बुधवार, 2 जनवरी 2013

How to Reach Allahabad kumbh Mela 2013 / महाकुम्भ मेला 2013


The next Kumbh Mela will be held in Allahabad in the year 2013, from 27th January to 25th February. Allahabad, also known by the ancient name of Prayag, is the second oldest city in India and is revered as one of the most holy places for the Hindus. The amalgamation of three great rivers of India - Ganga, Yamuna, and the mythological Saraswati, happens here; and the point where these three meet is known as Sangam. Being an important religious, educational, and administrative center of India, Allahabad is well connected to all the major cities of India via Air, Rail, and Road. If you are looking forward to being a part of this grand gathering of millions of living souls, then brief information on how to reach Allahabad for the Kumbh Mela 2013 is given below.

Travelling to Allahabad By Road

As Allahabad is located in the heartland of the great Indian plains, the road density is quite high in these parts and is well connected to rest of the country via National and State Highways. NH2 links Delhi-Kolkata passes from Allahabad while NH27 starts from Allahabad and ends at Mangawan in Madhya Pradesh, NH76 links Allahabad in Uttar Pradesh with Pindwara in Rajasthan, NH96 connects to NH28 in Faizabad and brings together two major centers of Hindu Pilgrimage - Allahabad and Ayodhya. The three bus stands of Allahabad cater to different routes of the country through interstate bus services. Local transportation like tourist taxis, cabs, auto rickshaws, and local buses are also available that connects you to various parts of Allahabad and some neighboring cities.
Distance from Major Cities of India
·         Agra 431 KM
·         Kanpur 191 KM
·         Ayodhya 156 KM
·         Mumbai 1162 KM
·         Lucknow 183 KM
·         Kolkata 732 KM
·         Chennai 1385 KM
·         Patna 330 KM
·         Trivandrum 1954 KM
·         Delhi 582 KM
·         Udaipur 829 KM
·         Varanasi 112 KM
·         Jaipur 628 KM
·         Gorakhpur 212 KM
·         Mathura 476 KM
·         Haridwar 621 KM
·         Chitrakoot 104 KM
·         Vindhyachal 71 KM

By Air

The Allahabad Domestic Airport, also known as Bamrauli Air Force Base, is 12 Km from Allahabad and though it is operational for domestic flights, it serves only a limited number of cities in India. Other two nearest airports from Allahabad are Lal Bahadur Shastri Airport in Varanasi (150 Km) and Amausi International Airport in Lucknow (200 Km). Both these airports are well connected to rest of the major cities of India. Daily flights from major airlines like Air India, Air India Express, GoAir, IndiGo, Jet Airways, Kingfisher Airlines, and Spice Jet are available. Local cabs and Interstate buses can be boarded from near the airports to reach Allahabad.

By Rail

Being the headquarters of the North Central Railway Zone in India, Allahabad has eight railway stations within its city limits, all of which are well connected to many of the major cities of India namely - Delhi, Mumbai, Bangalore, Chennai, Hyderabad, Kolkata, Bhopal, Gwalior, Jaipur etc. Cabs, Auto Rickshaws, and City buses are available near all the railway stations to reach your onward destination.

Accommodation

Deluxe Hotels, Budget Hotels, Heritage Hotels, Guesthouses, Dharamshalas, and Camps; Allahabad offers all kinds of accommodations in different locations, allowing you to choose one as per your comfort. You can book Allahabad Hotels online through Online Hotels in India.

Welcome to Kumbh Mela 2013 / महाकुम्भ मेला 2013


The Kumbh Mela, believed to be the largest religious gathering on earth is held every 12 years on the banks of the 'Sangam'- the confluence of the holy rivers Ganga, Yamuna and the mythical Saraswati. The Mela alternates between Nasik, Allahabad, Ujjain and Haridwar every three years. The one celebrated at the Holy Sangam in Allahabad is the largest and holiest of them.


हरिद्वार में पूर्ण कुम्भ--- गुरु कुम्भ राशि में और सूर्य मेष राशि में आने पर हरिद्वार में पूर्ण कुम्भ पर्व होता है।
प्रयाग में पूर्ण कुम्भ--- मेष राशि में गुरु व मकर में सूर्य होने पर प्रयाग में पूर्ण कुम्भ पर्व होता है।
उज्जैन में पूर्ण कुम्भ--- सिंह राशि में गुरु, मेष में सूर्य व तुला में चन्द्र होने पर उज्जैन में पूर्ण कुम्भ पर्व होता है।
नासिक में पूर्ण कुम्भ--- कर्क राशि में गुरु, कर्क राशि में सूर्य, चन्द्र के योग होने पर नासिक में पूर्ण कुम्भ होता है।



पूर्ण कुम्भ या महाकुम्भ / महाकुम्भ मेला 2013 की महत्वपूर्ण तिथियाँ


कुम्भ महापर्व अमृतयमी ब्रह्माण्डीय पर्यावरण अर्थात् अमृतमयी प्राण ऊर्जा का एक उदाहरण है जो ग्रह और नक्षत्र के योग से बनता है। गुरु ग्रह 12 वर्ष बाद कुम्भ राशि पर आता है।

हरिद्वार में पूर्ण कुम्भ--- गुरु कुम्भ राशि में और सूर्य मेष राशि में आने पर हरिद्वार में पूर्ण कुम्भ पर्व होता है।
प्रयाग में पूर्ण कुम्भ--- मेष राशि में गुरु व मकर में सूर्य होने पर प्रयाग में पूर्ण कुम्भ पर्व होता है।
उज्जैन में पूर्ण कुम्भ--- सिंह राशि में गुरु, मेष में सूर्य व तुला में चन्द्र होने पर उज्जैन में पूर्ण कुम्भ पर्व होता है।
नासिक में पूर्ण कुम्भ--- कर्क राशि में गुरु, कर्क राशि में सूर्य, चन्द्र के योग होने पर नासिक में पूर्ण कुम्भ होता है।

उक्त ग्रह योग समस्त स्थानों पर एक समान होते हैं लेकिन हमारे प्राचीन ऋषियों ने पर्यावरण का अध्ययन करके सामान्य जन को इसका लाभ पहुंचाने की दृष्टि से 4 ऐसे स्थान का चयन किया, आध्यात्मिक दृष्टि से पवित्र और प्राकृतिक रूप से वहां शुद्ध जल नदी सदृश उपलब्ध रहता है। इस जल में स्नान करना अमृतमयी बताया गया है। वस्तुतः प्राचीन काल में वर्तमान काल की तरह शुद्ध जल प्राप्त करने की सुविधाएं प्राप्त नहीं थी। शुद्ध जल से स्नान के लिए पूर्णतः नदियों पर ही आश्रित रहना पड़ता था। आजकल तो शुद्ध जल घर पर ही उपलब्ध हो जाता है। अतः शुद्ध जल को खुले एवं बड़े पात्रों में रात्रि में खुले आकाश में कुम्भ काल में रख दिया जाए तो उस जल में भी लगभग वहीं गुण आ जाते हैं जो इन स्थानों में उन कालों में आते थे। ऐसे व्यक्ति जो कुम्भ पर्व काल में हरिद्वार आदि स्थानों पर नहीं जा पाते वे कुम्भ पर्वकाल के अमृतमयी पर्यावरण का अत्यधिक लाभ घर रहकर ही उठा सकते हैं। लेकिन अधिक लाभ जोकि स्थान विशेष की विशिष्ट ऊर्जा के कारण उक्त स्थान पर जाने पर ही प्राप्त होता है।

महाकुम्भ मेला 2013 की महत्वपूर्ण तिथियाँ 

    27 (रविवार) जनवरी - पौष पूर्णिमा
    6 फरवरी (बुधवार) एकादशी स्नान
    10 फरवरी (रविवार) मउनी अमावस्या स्नान (मुख्य स्नान दिवस)
    15 फरवरी (शुक्रवार) बसंत पंचमी स्नान
    17 फरवरी (रविवार) रथ सप्तमी स्नान
    18 फरवरी (सोमवार) भीष्म अष्टमी स्नान
    25 फरवरी (सोमवार) माघी पूर्णिमा स्नान

सोमवार, 31 दिसंबर 2012

नया वर्ष 2013 मुबारक हो ! / एक वर्ष में कई नववर्ष


अनेकता में एकता की परंपरा को हमारा देश सहेज रहा है। यहां हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैन, पारसी के साथ अनेक धर्म और समुदायों के लोग अपनी-अपनी संस्कृति के अनुसार नया साल मनाते हैं। इन सबके अपने अलग-अलग त्योहार और रीति-रिवाज हैं। प्रत्येक समुदाय के नए वर्ष भी अलग-अलग हैं। इस दिन कई सांस्कृतिक आयोजन होते हैं, तरह-तरह के पकवान बनाए जाते हैं और एक-दूसरे को नववर्ष की शुभकामनाएं दी जाती हैं।

हिन्दू नववर्ष : सृष्टि का आरंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से हुआ था। इस हिसाब से चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा) को नववर्ष मनाया जाना चाहिए। हिन्दू नववर्ष का प्रारंभ विक्रम संवत्‌ के अनुसार चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से होता है। इसी दिन से वासंती नवरात्र का भी प्रारंभ होता है। एक साल में 12 महीने और 7 दिन का सप्ताह विक्रम संवत्‌ से ही प्रारंभ हुआ है। वर्तमान में विक्रम संवत्‌ 2069 चल रहा है। विक्रम संवत्‌ पंचांग की गणना चांद के अनुसार होती है।

अंग्रेजी नववर्ष : यह अनेकता में एकता का नववर्ष है। यह एक ऐसा नया साल है जिसे सभी वर्गों-समुदायों द्वारा मान लिया गया है। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार मनाया जाने वाला नया साल की शुरुआत 1 जनवरी से  होती है। 1 जनवरी से नए वर्ष 2013 का प्रारंभ हो गया है। आजकल इसी पंचांग को सर्वमान्य रूप से नए वर्ष की शुरुआत मान लिया गया है। सारे सरकारी कार्य और लेखा-जोखा इसी के अनुसार संचालित किए जाते हैं।

हिजरी संवत्‌ : मुस्लिम समुदाय में नया वर्ष मोहर्रम की पहली तारीख से मनाया जाता है। मुस्लिम पंचांग की गणना चांद के अनुसार होती है। हिजरी सन्‌ के नाम से जाना जाने वाला मुस्लिम नववर्ष अभी-अभी शुरू हुआ है। इस समय 1434 हिजरी चल रहा है।

पारसियों का नववर्ष : पारसियों द्वारा मनाए जाने वाले नववर्ष नवरोज का प्रारंभ 3 हजार साल पहले हुआ। नवरोज को जमशेदी नवरोज भी कहा जाता है। यह 19 अगस्त को मनाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि इसी दिन फारस के राजा जमशेद ने सिंहासन ग्रहण किया था। उसी दिन से इसे नवरोज कहा जाने लगा। राजा जमशेद ने ही पारसी कैलेंडर की स्थापना की थी।

जैन नववर्ष : जैन समुदाय का नया साल दीपावली के दिन से माना जाता है। इसे वीर निर्वाण संवत्‌ कहा जाता है। वर्तमान में 2539 वीर निर्वाण संवत्‌ चल रहा है।

