-शीतांशु कुमार सहाय
नवरात्र के चतुर्थ दिवस को आदिशक्ति दुर्गा के चतुर्थ स्वरूप कूष्माण्डा की आराधना की जाती है। जब आदिशक्ति ने अपनी मन्द मुस्कान से अण्ड अर्थात् ब्रह्माण्ड को उत्पन्न किया तब उन्हंे ‘कूष्माण्डा’ कहा गया। इसी रूप में माता समस्त जड़-चेतन की पूर्वज हैं, सब का आदि हैं मगर उन का आदि कोई नहीं। भयानक अन्धकार के बीच आदिशक्ति कूष्माण्डा ने प्रसन्न मुद्रा में अपनी मुस्कान से ब्रह्माण्ड की रचना की और सृष्टि क्रम को आरम्भ किया।
माँ दुर्गा के चौथे स्वरूप के नामकरण का एक अन्य कारण है। संस्कृत शब्द ‘कूष्माण्डा’ का हिन्दी अर्थ कुम्हड़ा या कोहरा है। यह एक प्रकार की सब्जी है जिस की बलि माता को अत्यन्त प्रिय है। अतः इन्हें कूष्माण्डा कहा गया। इन्हंे चतुर्थ दुर्गा भी कहते हैं।
आठ भुजाओंवाली माँ कूष्माण्डा सिंह पर सवार हैं। इन की सात भुजाओं में क्रमशः कमण्डलु, धनुष, बाण, कमल, अमृत से भरा कलश, चक्र व गदा हैं। माता ने इस रूप में आठवीं भुजा में समस्त निधियों और सिद्धियों को देनेवाला जपमाला धारण किया है।
योगीजन माता के इस स्वरूप का ध्यान अनाहत चक्र पर करते हैं। यह चक्र बारह पंखुड़ियोंवाला नीला कमल है। इन पंखुड़ियों पर क्रमशः कं, खं, गं, घं, ङं, चं, छं, जं, झं, ´ं, टं, ठं मन्त्र अंकित हैं। मध्य में षट्कोण आकृति है जो दो त्रिभुजों के मिलने से बनी है। अनाहत चक्र का बीजमन्त्र यं है और वाहन शीघ्रगामी काला हिरन है जो वायु का प्रतीक है। इस चक्र के इष्टदेव ईशा हैं और देवी काकिनी हैं जो तैलीय तत्त्व पर अधिकार रखती हैं।
नवरात्र के चौथे दिन आराधक को अनाहत चक्र में ध्यान लगाना चाहिये। योगीजन ध्यान के माध्यम से माँ कूष्माण्डा का दर्शन-पूजन अनाहत चक्र में ही करते हैं।
माता अपने उपासकों के समस्त रोग व शोक हर लेती हैं और आयुष्य, बल, यश और आरोग्य का वरदान देती हैं। कूष्माण्डा देवी की शरण में पूर्ण निष्ठाभाव से आनेवाले भक्तों का कल्याण सुनिश्चित हो जाता है। ऐसे साधक सुगमतापूर्वक परमधाम को प्राप्त कर लेते हैं। अतः माँ कूष्माण्डा की भक्ति अवश्य करनी चाहिये।
माता दुर्गा अपने चौथे रूप में सूर्यमण्डल या सूर्यलोक में निवास करती हैं। माता कूष्माण्डा के शरीर कीे कान्ति और प्रभा से ही ब्रह्माण्ड के सभी सूर्य (प्रकाश उत्पन्न करनेवाले तारे) चमक रहे हैं। असंख्य सूर्यों के तेज से भी अधिक उज्ज्वल स्वरूपा माता अपनी स्थायी मुस्कान से भक्तों को प्रसन्न व आनन्दित करती रहती हैं। समस्त प्रकाश पुंजों में देवी कूष्माण्डा का ही तेज समाहित है। इन्हीं का तेज सभी प्राणियों व निर्जीवों में प्रसारित हो रहा है।
कष्टनिवारिणी माता कूष्माण्डा को हाथ जोड़कर चरणों में प्रणाम करें-
सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें