गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः।
गुरूः साक्षात्परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः ।।
गुरु अंतःकरण के अंधकार को दूर करते हैं। आत्मज्ञान के युक्तियाँ बताते हैं। गुरु प्रत्येक शिष्य के अंतःकरण में निवास करते हैं। वे जगमगाती ज्योति के समान हैं जो शिष्य की बुझी हुई हृदय-ज्योति को प्रकट करते हैं। 'गु' का अर्थ है- अंधकार या मूल अज्ञान और 'रु' का अर्थ है- उस का निरोधक। गुरु अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देते हैं। अर्थात् अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जानेवाले को 'गुरु' कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता है। जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है, वैसी ही गुरु के लिए भी। गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। आज विश्वस्तर पर जितनी भी समस्याएँ दिखायी दे रही हैं, उन का मूल कारण है गुरु-शिष्य परंपरा का टूटना।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥
(गीताः ४ / ३४)
इस श्लोक में भगवन ने अर्जुन के माध्यम से हम सब को समझाया है कि उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उन को भली-भाँति दण्डवत्-प्रणाम करने से, उन की सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म-तत्त्व को भली-भाँति जाननेवाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।
भारत में गुरु पूर्णिमा पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है। आषाढ़ की पूर्णिमा को ही 'गुरु पूर्णिमा' कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। वैसे तो देशभर में एक से बड़े एक अनेक विद्वान हुए हैं, परंतु उन में महर्षि वेदव्यास, जो चारों वेदों के प्रथम व्याख्याता थे, उन का पूजन आज के दिन किया जाता है।
इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गये हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।
प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करता था, तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु का पूजन करके उन्हें अपनी शक्ति, अपने सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर कृतकृत्य होता था।
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