अगस्त २०१९ में पटना के प्रेमचन्द रंगशाला में राम कुमार मोनार्क के निर्देशन में मंचित नाटक मे कुँवर सिंह की भूमिका में पंकज करपटने और धरमन का पात्र निभाती पिंकी सिंह। |
-शीतांशु कुमार सहाय
प्रेम.....पंचमात्राओं का छोटा शब्द। पर, इस की गहरायी प्रशान्त महासागर से अधिक और ऊँचाई हिमालय से ज़्यादा है। सृष्टि के प्रादुर्भाव से अब तक इसे परिभाषा की शाब्दिक सीमा देने में लाखों-करोड़ों शब्द जाया किये गये पर हाथ कुछ नहीं आया। आज भी यह अपरिभाषित है, अपरिमित है, अपरम्पार है। साधारण मनुष्य के वश की बात नहीं कि वह इन पंचमात्राओं को माप सके, इसे पा सके, इसे पार कर सके। पर, चूँकि मनुष्य में आत्मा निहित है जो परमात्मा का ही अंश है, अतः जो अपनी आत्मा को परमात्मातुल्य बनाने का प्रयत्न करता है, परमात्मतत्त्व को प्राप्त कर लेता है, वह इस पंचभूतशरीर में रहते हुए ही प्रेम की पंचमात्राओं को जान लेता है, इसे पा लेता है और इसे अपने जीवन का अंग बनाने में सफल हो जाता है। भारतीय इतिहास में सफल प्रेमी के रूप में महान स्वाधीनता सेनानी कुँवर सिंह भी जाने जाते हैं।
कुँवर सिंह का प्रेम स्वार्थसिद्धि या काम-वासना का प्रतीक नहीं था। एक हिन्दू राजा होकर भी एक मुसलमान नर्तकी से प्रेम कर उन्होंने जाति और धर्म की दीवार ढाह दी। यह प्रेम का ही प्रतीक है कि उन्होंने अल्लाह की इबादत के लिए मस्जिद का निर्माण कराया तो अन्य धर्मों को भी पल्लवित-पुष्पित होने का भरपूर अवसर प्रदान किया।
प्रेम को रहने के लिए, ठहरने के लिए, स्थिरता के लिए शुद्ध हृदय की आवश्यकता होती है। यह शुद्धता साबुन से नहीं, समर्पण- पूर्ण समर्पण से प्राप्त होती है। पूर्ण समर्पण तभी सम्भव है जब प्रेमी और प्रेमिका के बीच संशय न हो और न ही भविष्य में संशय उत्पन्न होने की सम्भावना हो। ऐसा हुआ तभी तो जगदीशपुर नरेश कुँवर सिंह के प्रति धरमन का समर्पण अमर हो गया, हम आज भी उसे याद करते हैं। संशय और दोषारोपण तो कुँवर-धरमन के प्रेम के बीच कभी जगह पा ही नहीं सके।
यह भारतीय परम्परा है कि राजा के लिए उस की प्रजा सन्तान की तरह प्रिय होती है। सभी तबके की प्रजा पर कुँवर सिंह समान दृष्टि रखते थे। निर्धनों के प्रति उन का प्रेम देखते ही बनता था। एक निर्धन महिला को उन्होंने बहन का सम्मानित दर्जा प्रदान करते हुए निर्धनता दूर करने के लिए १०४० कट्ठे का भूखण्ड उपहार स्वरूप दिया।
अँग्रेजों के आतंक से उन की प्रजा भी प्रताड़ित होने लगी। इसी दौरान प्रेमिका ने अपनी भूमिका निभायी और प्रेमी के भीतर के देशभक्त को जगाया। कुँवर सिंह के मनोरंजन के लिए धरमन जब भी नाचतीं तो उन के ओठ देशभक्ति की पंक्तियाँ ही गुनगुनाते। धरमन की राजमहल की विलासिता का त्याग देखकर महाराज कुँवर भी प्रेमिका के त्याग से आगे निकलने को प्रेम से भाव-विभोर होकर संकल्प लिया और हृदय में देशप्रेम की ज्योति जलायी। उन्होंने प्रमिका के व्यवहार और कहने का मर्म समझा और जान लिया कि देशभक्ति के बिना प्रेम अधूरा है।
देशप्रेम की भावना जागते ही जब भोजपुर के शेर कुँवर सिंह ने तलवार उठायी तो अँग्रेजों की हुकूमत काँप उठी। प्रेम की भावना से ओत-प्रोत प्रेम की मिसाल कुँवर सिंह ने अस्सी-एकासी वर्ष की उम्र में भी महज नौ महीनों में पन्द्रह युद्ध किये और सभी युद्धों में अँग्रेजों को पराजित किया। अन्तिम युद्ध तो उन्होंने केवल बायें हाथ से ही किया और अँग्रेजों की सेना को बुरी तरह पराजित कर भोजपुर के आरा शहर में अँग्रेजों के झण्डा ‘यूनियन जैक’ को उतारकर अपना झण्डा फहराया। वह २३ अप्रील १९५८ ईस्वी का दिन था। कुँवर सिंह के साथ सब ने विजयोत्सव मनाया। इस विजयोत्सव को प्रेमी ने नृत्यांगना से वीरांगना बनी प्रेमिका को समर्पित किया, जो पहले ही रणक्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हो गयी थी। वह प्रेमी के साथ विजयोत्सव का क्षणिक सुख तो नहीं बाँट सकी लेकिन प्रेम के मार्ग पर चलती हुई त्याग को बलिदान में परिवर्तित कर परमात्मा के साथ अमरत्व के सुख का भोग कर रही थी।
प्रेम में त्याग और बलिदान न हो तो वह प्रेम है ही नहीं। अतः धरमन ने भी प्रेमी की सेना में न केवल स्वयं शामिल हुईं; बल्कि अपनी बहन करमन के हाथों को भी शस्त्र थमायीं और वीरगति को प्राप्त होकर त्याग और बलिदान की असीम ऊँचाई को स्पर्श किया। कोई उस ऊँचाई तक पहुँचने की कल्पना भी नहीं कर सकता।
आमतौर पर महापुरुषों के जन्म दिन या पुण्यतिथि मनाये जाते हैं पर कुँवर सिंह के देशप्रेम को याद करने के लिए प्रतिवर्ष २३ अप्रील को ‘विजयोत्सव’ मनाया जाता है। इन महान प्रेमी और प्रेमिका को मेरा शत नमन!
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