महाराष्ट्रीयन नववर्ष : महाराष्ट्रीयन परिवारों में चैत्र माह की प्रतिपदा को ही नववर्ष की शुरुआत माना जाता है। इस दिन बांस में नई साड़ी पहनाकर उस पर तांबे या पीतल के लोटे को रखकर गुड़ी बनाई जाती है और उसकी पूजा की जाती है। गुड़ी को घर के बाहर लगाया जाता है और सुख-संपन्नता की कामना की जाती है।

मलयाली नववर्ष : मलयाली समाज में नया वर्ष ओणम से मनाया जाता है। ओणम मलयाली माह छिंगम यानी अगस्त और सितंबर के मध्य मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन राजा बलि अपनी प्रजा से मिलने धरती पर आते हैं। राजा बलि के स्वागत के लिए घरों में फूलों की रंगोली सजाई जाती है और स्वादिष्ट पकवान बनाए जाते हैं।

तमिल नववर्ष : तमिल नववर्ष पोंगल से प्रारंभ होता है। पोंगल से ही तमिल माह की पहली तारीख मानी गई है। पोंगल प्रतिवर्ष 14-15 जनवरी को मनाया जाने वाला बड़ा त्योहार है। सूर्यदेव को जो प्रसाद अर्पित किया जाता है उसे पोंगल कहते हैं। 4 दिनों का यह त्योहार नई फसल आने की खुशी में मनाया जाता है।

पंजाबी नववर्ष : पंजाबी समुदाय अपना नववर्ष बैसाखी में मनाते हैं। यह त्योहार नई फसल आने की खुशी में मनाया जाता है। बैसाखी प्रतिवर्ष 13-14 अप्रैल को मनाई जाती है। गीत-संगीत की अनोखी परंपरा और खुशदिल लोगों से सजी है पंजाबियों की संस्कृति। बैसाखी के अवसर पर नए कपड़े पहने जाने के साथ ही भांगड़ा और गिद्दा करके खुशियां मनाई जाती हैं।

गुजराती नववर्ष : गुजराती बंधुओं का नववर्ष दीपावली के दूसरे दिन पड़ने वाली परीवा के दिन खुशी के साथ मनाया जाता है। गुजराती पंचांग भी विक्रम संवत्‌ पर आधारित है।

बंगाली नववर्ष : अपनी विशेष संस्कृति से पहचाने जाने वाले बंग समुदाय का नया वर्ष बैसाख की पहली तिथि को मनाया जाता है। बंगाली पंचांग के अनुसार, इस समय सन्‌ 1419 चल रहा है। यह पर्व नई फसल की कटाई और नया बही-खाता प्रारंभ करने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। एक ओर व्यापारी लोग जहां नया बही-खाता बंगाली में कहें तो हाल-खाता करते हैं तो दूसरी तरफ अन्य लोग नई फसल के आने की खुशियां मनाते हैं।

शनिवार, 29 दिसंबर 2012

ग्रेगेरियन कैलेंडर में महीनों के नामकरण


वर्ष 1482 में पोप ग्रेगेरी ने ग्रेगेरियन कैलेंडर बनाया था. यह कैलेंडर पांच सौ साल से भी ज्यादा पुराना है. अपनी सरलता की वजह से इसे यूनिवर्सल कैलेंडर बनाया गया. इसे सिविल कैलेंडर या इंटरनेशनल कैलेंडर भी कहा जाता है. इसकी तारीख सूर्य की गति के हिसाब से तय होती है. यह जूलियन कैलेंडर का सुधरा हुआ रूप है, जिसे रोम के शासक जूलियस सीजर ने बनाया था. जूलियन कैलेंडर में हर 128 साल के बाद एक दिन का हेर-फेर हो जाता था, जिसे ग्रेगेरियन में दूर किया गया. ग्रेगेरियन को लगभग सभी देशों में मान्यता दी गयी है. इस कैलेंडर को सबसे पहले इटली ने अपनाया. इसके बाद धीरे-धीरे दूसरे देशों ने अपना लिया और अब पूरी दुनिया इसे ही मानती है.

जनवरी

रोमन देवता जेनस के नाम पर वर्ष के पहले महीने जनवरी का नामकरण हुआ. मान्यता है कि जेनस के दो चेहरे हैं एक से वह आगे तथा दूसरे से वह पीछे देखते थे. ठीक उसी तरह जनवरी महीने के भी दो चेहरे हैं एक से वह बीते वर्ष को देखता है तथा दूसरे से वह अगले वर्ष को देखता है. जेनस को लैटिन में जैनअरिस कहा गया है, जेनस बाद में जेनुअरी बना जो हिंदी में जनवरी हो गया.

फरवरी

इस महीने का संबंध लैटिन के फैबरा से है. इसका अर्थ है शुद्धि की दावत. पहले इसी माह में 15 तारीख को शुिद्ध का दावत दिया करते थे. कुछ लोग फरवरी माह का संबंध रोम की एक देवी फैबरूएरिया से भी मानते थे.

मार्च

रोमन देवता मार्स के नाम पर मार्च महीने का नामकरण हुआ. रोमन वर्ष का प्रारंभ इसी महीने से होता है. मार्स मार्टिअस का अपभ्रंश है, जो आगे बढ.ने की प्रेरणा देता है. सर्दी समाप्त होने पर शत्रु देश पर आक्रमण करत थ,े इसलिए इस महीने का नाम मार्च पड़ा.

अप्रैल

इस महीने की उत्पत्ति लैटिन शब्द एस्पेरायर से हुई इसका अर्थ है खुलना. रोम में इसी माह कलियां खिल कर फूल बनती थीं अर्थात बसंत का आगमन होता था इसलिए इस महीने का नाम प्रारंभ में एप्रिलिस रखा गया.

मई

रोमन देवता मरकरी की माता मइया के नाम पर मई माह का नामकरण हुआ. मई का तात्पर्य ब.डे बुजुर्ग रईस हैं. मई माह की उत्पत्ति लैटिन की मेजोरस से भी मानी जाती है.

जून

इस महीने में लोग शादी करके घर बसाते थे इसलिए परिवार के लिए उपयोग होने वाले लैटिन शब्द जेन्स के आधार पर जून का नामकरण हुआ.

जुलाई

राजा जूलियस सीजर का जन्म और मृत्यु दोनों जुलाई में ही हुआ इसलिए इस महीने का नाम जुलाई रखा गया.

अगस्त

जूलियस सीजर के भतीजे अगस्टस सीजर ने अपने नाम को अमर बनाने के लिए सेक्सटिलिस का नाम बदल कर अगस्टस कर दिया जो बाद में केवल अगस्त हो गया.

सितंबर 

रोम में सितंबर को सैप्टेंबर कहा गया है. सैप्टेंबर में सैप्टे लैटिन शब्द है, जिसका अर्थ है सात एवं बर का अर्थ है नौवां यानि सैप्टेंबर का अर्थ है सातवां जो बाद में नौंवा महीना बन गया.

अक्तूबर

इसे लैटिन आक्ट (आठ) के आधार पर अक्तूबर कहते हैं, किंतु दसवां महीना होने पर भी इसका नाम अक्तूबर ही चलता रहा.

नवंबर

नवंबर को लैटिन में नौवेम्बर यानी नौवां कहा गया. ग्यारहवां महीने बनने पर भी इसका नाम नहीं बदला और इसे नौवेम्बर कहा जाने लगा.

दिसंबर

इसी प्रकार लैटिन डेसेम के आधार पर दिसंबर महीने को डेसेंबर कहा गया. वर्ष का 12वां महीना बनने पर भी इसका नाम नहीं बदला.

सोमवार, 24 दिसंबर 2012

दिल्‍ली गैंगरेप के बाबत प्रधान मंत्री को अन्‍ना हजारे की चिट्ठी

समाजसेवी अन्‍ना हजारे ने दिल्‍ली में मेडिकल स्‍टूडेंट के साथ गैंगरेप की घटना और इसके बाद युवाओं में आक्रोश पर प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह को चिट्ठी लिखी है---
सेवा में,
श्रीमान डॉ. मनमोहन सिंह जी,
प्रधान मंत्री, भारत सरकार,
नई दिल्ली.
विषय- गैंगरेप- मानवता को कलंक लगानेवाली शर्मनाक घटना घटी और देश की जनता का जन आक्रोश गुस्सा बेकाबू होकर देश की जनता रास्ते पर उतर आयी, जनता का क्या दोष...?

महोदय,
गैंगरेप की शर्मनाक घटना से देश वासियों की गर्दन शर्म से झुक गयी। देश की जनता का गुस्सा बेकाबू हो कर देश की जनता रास्ते पर उतर आयी। कही दिनों से लगातार जनता का गुस्सा और आक्रोश बढता ही गया। खास तौर पर युवा शक्ती बडी संख्या में रास्ते पर उतर आयी। सामाजिक न्याय के लिए इतनी बडी संख्या में युवा शक्ती का रास्ते पर उतरना और अहिंसा के मार्ग से आंदोलन करना यही देश में होने जा रहे परिवर्तन के पूर्व संकेत हो सकते हैं। लगता है, अब देश में परिवर्तन का समय निकट आ रहा हैं। युवाशक्ती ही राष्ट्रशक्ती होने के कारण देश में युवा शक्ती परिवर्तन लायेगी ऐसा विश्वास हो रहा हैं। जरुरी हैं कि इस बारे में सरकार की तरफ से गम्भीर सोच हो। सरकार की तरफ से बयान आ रहे हैं कि शिघ्र ही कानून में संशोधन कर के अपराधियों को कडी से कडी सजा दी जायेगी। सरकार के कहने का यही मतलब निकलता हैं कि जनता अन्याय, अत्याचार के विरोध में बार बार आंदोलन करती रहे और आंदोलन के बाद सरकार कानून में संशोधन करने का आश्वासन देती रहेगी।

26 जनवरी 1950 को इस देश में हम भारत की जनता ने पहला प्रजासत्ताक दिन मनाया। इसी दिन जनता इस देश की मालिक बन गयी। सरकारी तिजोरी जनता की हैं। उसका सही नियोजन करने के लिए और देश की सर्वोच्च व्यवस्था न्याय व्यवस्था होने के कारण देश में कानून और सुव्यवस्था रखने के लिए देश में अच्छे अच्छे सशक्त कानून बनवाने के लिए हम देश की जनता ने राज्य के लिए विधायक और केंद्र के लिए सांसदों को जनता के सेवक के नाते भेजा हैं। मंत्री मंडल में जो लोग हैं, वह भी जनता के सेवक हैं। विधानसभा और लोकसभा का मुख्य काम हैं कानून और सुव्यवस्था के लिए सशक्त कानून बनाना। आज गैंगरेप के कारण जनता का गुस्सा बेकाबू हो गया और उधर प्रधानमंत्री के नाते आप, श्रीमती सोनिया गांधीजी और सरकार के लोग कह रहे हैं कि हम कानून में संशोधन कर के दोषियों को कठोर शासन करेंगे। आजादी के 65 साल बीत गये हैं। प्रश्न खडा होता हैं कि, महिलांओं पर इस प्रकार के अन्याय अत्याचार के देश में हजारो उदाहरण हैं। देश में सुव्यवस्था बनाये रखने के लिए नये नये कानून बनवाने और कानून में संशोधन करना यही तो सरकार का कर्तव्य था। तो 65 साल में आज तक आज तक सरकार ने कानून में संशोधन कर के फांशी या जन्मठेप जैसे सशक्त कानून क्यों नही बनवाये ?

