध बुद्धि से उत्तम विचार, उत्तम विचारों से उत्तम कर्म, उत्तम कर्मों से सच्चरित्रता और सच्चरित्रता से क्रमशः मन शुद्ध होता है। स्वच्छ मन के मन्दिर में ही तो ईश्वर की शक्ति का स्थायी निवास होता है।
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