-शीतांशु कुमार सहाय
नवरात्र के पंचम दिवस को आदिशक्ति दुर्गा के पंचम स्वरूप ‘स्कन्दमाता’ की आराधना की जाती है। भगवान कार्त्तिकेय का एक अन्य नाम ‘स्कन्द’ भी है। स्कन्द को उत्पन्न करने के कारण माँ दुर्गा के पाँचवें रूप को ‘स्कन्दमाता’ कहा गया। इन्हें पंचम दुर्गा भी कहा जाता है।
इस स्वरूप में माँ सिंह पर बैठी हैं। उन की गोद में भगवान स्कन्द अपने बालरूप में स्थित हैं। चार भुजाओंवाली देवी स्कन्दमाता खिले कमल के समान सदैव प्रसन्नता का प्रसाद बाँटती हैं। माता अपनी ऊपरवाली दायीं भुजा से गोद में बैठे पुत्र स्कन्द को पकड़ी हुई हैं। दाहिनी तरफ की नीचेवाली भुजा जो ऊपर की ओर मुड़ी हुई है, उस में कमल है। इसी तरह बायीं तरफ की ऊपरी भुजा वरमुद्रा में है। निचली बायीं भुजा जो ऊपर की ओर उठी हुई है, उस में कमल है।
दो हाथों में कमल धारण करनेवाली माता सदैव भक्तों को कमल की तरह आनन्द प्रदान करने को तत्पर हैं। वह कमल के ही आसन पर विराजमान हैं, अतः इन्हें ‘कमलासना’ देवी अथवा ‘पद्मासना’ देवी भी कहते हैं। इन के शरीर का वर्ण पूर्णतः शुभ्र है।
नवरात्र के पाँचवें दिन योगीजन आदिशक्ति का ध्यान विशुद्धि चक्र में लगाते हैं। गर्दन के निकट यह चक्र स्थित है। सिद्ध योगी खेचरी मुद्रा से यहीं अमृत का पान करते हैं। शुद्धिकरण का प्रतीक है विशुद्धि चक्र जो सोलह पंखुड़ियोंवाला कमल है। इस कमल का रंग जामुनी मिश्रित धुएँ के रंग का है। विशुद्धि चक्र के सोलह पंखुड़ियों पर क्रमशः अं, आं, इं, ईं, उं, ऊं, ऋं, ऋंृ, लृं, लृं, एं, ऐं, ओं, औं, अं, अंः मंत्र अंकित हैं। इस कमल के मध्य श्वेत वृत्त है। विशुद्धि चक्र का बीजमन्त्र हं है और वाहन श्वेत गज (उजला हाथी) है जो आकाश का प्रतीक है। इस चक्र के इष्टदेव अर्द्धनारीश्वर तथा देवी साकिनी हैं जिन का अधिकार अस्थियों पर है।
विशुद्धि चक्र पर ध्यान केन्द्रित कर स्कन्दमाता की आराधना करनी चाहिये। देवी स्कन्दमाता अपने भक्तों की समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण करती हैं। वह भक्त के दोषों को क्रमशः दूर करती जाती हैं और अन्ततः शुद्ध कर विशुद्धि चक्र की सिद्धि प्रदान करती हैं।
सूर्यमण्डल की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण माँ स्कन्दमाता की आराधना से सूर्य के समान अद्भुत तेज व कान्ति की प्राप्ति होती है। इन की पूजा करने से स्वतः ही बालरूप भगवान कार्त्तिकेय अर्थात् स्कन्द की भी पूजा हो जाती है। अतः स्कन्दमाता की पूजार्चना अवश्य करनी चाहिये।
भक्तों के आभामण्डल को सुदृढ़ और अभेद्य बनानेवाली माँ स्कन्दमाता को हाथ जोड़कर चरणों में प्रणाम करें-
सिंहासन नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी।
इस स्वरूप में माँ सिंह पर बैठी हैं। उन की गोद में भगवान स्कन्द अपने बालरूप में स्थित हैं। चार भुजाओंवाली देवी स्कन्दमाता खिले कमल के समान सदैव प्रसन्नता का प्रसाद बाँटती हैं। माता अपनी ऊपरवाली दायीं भुजा से गोद में बैठे पुत्र स्कन्द को पकड़ी हुई हैं। दाहिनी तरफ की नीचेवाली भुजा जो ऊपर की ओर मुड़ी हुई है, उस में कमल है। इसी तरह बायीं तरफ की ऊपरी भुजा वरमुद्रा में है। निचली बायीं भुजा जो ऊपर की ओर उठी हुई है, उस में कमल है।
दो हाथों में कमल धारण करनेवाली माता सदैव भक्तों को कमल की तरह आनन्द प्रदान करने को तत्पर हैं। वह कमल के ही आसन पर विराजमान हैं, अतः इन्हें ‘कमलासना’ देवी अथवा ‘पद्मासना’ देवी भी कहते हैं। इन के शरीर का वर्ण पूर्णतः शुभ्र है।
नवरात्र के पाँचवें दिन योगीजन आदिशक्ति का ध्यान विशुद्धि चक्र में लगाते हैं। गर्दन के निकट यह चक्र स्थित है। सिद्ध योगी खेचरी मुद्रा से यहीं अमृत का पान करते हैं। शुद्धिकरण का प्रतीक है विशुद्धि चक्र जो सोलह पंखुड़ियोंवाला कमल है। इस कमल का रंग जामुनी मिश्रित धुएँ के रंग का है। विशुद्धि चक्र के सोलह पंखुड़ियों पर क्रमशः अं, आं, इं, ईं, उं, ऊं, ऋं, ऋंृ, लृं, लृं, एं, ऐं, ओं, औं, अं, अंः मंत्र अंकित हैं। इस कमल के मध्य श्वेत वृत्त है। विशुद्धि चक्र का बीजमन्त्र हं है और वाहन श्वेत गज (उजला हाथी) है जो आकाश का प्रतीक है। इस चक्र के इष्टदेव अर्द्धनारीश्वर तथा देवी साकिनी हैं जिन का अधिकार अस्थियों पर है।
विशुद्धि चक्र पर ध्यान केन्द्रित कर स्कन्दमाता की आराधना करनी चाहिये। देवी स्कन्दमाता अपने भक्तों की समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण करती हैं। वह भक्त के दोषों को क्रमशः दूर करती जाती हैं और अन्ततः शुद्ध कर विशुद्धि चक्र की सिद्धि प्रदान करती हैं।
सूर्यमण्डल की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण माँ स्कन्दमाता की आराधना से सूर्य के समान अद्भुत तेज व कान्ति की प्राप्ति होती है। इन की पूजा करने से स्वतः ही बालरूप भगवान कार्त्तिकेय अर्थात् स्कन्द की भी पूजा हो जाती है। अतः स्कन्दमाता की पूजार्चना अवश्य करनी चाहिये।
भक्तों के आभामण्डल को सुदृढ़ और अभेद्य बनानेवाली माँ स्कन्दमाता को हाथ जोड़कर चरणों में प्रणाम करें-
सिंहासन नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी।
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