गैंगरेप जैसी शर्मनाक घटना के लिए छह लोग दोषी बताए जाते हैं। ऐसे अपराध करनेवालों को फांशी या उम्रकैद की सजा जैसे सशक्त कानून बनवाये गये होते तो इन छह आरोपीयों की ऐसा गुनाह करने की हिम्मत ही नही होती। क्या सरकार को ऐसा नही लगता? हमें लगता हैं कि इन छह दोषी आरोपीयों को कडी से कडी सजा तो मिलनी चाहिए, लेकिन पिछले 65 साल में सशक्त कानून न बनवाने वाली सरकार भी तो उतनी ही जिम्मेदार हैं। ऐसा अगर हम कहें तो गलत नही होगा।

बढते भ्रष्टाचार के कारण जनता का जिना मुश्किल हो गया हैं। महंगाई के कारण परिवार चलाना मुश्किल हो गया हैं। परेशान हो कर देश की जनता करोडों की संख्या में रास्ते पर उतर गयी थी। अगर भ्रष्टाचार को रोखने वाले सशक्त कानून बनवाये गये होते भ्रष्टाचार नही बढना था। 16 अगस्त 2011 को देशभर में जनता ने रास्ते पर उतर कर अपना गुस्सा प्रदर्शित किया था। अण्णा हजारे तो रामलिला मैदान में निमित्त मात्र थे। जनता रास्तेपर उतर गयी थी क्यों कि जनता को जिना मुश्किल हो गया और दिल में भ्रष्टाचार का बहुत गुस्सा था। आपकी सरकार ने जनता के सब्र का अब और अंत नही देखना चाहिए। कानून और सुव्यवस्था बनाये रखने हेतू सशक्त कानून बनवाने के लिए तो जनता ने सांसदों को संसद में भेजा हैं। उस कर्तव्य भावना से सशक्त कानून ना बनवाने के कारण और गैंगरेप की घटना घटती हैं तो जनता का गुस्सा होना सहज-स्वाभाविक हैं। इस में उनका क्या दोष हैं ?

सरकार चलानेवाले लोगो ने सोचना चाहिए कि यदि अपनी बेटी या अपनी बहन के साथ ऐसा व्यवहार होता तो आप क्या करते? जनता को गुस्सा आया इसमें उनका क्या दोष हैं। अहिंसा के मार्ग से जनता आंदोलन करती हैं और धारा 144 लगा कर  सरकार जनतंत्र का गला घोटने का काम करती हैं। ऐसा कहे तो गलत नही होगा। जनता को संविधान ने ही आंदोलन का अधिकार दिया हैं। जनता में ऐसा गुस्सा फिर से पैदा ना हो इस लिए महिलाओं के संरक्षण के लिए सशक्त कानून बनवाना सरकार के हाथ में हैं और यह सरकार का कर्तव्य भी हैं। आज सरकार जनता को जो आश्वासन दे रही हैं वह पहले भी तो कर सकती थी। लेकिन समाज और देश की भलाई की अपेक्षा, लगता हैं कि सत्ता और पैसे की सोच अधिक प्रभावी होने से सरकार कुछ नही कर पाती।

आज देश में युवकों ने और देश की जनता ने जो आंदोलन किया वह अहिंसा के मार्ग से किया हैं। कहीपर भी तोडफोड की घटना नही घटी। आंदोलन का यह एक आदर्श उदाहरण हैं। देश और दुनिया के लिए एक आदर्श हैं। आंदोलन कारियों का मुख्य उद्देश यही हैं महिलायों पर फिर से ऐसा अन्याय, अत्याचार ना हो ऐसा सशक्त कानून सरकार से बनवा कर दोषी लोगों को कडी सजा मिल जाए। इस आंदोलन से सरकारने समझना चाहिए कि देश का युवक, देश की जनता सामाजिक परिवर्तन चाहती हैं। संविधान के मुताबिक जीवन की जरुरत पुरी करने और अच्छा जीवन जिने का हर हर व्यक्ति को अधिकार हैं। सामाजिक अन्याय के लिए संघर्ष करनेवाली जनता को सशक्त कानून का अगर आधार मिल जाए तो देश में सामाजिक परिवर्तन का बहुत बडा काम होगा। दोषी आरोपियों को कडी से कडी सजा मिले और आगे ऐसी घटना ना हो इसलिए सशक्त कानून जल्द से जल्द बने, चाहे इसके लिए संसद का विशेष अधिवेशन बुलाना पडे तो इसपर सरकार की राय जानना चाहता हूं। इस काम के लिए सरकार चलानेवाले और कानून बनानेवाले लोगों को सद्बुद्धी मिले इस लिए 27 और 28 दिसंबर को मैं और गांव के कुछ लोग मेरे गांव रालेगण सिद्धी के श्री संत यादवबाबा मंदिर में भगवान से प्रार्थना के लिए बैठने का संकल्प किया हैं।
भवदीय,
कि. बा. तथा अण्णा हजारे.
(मैं जनता और युवा भाई बहिनों से विनंती करता हूँ, आंदोलन करते समय संयम रखे। राष्ट्रीय संपत्ती की कोई हानी ना हो। रास्ते से गुजरने वाले सभी जन हमारे भाई-बहन हैं। उन्हे तकलिफ ना हो। आपने पहले भी अगस्त 2011 में शांतिपूर्ण आंदोलन का आदर्श निर्माण किया हैं। करोडो युवक रास्ते पर उतरे। लेकिन किसी ने एक पत्थर तक नही उठाया। उस आदर्श की दुनिया ने सराहना की हैं। उसी आदर्श को सामने रखते हुए शांती के मार्ग से आंदोलन करने की विनंती करता हूँ। अन्याय और अत्याचार की विरोध में जली हुई मशाल को कभी बुझने ना देना। इसी में है समाज और देश की भलाई।)
जयहिंद।

बुधवार, 19 दिसंबर 2012

भारत में सिलसिलेवार आरक्षण


भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के संविधान ने पहले के कुछ जाति-समूहों को अनुसूचित जाति (अजा) और अनुसूचित जनजाति (अजजा) के रूप में सूचीबद्ध किया. संविधान निर्माताओं का मानना था कि जाति व्यवस्था के कारण अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ऐतिहासिक रूप से दलित रहे. उन्हें भारतीय समाज में सम्मान तथा समान अवसर नहीं दिया गया. इसलिए राष्ट्र-निर्माण की गतिविधियों में उनकी हिस्सेदारी कम रही. संविधान ने सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं की खाली सीटों तथा सरकारी नौकरियों में अजा और अजजा के लिए 15% और 7.5% का आरक्षण रखा था, जो पांच वर्षों के लिए था. उसके बाद हालात की समीक्षा किया जाना तय था. यह अवधि नियमित रूप से अनुवर्ती सरकारों द्वारा बढ़ा दी जाती रही.
बाद में, अन्य वर्गों के लिए भी आरक्षण शुरू किया गया. 50% से अधिक का आरक्षण नहीं हो सकता, सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से (जिसका मानना है कि इससे समान अभिगम की संविधान की गारंटी का उल्लंघन होगा) आरक्षण की अधिकतम सीमा तय हो गयी. हालांकि, राज्य कानूनों ने इस 50% की सीमा को पार कर लिया है और सर्वोच्च न्यायालय में इन पर मुकदमे चल रहे हैं. उदाहरण के लिए जाति-आधारित आरक्षण भाग 69% है और तमिलनाडु की करीब 87% जनसंख्या पर यह लागू होता है. सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार 50% से अधिक आरक्षण नहीं किया जा सकता लेकिन राजस्थान जैसे कुछ राज्यों ने 68% आरक्षण का प्रस्ताव रखा है. इसमें अगड़ी जातियों के लिए 14% आरक्षण भी शामिल है.
विंध्य के दक्षिण में प्रेसीडेंसी क्षेत्रों और रियासतों के एक बड़े क्षेत्र में पिछड़े वर्गो (बीसी) के लिए आजादी से बहुत पहले आरक्षण की शुरुआत हुई थी. महाराष्ट्र में कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति साहूजी महाराज ने 1902 में पिछड़े वर्ग से गरीबी दूर करने और राज्य प्रशासन में उन्हें उनकी हिस्सेदारी देने के लिए आरक्षण का प्रारम्भ किया था. कोल्हापुर राज्य में पिछड़े वर्गों/समुदायों को नौकरियों में आरक्षण देने के लिए 1902 की अधिसूचना जारी की गयी थी. यह अधिसूचना भारत में दलित वर्गों के कल्याण के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने वाला पहला सरकारी आदेश है.
देशभर में समान रूप से अस्पृश्यता की अवधारणा का अभ्यास नहीं हुआ करता था, इसलिए दलित वर्गों की पहचान आसान काम नहीं है. इसके अलावा, अलगाव और अस्पृश्यता की प्रथा भारत के दक्षिणी भागों में अधिक प्रचलित रही और उत्तरी भारत में अधिक फैली हुई थी. एक अतिरिक्त जटिलता यह है कि कुछ जातियां/समुदाय जो एक प्रांत में अछूत माने जाते हैं लेकिन अन्य प्रांतों में नहीं. परंपरागत व्यवसायों के आधार पर कुछ जातियों को हिंदू और गैर-हिंदू दोनों समुदायों में स्थान प्राप्त है. जातियों के सूचीकरण का एक लंबा इतिहास है, मनु के साथ हमारे इतिहास के प्रारंभिक काल से जिसकी शुरुआत होती है. मध्ययुगीन वृतांतों में देश के विभिन्न भागों में स्थित समुदायों के विवरण शामिल हैं. ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान, 1806 के बाद व्यापक पैमाने पर सूचीकरण का काम किया गया था. 1881 से 1931 के बीच जनगणना के समय इस प्रक्रिया में तेजी आई.
पिछड़े वर्गों का आंदोलन भी सबसे पहले दक्षिण भारत, विशेषकर तमिलनाडु में जोर पकड़ा. देश के कुछ समाज सुधारकों के सतत प्रयासों से अगड़े वर्ग द्वारा अपने और अछूतों के बीच बनायी गयी दीवार पूरी तरह से ढह गयी. उन सुधारकों में शामिल हैं रेत्तामलई श्रीनिवास पेरियार, अयोथीदास पंडितर, ज्योतिबा फुले, बाबा साहेब अम्बेडकर, छत्रपति साहूजी महाराज और अन्य.
जाति व्यवस्था नामक सामाजिक वर्गीकरण के एक रूप के सदियों से चले आ रहे अभ्यास के परिणामस्वरूप भारत अनेक अंतर्विवाही समूहों या जातियों और उपजातियों में विभाजित है. आरक्षण नीति के समर्थकों का कहना है कि परंपरागत रूप से चली आ रही जाति व्यवस्था में निचली जातियों के लिए घोर उत्पीड़न और अलगाव है और  शिक्षा समेत उनकी विभिन्न तरह की आजादी सीमित है. "मनु स्मृति" जैसे प्राचीन ग्रंथों के अनुसार जाति एक "वर्णाश्रम धर्म" है, जिसका अर्थ हुआ "वर्ग या उपजीविका के अनुसार पदों का दिया जाना". वर्णाश्रम (वर्ण + आश्रम) के "वर्ण" शब्द के समानार्थक शब्द 'रंग' से भ्रमित नहीं होना चाहिए. भारत में जाति प्रथा ने इस नियम का पालन किया. 
आरक्षण का सिलसिला--
1882 - हंटर आयोग की नियुक्ति हुई. महात्मा ज्योतिराव फुले ने नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ सरकारी नौकरियों में सभी के लिए आनुपातिक आरक्षण/प्रतिनिधित्व की मांग की.
1891- त्रावणकोर के सामंती रियासत में 1891 के आरंभ में सार्वजनिक सेवा में योग्य मूल निवासियों की अनदेखी करके विदेशियों को भर्ती करने के खिलाफ प्रदर्शन के साथ सरकारी नौकरियों में आरक्षण के लिए मांग की गयी.
1901- महाराष्ट्र के सामंती रियासत कोल्हापुर में शाहू महाराज द्वारा आरक्षण शुरू किया गया. सामंती बड़ौदा और मैसूर की रियासतों में आरक्षण पहले से लागू थे.
1908- अंग्रेजों द्वारा बहुत सारी जातियों और समुदायों के पक्ष में, प्रशासन में जिनका थोड़ा-बहुत हिस्सा था, के लिए आरक्षण शुरू किया गया.
1909 - भारत सरकार अधिनियम 1909 में आरक्षण का प्रावधान किया गया.
1919- मोंटागु-चेम्सफोर्ड सुधारों को शुरु किया गया.
1919 - भारत सरकार अधिनियम 1919 में आरक्षण का प्रावधान किया गया.
1921 - मद्रास प्रेसीडेंसी ने जातिगत सरकारी आज्ञापत्र जारी किया, जिसमें गैर-ब्राह्मणों के लिए 44 प्रतिशत, ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16 प्रतिशत, भारतीय-एंग्लो/ईसाइयों के लिए 16 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए आठ प्रतिशत आरक्षण दिया गया था.
1935 - भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रस्ताव पास किया, जो पूना समझौता कहलाता है, जिसमें दलित वर्ग के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए.
1935- भारत सरकार अधिनियम 1935 में आरक्षण का प्रावधान किया गया.
1942 -डॉ. अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों की उन्नति के समर्थन के लिए अखिल भारतीय दलित वर्ग महासंघ की स्थापना की. उन्होंने सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग की.
1946 - 1946 भारत में कैबिनेट मिशन अन्य कई सिफारिशों के साथ आनुपातिक प्रतिनिधित्व का प्रस्ताव दिया.
1947 में भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की. डॉ. अम्बेडकर को संविधान भारतीय के लिए मसौदा समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया. भारतीय संविधान ने केवल धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है. बल्कि सभी नागरिकों के लिए समान अवसर प्रदान करते हुए सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछले वर्गों या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष धाराएं रखी गयी हैं. 10 सालों के लिए उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए हैं.हर दस साल के बाद सांविधानिक संशोधन के जरिए इन्हें बढ़ा दिया जाता है.
1947-1950 - संविधान सभा में बहस.
26/01/1950- भारत का संविधान लागू हुआ.
1953 - सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए कालेलकर आयोग को स्थापित किया गया. जहां तक अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का संबंध है रिपोर्ट को स्वीकार किया गया. अन्य पिछड़ी जाति (ओबीसी (OBC)) वर्ग के लिए की गयी सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया गया.
1956- काका कालेलकर की रिपोर्ट के अनुसार अनुसूचियों में संशोधन किया गया.
1976- अनुसूचियों में संशोधन किया गया.
1979 - सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए मंडल आयोग को स्थापित किया गया. आयोग के पास उपजाति, जो अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी कहलाती है, का कोई सटीक आंकड़ा था और ओबीसी की 52% आबादी का मूल्यांकन करने के लिए 1930 की जनगणना के आंकड़े का इस्तेमाल करते हुए पिछड़े वर्ग के रूप में 1,257 समुदायों का वर्गीकरण किया.
1980 - आयोग ने एक रिपोर्ट पेश की, और मौजूदा कोटा में बदलाव करते हुए 22% से 49.5% वृद्धि करने की सिफारिश की.2006 के अनुसार पिछड़ी जातियों की सूची में जातियों की संख्या 2297 तक पहुंच गयी, जो मंडल आयोग द्वारा तैयार समुदाय सूची में 60% की वृद्धि है.
1990- मंडल आयोग की सिफारिशें विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा सरकारी नौकरियों में लागू किया गया. छात्र संगठनों ने राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन शुरू किया. दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह की कोशिश की. कई छात्रों ने इसका अनुसरण किया.
1991- नरसिम्हा राव सरकार ने अलग से अगड़ी जातियों में गरीबों के लिए 10% आरक्षण शुरू किया.
1992- इंदिरा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण को सही ठहराया.
1995- संसद ने 77वें सांविधानिक संशोधन द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की तरक्की के लिए आरक्षण का समर्थन करते हुए अनुच्छेद 16(4)(ए) डाला. बाद में आगे भी 85वें संशोधन द्वारा इसमें अनुवर्ती वरिष्ठता को शामिल किया गया था.
1998- केंद्र सरकार ने विभिन्न सामाजिक समुदायों की आर्थिक और शैक्षिक स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए पहली बार राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण किया. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण का आंकड़ा 32% है . जनगणना के आंकड़ों के साथ समझौ्तावादी पक्षपातपूर्ण राजनीति के कारण अन्य पिछड़े वर्ग की सटीक संख्या को लेकर भारत में काफी बहस चलती रहती है. आमतौर पर इसे आकार में बड़े होने का अनुमान लगाया गया है, लेकिन यह या तो मंडल आयोग द्वारा या और राषट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा दिए गए आंकड़े से कम है. मंडल आयोग ने आंकड़े में जोड़-तोड़ करने की आलोचना की है. राष्ट्रीय सर्वेक्षण ने संकेत दिया कि बहुत सारे क्षेत्रों में ओबीसी की स्थिति की तुलना अगड़ी जाति से की जा सकती है.
12 अगस्त 2005- सर्वोच्च न्यायालय ने पी. ए. इनामदार और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य के मामले में 12 अगस्त 2005 को 7 जजों द्वारा सर्वसम्मति से फैसला सुनाते हुए घोषित किया कि राज्य पेशेवर कॉलेजों समेत सहायता प्राप्त कॉलेजों में अपनी आरक्षण नीति को अल्पसंख्यक और गैर-अल्पसंख्यक पर नहीं थोप सकता हैं.
2005- निजी शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लिए आरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए 93वां सांविधानिक संशोधन लाया गया. इसने अगस्त 2005 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को प्रभावी रूप से उलट दिया.
2006- सर्वोच्च न्यायालय  की सांविधानिक पीठ में एम. नागराज और अन्य बनाम यूनियन बैंक और अन्य के मामले में सांविधानिक वैधता की धारा 16(4) (ए), 16(4) (बी) और धारा 335 के प्रावधान को सही ठहराया गया.
2006-  केंद्रीय सरकार के शैक्षिक संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण शुरू हुआ. कुल आरक्षण 49.5% तक चला गया.
2007- केंद्रीय सरकार के शैक्षिक संस्थानों में ओबीसी आरक्षण पर सर्वोच्च न्यायालय ने स्थगन दे दिया.
2008-भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 10 अप्रैल 2008 को सरकारी धन से पोषित संस्थानों में 27% ओबीसी कोटा शुरू करने के लिए सरकारी कदम को सही ठहराया. न्यायालय ने स्पष्ट रूप से अपनी पूर्व स्थिति को दोहराते हुए कहा कि "मलाईदार परत" को आरक्षण नीति के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए. क्या आरक्षण के निजी संस्थानों आरक्षण की गुंजाइश बनायी जा सकती है, सर्वोच्च न्यायालय इस सवाल का जवाब देने में यह कहते हुए कतरा गया कि निजी संस्थानों में आरक्षण कानून बनने पर ही इस मुद्दे पर निर्णय तभी लिया जा सकता है. समर्थन करनेवालों की ओर से इस निर्णय पर मिश्रित प्रतिक्रियाएं आयीं और तीन-चौथाई ने इसका विरोध किया.
मलाईदार परत को पहचानने के लिए विभिन्न मानदंडों की सिफारिश की गयी, जो इस प्रकार हैं:-  साल में 2,50,000 रुपये से ऊपर की आय वाले परिवार को मलाईदार परत में शामिल किया जाना चाहिए और उसे आरक्षण कोटे से बाहर रखा गया. इसके अलावा, डॉक्टर, इंजीनियर, चार्टर्ड एकाउंटेंट, अभिनेता, सलाहकारों, मीडिया पेशेवरों, लेखकों, नौकरशाहों, कर्नल और समकक्ष रैंक या उससे ऊंचे पदों पर आसीन रक्षा विभाग के अधिकारियों, उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों, सभी केंद्र और राज्य सरकारों के ए और बी वर्ग के अधिकारियों के बच्चों को भी इससे बाहर रखा गया. अदालत ने सांसदों और विधायकों के बच्चों को भी कोटे से बाहर रखने का अनुरोध किया है.भारत की केंद्र सरकार ने उच्च शिक्षा में 27% आरक्षण दे रखा है और विभिन्न राज्य आरक्षणों में वृद्धि के लिए क़ानून बना सकते हैं.

शनिवार, 8 दिसंबर 2012

रीटेल में एफडीआई के अंतर्निहित तथ्य


वक्‍त निकाल कर एक बार पढ़ें।
सिंगल ब्रांड खुदरा बाज़ार में 100 फीसदी और मल्‍टीब्रांड में 51 फीसदी प्रत्‍यक्ष विदेशी निवेश ने तबाही की अंतिम खुराक इस देश को खिला दी है। दस-बारह साल का खेल और है, फिर कुछ कहने या समझाने की ज़रूरत नहीं होगी। बहरहाल, देश बिक रहा है लेकिन दिमाग हर स्थिति में स्‍वस्‍थ रहना चाहिए। एफडीआई पर जो सरकारी दावे हैं, भ्रम हैं, उनको कुछ हद तक साफ करने की नीचे एक कोशिश है। वक्‍त निकाल कर एक बार पढ़ें।  

सवाल: घरेलू खुदरा क्षेत्र पर रीटेल में एफडीआर्इ का क्या असर होगा?

भारत का खुदरा क्षेत्र कृषि के बाद सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार देता है। हालिया राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 2009-10 के मुताबिक 4 करोड़ लोग इस क्षेत्र में कार्यरत हैं। इनमें से अधिकतर छोटे असंगठित और स्वरोजगाररत खुदरा कारोबारी हैं जिन्हें अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों में लाभकर रोजगार मिलना मुश्किल या असंभव है।

भारत की उच्च जीडीपी वृद्धि दर के हो-हल्ले के बावजूद एनएसएस 2009-10 ने इस बात की पुष्टि की है कि यह वृद्धि रोजगारों को नहीं बढ़ा रही। कुल रोजगार वृद्धि दर 2000-2005 के दौरान 2.7 फीसदी से घट कर 2005-2010 के दौरान सिर्फ 0.8 फीसदी रह गर्इ है। गैर-कृषि रोजगार में वृद्धि दर 4.65 फीसदी से गिर कर 2.53 फीसदी रह गर्इ है। राष्ट्रीय स्तर पर सभी कामगारों के बीच करीब 51 फीसदी स्वरोजगाररत थे, 33.5 फीसदी अनियमित मजदूर थे और सिर्फ 15.6 फीसदी नियमित वेतन-भत्‍ता पाने वाले कर्मचारी थे।

ऐसे परिदृश्य में बहुराष्ट्रीय सुपरमार्केट और हाइपरमार्केट श्रृंखलाओं का प्रवेश छोटे और असंगठित खुदरा विक्रेताओं को बड़े पैमाने पर विस्थापित करेगा। आर्इसीआरआर्इर्इआर द्वारा असंगठित रीटेलरों का 2008 में किया गया नमूना सर्वेक्षण बताता है कि एक असंगठित खुदरा व्यापारी की दुकान का औसत आकार करीब 217 वर्ग फुट होता है जिसमें हॉकरों द्वारा इस्तेमाल में लाए जाने वाले ठेले और कियोस्क शामिल नहीं हैं (इम्पैक्ट ऑफ ऑर्गनाइज्ड रीटेलिंग ऑन दी अनऑर्गनाइज्ड सेक्टर, आर्इसीआरआर्इर्इआर, मर्इ 2008)। रिपोर्ट के मुताबिक असंगठित रीटेल का कुल सालाना कारोबार 2006-07 में 408.8 अरब डॉलर था और कुल पारंपरिक दुकानों की संख्या 1.3 करोड़ थी। लिहाजा एक दुकान का सालाना औसत कारोबार 15 लाख रुपए के आसपास आता है। सर्वे के मुताबिक एक औसत दुकान में दो से तीन लोग काम करते हैं।

अमेरिका में वालमार्ट सुपरमार्केट का औसत आकार 108000 वर्ग फुट होता है जिसमें 225 लोग काम करते हैं। वालमार्ट ने 2010 में 28 देशों के अपने 9800 आउटलेट से 405 अरब डॉलर के सामानों की बिक्री की जिनमें कुल 21 लाख लोग रोजगाररत थे।

इसका अर्थ यह हुआ कि वालमार्ट की एक दुकान भारत की 1300 छोटी दुकानों को निगल जाएगी और 3900 लोग एक झटके में बेरोजगार हो जाएंगे। इसके बदले उस स्टोर में कुल 214 नौकरियां सृजित होंगी (या फिर अमेरिकी औसत अधिकतम 225)। ज़ाहिर है, यदि बहुराष्ट्रीय रीटेलरों को भारत में प्रवेश दिया गया तो रोजगारों में भारी कटौती होगी।

सवाल: क्या रीटेल में एफडीआर्इ देने से तीन साल में एक करोड़ नौकरियां सृजित होंगी?

वाणिज्य मंत्री ने दावा किया था कि रीटेल में एफडीआर्इ के आने से तीन साल में एक करोड़ रोजगार पैदा होंगे और प्रत्यक्षत: 40 लाख रोजगार पैदा होंगे, बाकी बैक एंड के कामों में पैदा होंगे। नीचे हम दुनिया भर में शीर्ष चार रीटेलरों के स्टोर और उनमें काम करने वाले लोगों के आंकड़े दे रहे हैं:--  (1.) वाल मार्ट- दुनिया में कुल स्टोर- 9826,  कुल कर्मचारी- 21,00,000 , एक स्टोर में औसत कर्मचारी- 214  (2.) कारफूर- दुनिया में कुल स्टोर- 15937, कुल कर्मचारी- 4,71,755, एक स्टोर में औसत कर्मचारी- 30  (3.) मेट्रो- दुनिया में कुल स्टोर- 2131, कुल कर्मचारी- 2,83,280, एक स्टोर में औसत कर्मचारी- 133 (4.) टेस्को- दुनिया में कुल स्टोर- 5380, कुल कर्मचारी- 4,92,714, एक स्टोर में औसत कर्मचारी- 92

इसका मतलब यह हुआ कि यदि तीन साल में 40 लाख नौकरियां भी पैदा करनी हैं, तो अकेले वालमार्ट को भारत में 18600 सुपरमार्केट खोलने होंगे। यदि इन चार शीर्ष रीटेलरों का औसत निकाला जाए, यानी 117 कर्मचारी प्रति स्टोर, तो तीन साल में 40 लाख लोगों को नौकरी देने के लिए 34180 से ज्यादा सुपरमार्केट खोलने होंगे यानी प्रत्येक 53 शहरों में 64 सुपरमार्केट। क्या वाणिज्य मंत्री के ऐसे अटपटे दावे को गंभीरता से लिया जा सकता है?

इसके अलावा, हमारा पहले का अनुमान बताता है कि सुपरमार्केट में पैदा हुर्इ हर एक नौकरी के लिए भारतीय असंगठित खुदरा क्षेत्र में 17 लोगों की नौकरी चली जाएगी। यानी यदि तीन साल में सुपरमार्केटों में 40 लाख लोगों को नौकरी मिलेगी, तो भारत में समूचा असंगठित खुदरा क्षेत्र (4 करोड़ से ज्यादा लोगों को रोजगार देने वाला) पूरी तरह साफ हो जाएगा।


सवाल: क्या सरकार द्वारा लागू की गर्इ बंदिशें भारतीय रीटेलरों की रक्षा कर पाएंगी?

शुरुआत में 10 लाख से ज्यादा आबादी वाले 53 शहरों में बहुराष्ट्रीय सुपरमार्केट खोले जाने की बंदिश निरर्थक है क्योंकि असंगठित क्षेत्र के अधिकतम छोटे खुदरा विक्रेता इन्हीं शहरों में हैं। इन 53 शहरों में 17 करोड़ लोग हैं और असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों की संख्या दो करोड़ से ज्यादा है। यहीं सबसे ज्यादा विस्थापन होगा। बहुराष्ट्रीय रीटेलरों की दिलचस्पी सबसे ज्यादा बाजार के महानगरीय और शहरी सेगमेंट को कब्जाने की है जहां लोगों की क्रय शक्ति ज्यादा है। अर्धशहरी या ग्रामीण इलाकों में काम करने में उनकी दिलचस्पी नहीं है।

रीटेल में 500 करोड़ के न्यूनतम निवेश की शर्त भी बेकार है क्योंकि जो कंपनियां भारतीय बाजार में प्रवेश करने की इच्छुक हैं, वे विश्वव्यापी हैं। सबसे बड़ी कंपनी वालमार्ट का सालाना राजस्व 400 अरब डॉलर है और कारफूर, मेट्रो या टेस्को का भी सालाना कारोबार 100 अरब डॉलर से ज्यादा है। अपने देशों यानी अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी और इंगलैंड इत्यादि में इन्हें मंदी का सामना करना पड़ रहा है, इसीलिए ये उभरते हुए बाजारों जैसे भारत में आना चाहती हैं। इनके पास पर्याप्त वित्तीय संसाधन हैं और इन्हें पता है कि घरेलू रीटेलरों को बाजार से बाहर करने के लिए विभिन्न आकार और प्रकार के आउटलेट कैसे खोले जा सकते हैं।

हो सकता है कि भारत में मौजूदा बड़े रीटेलरों को ये कंपनियां खरीद लें। इसी तरीके से लातिन अमेरिका और एशिया के अन्य देशों में इन्होंने अपना कारोबार फैलाया है। मसलन, 1991-92 में वालमार्ट ने मेक्सिको में प्रवेश के दौरान स्थानीय रीटेलर सिफ्रा के साथ 50-50 फीसदी की हिस्सेदारी कर ली। 1997 तक इसने अधिकांश हिस्सेदारी ले ली और 2000 तक इस संयुक्त उद्यम में साठ फीसदी हिस्सा ले लिया। वालमार्ट अकेले समूचे मेक्सिको में कुल खुदरा बिक्री का 25 फीसदी हिस्सेदार है और विशाल रीटेलरों के कुल विक्रय में इसकी हिस्सेदारी 43 फीसदी है।

सवाल: क्या भारत के छोटे और मझोले उद्यमों को वैश्विक रीटेलरों के आने से लाभ होगा?

सरकार द्वारा छोटे और मझोले उद्यमों से 30 फीसदी सामान खरीदने की बहुराष्ट्रीय रीटेलरों पर लादी गर्इ अनिवार्यता ने भ्रम पैदा करने का काम किया है। वाणिज्य मंत्री कहते हैं कि यह प्रावधान भारत के छोटे और मझोले उद्यमों के लिए किया गया है, लेकिन उन्हीं के मंत्रालय द्वारा जारी प्रेस नोट साफ तौर पर कहता है, ''तीस फीसदी खरीदारी छोटे और मझोले उद्यमों से की जानी है जो दुनिया के किसी भी हिस्से से की जा सकती है और यह भारत के लिए बाध्य नहीं है। हालांकि इस मामले में यह प्रावधान है कि 30 फीसदी खरीदारी उन छोटे और मझोले उद्यमों से की जाएगी जिनके पास 10 लाख डॉलर के बराबर संयंत्र और मशीनरी होगी।

इसके अलावा गैट समझौते का अनुच्छेद 3 किसी भी पक्ष के लिए यह अनिवार्य करता है कि वह दूसरे पक्ष के साथ अनुबंध के तहत उसके उत्पादों को ''राष्ट्रीय बरताव'' प्रदान करे। इसमें साफ तौर पर घरेलू उद्योगों से संसाधन लेने की जरूरत संबंधी नियमन को बाहर रखा गया है। चूंकि भारत ने इन्हीं शर्तों पर विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता ली थी, लिहाजा सिर्फ भारतीय उद्यमों से 30 फीसदी संसाधन लेने की बाध्यता वह लागू नहीं कर सकता क्योंकि इसे दूसरे देश चुनौती दे देंगे। इसके अतिरिक्त भारत ने 71 देशों के साथ द्विपक्षीय निवेश संवर्द्धन और संरक्षण संधियां की हुर्इ हैं जिसके तहत इन देशों के निवेशकों के साथ ''राष्ट्रीय बरताव'' किया जाना होगा। ज़ाहिर है ये देश अपने यहां के छोटे और मझोले उद्यमों से सामग्री आयात की बात कहेंगे। इसका मतलब यह हुआ कि 30 फीसदी की अनिवार्यता का व्यावहारिक अर्थ दुनिया भर के छोटे व मझोले उद्यमों से सस्ते उत्पाद मंगवा कर शुल्क संरक्षण का उल्लंघन करते हुए इन्हें भारत में डम्प करना हुआ जो सीधे तौर पर भारतीय किसानों के हितों को नुकसान पहुंचाएगा। सरकार के पास इसे रोकने का कोर्इ तरीका नहीं है।

सवाल: क्या बहुराष्ट्रीय रीटेलर हमारी खाध आपूर्ति श्रृंखला का आधुनिकीकरण कर देंगे?

वाणिज्य मंत्रालय का दावा है कि बहुराष्ट्रीय रीटेलरों द्वारा किए गए निवेश का आधा हिस्सा हमारे बुनियादी ढांचे के विकास में खर्च होगा जिससे आपूर्ति श्रृंखला आधुनिक बनेगी, सक्षमता बढ़ेगी और संसाधनों की बरबादी कम होगी। यदि इन कंपनियों को ताजा फल, सब्ज़ी, दुग्ध उत्पाद और मीट भारी मात्रा में बेचना है, तो उन्हें अपने हित में बुनियादी ढांचे को विकसित करना मजबूरी होगी। लेकिन शीतगृह, प्रशीतन वाले परिवहन और अन्य व्यवस्थाएं जो वे लागू करेंगे, वे पूरी तरह उनके अपने कारोबार को समर्पित होंगे, किसानों और उपभोक्ताओं के व्यापक हितों के लिए नहीं। इसलिए यह दावा कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां आपूर्ति श्रृंखला को आधुनिक बना देंगी, सिर्फ एक दुष्प्रचार है।

अमेरिका में 1578 कोल्ड स्टोरेज में से 839 सरकारी हैं और 739 निजी या अर्ध-सरकारी। सरकारी गोदाम कहीं ज्यादा बड़े हैं जिनमें कुल भंडारण क्षमता का 76 फीसदी आता है जबकि निजी क्षेत्र के गोदामों की हिस्सेदारी महज 24 फीसदी है। भारत में 5381 कोल्ड स्टोरेज हैं जो अपेक्षया छोटे आकार के हैं, जिनमें से 4885 निजी क्षेत्र के हैं, 356 सहकारी हैं और सिर्फ 140 सरकारी हैं। भारत की कुल भंडारण क्षमता में निजी क्षेत्र का हिस्सा 95 फीसदी से ज्यादा का है जबकि सरकारी क्षेत्र की हिस्सेदारी सिर्फ 0.44 फीसदी है। इसके अलावा 75 फीसदी से ज्यादा क्षमता का उपयोग सिर्फ आलू रखने के लिए होता है। नतीजतन कोल्ड स्टोरेज का औसत उपयोग सिर्फ 48 फीसदी के आसपास हो पाता है।

चीन, जो कि हर साल 50 करोड़ टन अन्न पैदा करता है, वहां कोल्ड स्टोरेज की क्षमता महज 39 करोड़ टन की है जो मोटे तौर पर सरकारी कंपनी साइनोग्रेन से संचालित होते हैं। इस सरकारी निगम ने न सिर्फ यहां के अनाज प्रबंधन को आधुनिक बनाया है बल्कि यह अनाज और तेल प्रसंस्करण के क्षेत्र में भी अपना विस्तार कर चुका है। इसके बरक्स भारत में कुल अनाज उत्पादन 23 करोड़ टन है जबकि कुल भंडारण और कोल्ड स्टोरेज क्षमता पांच करोड़ टन की है। एफसीआर्इ और केंद्रीय भंडार की क्षमता 4 करोड़ टन की है, बाकी राज्यों के केंद्रीय भंडार निगम जरूरत को पूरा करते हैं। पर्याप्त भंडारण की इस कमी के चलते अधिकतर अनाज बरबाद हो जाता है और सरकारी खरीद पर भी बंदिशें लग जाती हैं।

भारत जैसे बड़े देश में आपूर्ति श्रृंखला का आधुनिकीकरण बहुराष्ट्रीय कंपनियों के रास्ते नहीं हो सकता जो कि सिर्फ अपने कारोबारी लाभ के बारे में सोचती हैं। भंडारण क्षमता को सरकारी और सहकारी क्षेत्र में बढ़ाने की बहुत जरूरत है और इनका प्रबंधन दुरुस्त करने की दरकार है। रीटेल में एफडीआर्इ सक्रिय जनभागीदारी और इस निर्णायक क्षेत्र में सरकारी निवेश का विकल्प नहीं बन सकता।

सवाल: क्या भारतीय किसानों को रीटेल में एफडीआर्इ से लाभ होगा?

रीटेल में एफडीआर्इ के पैरोकार दावा कर रहे हैं कि बिचौलियों के सफाए और बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा सीधी खरीद से किसानों को बेहतर दाम मिलेंगे। सच्चार्इ यह है कि मौजूदा बिचौलियों के मुकाबले बहुराष्ट्रीय कंपनियां किसानों से मोलभाव करने की ज्यादा मजबूत स्थिति में होंगी।

मौजूदा मंडियों को आधुनिक बनाने और उनके प्रभवी नियमन की यहां बहुत जरूरत है क्योंकि इनमें व्यापारियों के बीच गोलबंदी देखी जाती है जिसके चलते छोटे किसानों को नुकसान होता है और उनसे अपना मुनाफा कमा कर व्यापारी अनाज की तहबाजारी और कालाबाजारी कर लेते हैं। हालांकि, कृषि खरीद में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रवेश इस समस्या को और बदतर बना कर छोड़ेगा। आज मंडियां जिस तरीके से काम करती हैं, जहां किसानों से उनके उत्पाद खरीदने के लिए व्यापारियों को प्रतिस्पर्धा करनी होती है, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आने के बाद खरीदार सिर्फ एक होगा। इसके चलते किसान उन पर पूरी तरह निर्भर हो जाएंगे और उनके शोषण की गुंजाइश और ज्यादा बढ़ जाएगी।

अंतरराष्ट्रीय तजुर्बा इस बात की तस्दीक करता है। यूरोपीय संघ की संसद के अधिकांश सदस्यों ने फरवरी 2008 में एक संकल्प पारित किया था जो कहता है, ''यूरोपीय संघ में खुदरा बाजार पर अधिकतर सुपरमार्केट श्रृंखलाओं का कब्जा होता जा रहा है... यूरोपीय संघ से इकटठा किए गए साक्ष्य बताते हैं कि बड़े सुपरमार्केट खरीदने की अपनी क्षमता का दुरुपयोग कर के आपूर्तिकर्ताओं को मिलने वाले दाम को अनपेक्षित स्तरों तक गिरा रहे हैं (यूरोपीय संघ के भीतर और बाहर दोनों जगह) और उन पर पक्षपातपूर्ण शर्तें थोप रहे हैं। फ्रांस, इटली, नीदरलैंड्स, बेल्जियम, आयरलैंड और हंगरी जैसे यूरोपीय देशों के किसानों द्वारा सुपारमार्केट के विरोध के बाद यह संकल्प पारित किया गया था। इन सभी की शिकायतें एक सी थीं: दूध, मीट, कुक्कुट, वाइन आदि उत्पादों के मामले में सुपरमार्केट चलाने वाले रीटेलर किसानों को चूस रहे थे और कर्इ मामलों में उन्हें लागत से नीचे के दाम पर उत्पादों की बिक्री करने के लिए मजबूर कर रहे थे। घरेलू खाद्य और कृषि बाजारों में निगमों के संकेंद्रण और प्रतिस्पर्धा पर 2010 में अमेरिकी न्‍याय और कृषि विभाग ने संयुक्त रूप से कार्यशालाएं और जन सुनवाइयां भी आयोजित की थीं।

दक्षिण दशियार्इ देशों के अनुभव भी बताते हैं कि सुपरमार्केट के विस्तार से छोटे किसानों को कोर्इ लाभ नहीं होता। मलयेशिया और थाइलैंड में सुपरमार्केटों ने समय के साथ सब्जि़यों और फलों के आपूर्तिकताओं की संख्या घटार्इ और किसानों के बजाय थोक विक्रेताओं व दूसरे बिचौलियों से उत्पाद खरीदने में लग गए। इसके अलावा कर्इ अध्ययनों में इन सुपरमार्केट द्वारा अनियमितताएं भी सामने आर्इ हैं जैसे भुगतान में देरी, आपूर्तिकर्ता के निर्विकल्प होने की स्थिति में आखिरी वक्त पर दाम में कमी, बगैर नोटिस और समर्थन के मात्रा और गुणवत्ता में लाया गया बदलाव, बगैर उपयुक्त कारण से आपूर्तिकर्ता को सूची में से हटा देना और कर्ज पर भारी ब्याज वसूलना, इत्यादि।

भारत में अधिकांश किसान छोटे और हाशिये के हैं जो दो हेक्टेयर से भी कम जमीन पर खेती करते हैं। आज उनके सामने सबसे बड़ी समस्या लागत में इजाफा, कम दाम, संस्थागत कर्ज तक पहुंच का अभाव, तकनीक और बाजार से जुड़ी है। इन्हें सरकारी मदद और प्रोत्साहन की जरूरत है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा खरीद इनकी समस्या को सुलझाने के बजाय इन्हें और बदहाल बनाएगी।

सवाल: क्या सुपरमार्केट के बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा संचालन से महंगाई को थामा जा सकता है?

सरकार द्वारा रीटेल में एफडीआर्इ के समर्थन में किया गया सबसे बड़ा दुष्प्रचार यही है कि यह महंगार्इ को कम करेगा। विशाल रीटेल श्रृंखलाओं के आने से प्रतिस्पर्धा खत्म हो जाती है और बाजार में एकाधिकार स्थापित हो जाता है। बाजार में संकेंद्रण लंबी दौड़ में महंगार्इ को बढ़ाता है।

दुनिया भर में पिछले दो दशक के दौरान खासकर विशाल संगठित रीटेलरों का हिस्सा बढ़ा है। हालांकि इससे महंगार्इ कम नहीं हुर्इ है, बल्कि 2007 के बाद से वैश्विक खाद्यान्‍न कीमतों में तीव्र इजाफे का श्रेय खाद्य श्रृंखला और व्यापार पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एकाधिकारी नियंत्रण को ही जाता है। 2011 के मध्य में एफएओ की वैश्विक खाद्यान्‍न कीमतें एक बार फिर रिकार्ड स्तर पर पहुंच गर्इ थीं, बावजूद इसके कि दुनिया भर में उस वक्त मंदी थी।

सबसे विशाल वैश्विक रीटेलरों की भूमिका साफ दिखाती है कि सुपरमार्केट महंगार्इ को थाम पाने में नाकाम हैं। वालमार्ट ने अपना कारोबारी नारा ''हमेशा कम कीमतें'' में हमेशा को 2007 में छोड़ दिया और उसकी जगह नारा लाया गया ''पैसा बचाओ, बेहतर जियो। वालमार्ट ने 2011 में अपने अमेरिकी प्रतिस्पर्धियों के मुकाबले सभी खाद्यान्‍न उत्पादों जैसे ब्रेड, दूध, कॉफी, पनीर इत्यादि के दाम बढ़ा दिए। कारफूर ने भी इस साल फ्रांस में दाम बढ़ाए हैं। टेस्को ने आयरलैंड में 2011 में ही 8000 उत्पादों के दाम बढ़ा दिए थे ताकि फरवरी में वित्त वर्ष के अंत से पहले वह मुनाफा कमा सके और इसके बाद बड़ी चालाकी से उसने मार्च में बिक्री बढ़ाने के लिए दामों में कटौती कर दी।

विशाल रीटेलर कम मार्जिन पर ज्यादा सामग्री बेचकर मुनाफा कमाते हैं। जब कभी उनकी बिक्री कम होती है, वे दाम बढ़ाने को मजबूर हो जाते हैं ताकि अपने मुनाफे को समान स्तर पर बनाए रख सकें। कारोबार चलाने के लिए मुनाफे का यह स्तर ही उनका पैमाना होता है, महंगार्इ थामने की कोर्इ कटिबद्धता इनके साथ नहीं होती। जब 2009 में मंदी आर्इ थी, उस साल 250 शीर्ष वैश्विक रीटेलरों की खुदरा बिक्री में सिर्फ 1.3 फीसदी का इजाफा हुआ था जबकि 90 रीटेलरों की बिक्री के आकार में गिरावट आर्इ थी। हालांकि 250 शीर्ष रीटेलरों का शुद्ध मुनाफा 2008 के 2.4 फीसदी के मुकाबले 2009 में फिर भी 3.1 फीसदी रहा था। लागत कटौती के उपायों के साथ कीमतें बढ़ाने के चलते ही यह संभव हो सका था।

सवाल: यदि बहुराष्ट्रीय कंपनियां दूसरे देशों में सुपरमार्केट चला सकती हैं तो भारत में क्यों नहीं?

विकसित देशों के अनुभव बताते हैं कि हाइपरमार्केट और सुपरमार्केट के आने से रीटेल बाजार में संकेंद्रण बड़े पैमाने पर पैदा हो जाता है। ऑस्ट्रेलिया में शीर्ष पांच रीटेलरों का बाजार हिस्सा 97 फीसदी पहुंच गया है जबकि इंगलैंड और अन्य यूरोपीय देशों में यह 50 फीसदी से ज्यादा पर बना हुआ है। विकासशील देशों के बीच भी दक्षिण अफ्रीका में शीर्ष पांच रीटेलरों की बाजार हिस्सेदारी 80 फीसदी से ज्यादा है, ब्राज़ील में 25 फीसदी से ज्यादा है और रूस में करीब 10 फीसदी है। ऐसे संकेंद्रण से छोटी खुदरा दुकानें खत्म हो गर्इं, आपूर्तिकर्ता बरबाद हो गए और उपभोक्ताओं के सामने विकल्पों की कमी हो गर्इ। दुनिया भर में हाल के दिनों में वैश्विक खुदरा श्रृंखलाओं की नकारात्मक भूमिका पर काफी बहस हुर्इ है।

दक्षिण पूर्वी एशिया में पिछले दशक के दौरान रीटेल का यह आधुनिक संस्करण काफी तेजी से बढ़ा है जिसके पीछे बहुराष्ट्रीय समेत घरेलू रीटेलरों का भी हाथ है। नील्सन कंपनी की रिपोर्ट ''रीटेल एंड शॉपर्स ट्रेंड: एशिया पैसिफिक, दी लेटेस्ट इन रीटेलिंग एंड शॉपर्स ट्रेंड्स फार दी एफएमसीजी इंडस्ट्री'', अगस्त 2010 के आंकड़े दिखाते हैं कि 2000 से 2009 के बीच जहां कहीं ऐसे आधुनिक स्टोरों का विस्तार हुआ है (जैसे कोरिया, सिंगापुर, ताइवान, चीन, मलयेशिया और हांगकांग), वहां पारंपरिक दुकानों की संख्या काफी कम हुर्इ है। जिन देशों में इनके विस्तार की गति धीमी रही है, वहां पारंपरिक दुकानों की संख्या बढ़ी है।

रीटेल में एफडीआर्इ के पैरोकार अकसर इस मामले में चीन को सफलता की दास्तान के रूप में बताते हैं। इस दौरान यह छुपा लिया जाता है कि चीन में सबसे बड़ी रीटेल श्रृंखला सरकार द्वारा चलार्इ जाती है जिसका नाम शंघार्इ बेलियन समूह है जिसके देश भर में 5500 से ज्यादा सुपरमार्केट हैं। अन्य छोटी सरकारी दुकानों का भी इसमें विलय हो चुका है। इस समूह की बाजार हिस्सेदारी वालमार्ट और कारफूर से ज्यादा रही है और चीन में शीर्ष पांच रीटेलरों की बाजार हिस्सेदारी भी 10 फीसदी से कम रही है। इसके बावजूद चीन अपने यहां पारंपरिक दुकानों को कम होने से रोक नहीं सका है।

मलयेशिया, इंडोनेशिया और थाइलैंड जैसे दक्षिण पूर्व एशियार्इ देशों में आधुनिक रीटेल स्टोरों पर कर्इ बंदिशें लागू हैं। एक नियम यह है कि हाइपरमार्केट शहरी बाजारों और पारंपरिक हाट से एक तय दूरी पर ही खोले जा सकते हैं। इनके न्यूनतम आकार और काम करने के घंटों पर भी नियम हैं। एक दशक पहले इन देशों में छोटे दुकानदारों द्वारा किए गए विरोध के बाद ये नियम कानून लागू किए गए। मलयेशिया ने 2002 में नए हाइपरमार्केट खोलने पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन इसे 2007 में उठा लिया गया। नियमन के बावजूद मलयेशिया, इंडोनेशिया और थाइलैंड में शीर्ष पांच रीटेलरों का बाजार हिस्सा 29, 24 और 36 फीसदी है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान थाइलैंड में टेस्को और इंडोनेशिया में कारफूर के आउटलेट खोले जाने के खिलाफ काफी विरोध प्रदर्शन हुए हैं।

इन मामलों से उलट भारत में अब भी आधुनिक रीटेलरों की बाजार हिस्सेदारी पांच फीसदी के आसपास है और कुल खुदरा बिक्री में शीर्ष पांच रीटेलरों का हिस्सा एक फीसदी से भी कम है। यह दिखाता है कि घरेलू कॉरपोरेट कंपनियों द्वारा आधुनिक रीटेल के विस्तार के बावजूद अब भी पारंपरिक दुकानदार उन्हें टक्कर देने की स्थिति में बना हुआ है। हालांकि आर्इसीआरआर्इर्इआर और अन्य अध्ययनों में यह बात सामने आर्इ है कि बड़े रीटेल आउटलेट के पड़ोस में स्थित छोटी खुदरा दुकानों की बिक्री में गिरावट आर्इ है। छोटे दुकानदारों की रक्षा करने और रीटेल बाजार में संकेंद्रण को रोकने के लिए जरूरी है कि एक प्रभावी नियमन का ढांचा लागू किया जाए। दुकान के आकार और उसकी जगह के संदर्भ में लाइसेंसिंग प्रणाली के माध्यम से विशाल रीटेल स्टोरों की संख्या पर रोक लगार्इ जानी होगी। खरीद के नियम भी तय किए जाने होंगे। अब तक सरकार ने ऐसे किसी नियमन के संदर्भ में कोर्इ परिचर्चा या रायशुमारी नहीं की है, न ही असंगठित, सहकारी और सरकारी क्षेत्र की मौजूदा रीटेल दुकानों के आधुनिकीकरण को बढ़ावा देने के लिए कोर्इ पहल की गर्इ है।

रीटेल में एफडीआर्इ को मंजूरी दिए जाने के बाद ऐसा कोर्इ भी नियमन असंभव हो चुका है क्‍योंकि उसके बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने धनबल का इस्तेमाल कर के अपना विस्तार करेंगी और देश भर से भारी मुनाफा काटेंगी क्योंकि भारत आज दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ता हुआ एफएमसीजी बाजार है। भारतीय कॉरपोरेट अपने कारोबारों को उन्हें बेचकर उनकी मदद ही करेंगे, खासकर वे कारोबार जो काफी कर्ज लेकर अपना भारी विस्तार कर चुके हैं। इस तरह संगठित रीटेल का हिस्सा तेजी से बढ़ेगा और बदले में बड़ी संख्या में छोटे दुकानदार विस्थापित हो जाएंगे, बड़े पैमाने पर बेरोजगारी बढ़ जाएगी। पहले से ही बेरोजगारी की खराब तस्वीर के बाद ऐसा होने से देश में सामाजिक तनाव और असंतुलन बढ़ेगा।

कुछ तबकों की ओर से दलील आ रही है कि भारतीय बाजार की वृद्धि दर पर्याप्त है कि वह बहुराष्ट्रीय सुपरमार्केटों और असंगठित खुदरा क्षेत्र को समानांतर समाहित कर सके। हालांकि इसके पीछे यह धारणा है कि पिछले दिनों में भारत की क्रय शक्ति में वृद्धि हुर्इ है और यह आगे भी जारी रहेगी, लेकिन यह गलत है। मंदी के संकेत अभी से ही मिलने लगे हैं। विकसित देशों में दोहरी मंदी और रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में वृद्धि निवेश और वृद्धि पर प्रतिकूल असर डाल रही है। ऐसे परिदृश्य में बहुराष्ट्रीय रीटेलरों को भारतीय बाजार में प्रवेश की अनुमति देना वृद्धि और रोजगार सृजन तो दूर, विनाश को आमंत्रित करने जैसा है। www.junputh.com

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

हिन्दू और मुसलमान के धार्मिक प्रेम Religious Love of Hindus & Muslims

 
रामचरितमानस की रचना के दौरान गोस्वामी तुलसीदास

  
    भारत में कई ऐसे अवसर आये, जब सनातन (हिन्दू) और इस्लाम (मुसलमान) के बीच सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक एकता के व्यावहारिक भाव प्रकट हुए। ये भाव दूरगामी और सकारात्मक प्रभाववाले सिद्ध हुए और हो रहे हैं। दरअसल, विश्व का सब से प्राचीन धर्म सनातन धर्म ही है, जिसे हिन्दू धर्म भी कहा जाता है। सच यह है कि सभी धर्म इसी धर्म के अंश हैं। अन्य धर्मों के जिन विद्वानों ने इस सच्चाई को माना है, उन्होंने सनातन धर्म को 'मातृधर्म' के रूप में सम्मान दिया है। यहाँ ऐसे ही कुछ मुसलमान विद्वानों की चर्चा करता हूँ :

    १. रामभक्त गोस्वामी तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' की रचना अपने प्रिय मित्र अब्दुल रहीम खानखाना, जो बनारस {वाराणसी} के गवर्नर थे, के संरक्षण में रहकर की। रहीम खानखाना वास्तव में कृष्ण भक्त थे और आज भी उन के दोहे हमारी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा हैं। बनारस के शक्तिशाली ब्राह्मण पण्डे तुलसीदास को नुक़सान पहुँचाना चाहते थे। वे चाहते थे कि तुलसीदास 'रामचरितमानस' की रचना आम बोलचाल की भाषा अवधी में नहीं; बल्कि शुद्ध संस्कृत में करें।

    २. अवध के नवाब तेरह दिनों तक होली मनाते थे। नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में कृष्ण रासलीला खेली जाती थी। भगवान हनुमान के सम्मान के तहत राज्य में बंदरों को मारना कानूनी अपराध था। एक मुसलमान लेखक सुविख्यात नाटक ‘इन्द्र सभा’ का मंचन करता था, जिसे तमाम जनता बड़े चाव से देखती थी। जब अंग्रेज़ों ने अवध के राजा को वनवास देकर अवध से निकाल दिया, तब प्रजा रो-रोकर ‘‘राम जी को फिर हुआ वनवास’’ गीत गाती थी। नवाब का कलकत्ता का महल जिस में वह नजरबंद रहते थे,‘राधा मंजिल’ कहलाता था।   

    ३. पंजाबी सूफी कवि गुरु बाबा बुल्लेशाह का असली नाम माधव लाल हुसैन था, जो न हिन्दू और न मुसलमान नाम है। उन की सब से पसंदीदा पंक्तियां थीं :

‘‘मस्जिद ढा दे, मंदिर ढा दे,

ढा दे जो कुछ ढाहंदा,

पर किसी दा दिल ना ढाई,

रब दिलों विच रहदां’’।

    ४. अहमदाबाद की सूफी सुहागनें खुद को भगवान की दुल्हन मानती थीं। वे हिन्दू दुल्हनों की तरह शृंगार करती थीं, लाल सिंदूर लगाती थीं। आज तक लाल सिंदूर और काँच की चूड़ियाँ (उनके दरगाह पर) चढ़ाई जाती हैं।

    ५. मुगल सम्राट शाहजहाँ के प्रिय कवि का नाम जगन्नाथ पंडित था जिन्हें सम्राट ने ‘कवि राय’ की उपाधि से नवाज़ा था। कवि राय हिन्दी व संस्कृत में रचनाएँ लिखते थे। शाहजहाँ की पत्नी बेगम मुमताज़ महल की प्रशंसा में गीत लिखनेवाले मुख्य कवि वंशीधर मिश्र और हरि नारायण मिश्र थे। शाहजहाँ के काल में मनेश्वर, भगवती और बेदांग राजा नामक अन्य विद्वान भी थे जो ज्योतिष पर आधारित शास्त्रों की रचना करते थे और उन्हें सम्राट को (संस्कृत में) समझाते थे।

    ६. बादशाह शाहजहाँ के सब से बड़े पुत्र दारा शिकोह एक उच्च कोटि के संस्कृत विद्वान थे जिन्हें काशी के पंडित, सिक्ख गुरु और सूफी संत समान रूप से चाहते थे। कहा जाता है कि दारा शिकोह को एक सपना आया था जिस में भगवान राम ने उन्हें उपनिषद्, योग वासिष्ठ और भगवद्गीता को फारसी में अनूदित करने का आदेश दिया था। दारा शिकोह का यह अनुवाद मैक्सम्यूलर ने दुनियाभर में प्रचलित किया। बयालीस वर्ष की उम्र में दारा शिकोह ने फारसी में ‘मजमौल-बहरैन’ (दो समुन्दरों का मिलाप अर्थात वैदिक और इस्लामी संस्कृतियों का मिलाप) नाम के ग्रंथ की रचना की जिस में उन्होंने हिन्दू धर्म व इस्लामी सोच की समानताओं का बखान किया। इस रचना के अनुसार हिन्दू वेदान्त और इस्लामी सूफियत सिर्फ एक ही सोच के अलग-अलग नाम हैं। हिन्दू धर्म में ‘मोक्ष’ और इस्लाम में ‘जन्नत’ जाने का अर्थ एक ही है यानी मुक्ति पा जाना।

    ७. प्रसिद्ध मराठा राजा शिवाजी की फौज में हिन्दू और मुसलमान दोनों अधिकारी थे। शिवाजी सभी धर्मों को समान आदर देते थे। उन की प्रजा और सेना को सख्त निर्देश थे कि वे औरतों, बच्चों और कुरान, गीता आदि धार्मिक ग्रंथों का कभी अनादर नहीं करेंगे और न ही उन पर हमला करेंगे।

    ८. स्वर्ण मंदिर की नींव गुरु अर्जुन देव के प्रिय मित्र हज़रत मियाँ मीर ने रखी थी, जो एक मुसलमान सूफी सन्त थे। मियाँ मीर वास्तव में शाहजहाँ के पुत्र मुगल युवराज दारा शिकोह के गुरु भी थे। बचपन में गुरु अर्जुन देव ने दारा शिकोह की जान बचायी थी। जिस के कारण दोनो में बहुत स्नेह था।

    ९. गुरु नानक के जीवनभर के साथी थे मियाँ मरदाना, जो एक मुसलमान थे और रबाब वादक थे। मियाँ मरदाना गुरुवाणी गानेवाले पहले गायक हैं। कहा जाता है कि मियाँ मरदाना गुरु नानक के साथ हरिद्वार से मक्का तक घूमे। मरदाना के वंशज पाँच सौ साल तक स्वर्ण मंदिर में रबाब बजाते थे। यह किस्सा सन् १९४७ में भारत और पाकिस्तान बँटवारे के साथ खत्म हुआ।

    १०. रसखान एक मुसलमान कृष्ण भक्त थे जो एक बनिये के बेटे को कृष्ण का अवतार मानकर उस की पूजा करते थे। वे उस के नजदीक रहने के लिए वृंदावन में संन्यासी का जीवन व्यतीत करने लगे। रहीम, हज़रत सरमद, दादू, बाबा फरीद जैसे बहुत से मुसलमान कवियों ने बड़ी तादाद में कृष्ण भक्ति से ओत-प्रोत रचनाएँ कीं जिन में से कुछ 'गुरुग्रंथ साहिब' में शामिल हैं।

    ११. मुसलमान राजा बाज बहादुर और राजपूत पुत्री रूपमति के प्रेम के किस्से माण्डू (वर्तमान मध्य प्रदेश के धार ज़िले में स्थित) में आज भी सुनाये जाते हैं। माण्डू युद्ध में पराजित होने के बाद रानी रूपमति ने ज़हर खाकर आत्महत्या कर ली; क्योंकि उन्हें बाज बहादुर से बिछड़ना गंवारा नहीं था।

    १२. गुरु गोविन्द सिंह के प्रिय मित्र सूफ़ी बाबा बदरुद्दीन थे। औरंगजेब के विरुद्ध युद्ध में बाबा बदरुद्दीन ने अपनी, अपने बेटों, अपने भाइयों और अपने सात सौ शिष्यों की जान न्योछावर कर दी थी। उन के अनुसार, यह असमानता और अन्याय के खिलाफ इस्लाम द्वारा सुझाया सच्चा रास्ता है। बदरुद्दीन बाबा को गुरु गोविन्द सिंह बेहद प्यार व सम्मान देते थे। गुरुजी ने उन्हें अपना खालसा कंघा और कृपाण भेंट में दी थी। ये दोनों चीज़ें बाबा बदरुद्दीन के दरगाह ‘कंघे शाह’ में अभी तक महफूज़ रखे हैं।

    १३. सन् १८५७ ईस्वी की क्रांति में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की रक्षा उन के मुसलमान पठान जनरल गुलाम गौस खान और खुदादाद खान ने की थी। उन्होंने अपनी मौत तक झाँसी के किले की हिफाज़त की। उन के अंतिम शब्द थे, ‘‘अपनी रानी के लिए हम अपनी जान न्योछावर कर देंगे।’’

    १४. सन् १९४२ ईस्वी में सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिन्द फौज के नारे ‘जय हिन्द’ की रचना कैप्टन आबिद हसन ने की थी। यह नारा फौज में अभिवादन का तरीका बनाया गया और सभी भारतीयों ने इसे मूल मंत्र की तरह स्वीकारा। (समरथ पत्रिका से साभार/prawakta)

शुक्रवार, 15 जून 2012

लाचार प्रधानमंत्री की लचर सरकार

शीतांशु कुमार सहाय

दो दशकों पहले जब देश के वित्तमंत्री के रूप में आज के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने केन्द्रीय राजनीति में अपनी पारी की शुरुआत की, तभी से एक अर्थशास्त्री के तौर पर सभी ने उनका लोहा माना। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी यूपीए की दूसरी पारी में अब चारों ओर से उनपर हमला हो रहा है। उन्हें ऐसे नेता के तौर पर पेश किया जा रहा है जो न तो फ़ैसला कर पाता है, न नेतृत्व देने की क्षमता रखता है और न ही उसके पास देश की अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए कोई स्पष्ट रूपरेखा है। ऊपर से रुपए की क़ीमत लगातार गिरती जा रही है और महँगाई पर सरकार का कोई काबू नहीं है। गोदामों में अनाज सड़ रहे हैं और लोग भूखे मर रहे हैं। किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं। ऐसे में हर कोई सोचने को मजबूर है कि क्या अब भी मनमोहन सिंह को सफल अर्थशास्त्री कहें? 
मनमोहन सिंह असफल प्रधानमंत्री और अर्थशास्त्री हैं। वह गठबंधन धर्म को ऊपर और राष्ट्रधर्म को नीचे रखते हैं। उनकी ही नीतियों के बदौलत और फैसला न ले पाने की वजह से देश की दुर्दशा हो रही है। वर्ष 2009 में अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी में ईरान के खिलाफ़ वोट देना उनके असफल अर्थषास्त्र का ही परिचायक है। इस निर्णय की वजह से ईरान ने भारत के साथ 21 अरब डॉलर का गैस समझौता ख़त्म कर दिया। इससे भारत की ऊर्जा सुरक्षा को जैसा नुक़सान हुआ वह अपूरणीय है। ऐसा ही एफ.डी.आई. के मामले में भी दिखाई दिया।


वास्तव में किसी नेता के लिए यह जरूरी नहीं है कि वह किसी विषय विषेष के बारे में गहरी जानकारी रखे। नेतृत्व और विद्वत्ता दो भिन्न चीजें हैं। देश को मजबूत नेतृत्व और मनमोहन सिंह जैसे सलाहकार की जरूरत है। मतलब यह कि मनमोहन सिंह सलाहकार ही बेहतर साबित हो सकते हैं, नेतृत्व करना उनके वश की बात नहीं। वे अच्छे अर्थशास्त्री हो सकते हैं लेकिन सच्चाई यही है कि वह प्रधानमंत्री के रूप में केवल एक मूर्ति ही हैं जो न सुन सकती है, न बोल सकती है और न ही कुछ देख सकती है। तभी तो उनकी तुलना किरण बेदी ने धृतराष्ट्र से की। वैसे इसके लिए सिर्फ उन्हें जिम्मेदार नहीं माना जाना चाहिए। मंत्रिमंडल की सलाह पर ही प्रधानमंत्री निर्णय लेता है। अगर प्रधानमंत्री देश की जनता की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता है, तो इसमें मंत्रिमंडल की भी जवाबदेही है। इस संदर्भ में महान नीतिशास्त्री चाणक्य की बात याद आती है- शासन चलाने के लिए जरूरी है कि आसपास का वातावरण सकारात्मक हो तभी सही नतीजे सामने आएंगे। पर, यहाँ तो मनमोहन सिंह के आसपास का वातावरण बेहद प्रदूषित है। वह कामयाब अर्थशास्त्री हैं पर सही कार्यान्वयन न होने की वजह से उनकी नीतियों के सही नतीजे नहीं निकल पाते। भ्रष्टाचार की वजह से वह असफल साबित हो रहे हैं। इसलिए व्यक्तिगत तौर पर उनके साफ-सुथरे होने का कोई लाभ देश को नहीं मिल पा रहा।


अगर भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी प्रधानमंत्री को नाकामयाब बताते हैं, तो कांग्रेसी प्रवक्ता इसे विरोधी दल का षिगूफा कहकर खारिज करते हैं। अब तो सर्वेक्षण करने वाली एजेंसियाँ भी इस सच्चाई को स्वीकारने लगी हैं। वास्तव में यह स्वीकारोक्ति दलगत राजनीति का हिस्सा नहीं है; बल्कि उसके सर्वेक्षण में जो सच्चाई सामने आई, एजेन्सी ने वही कहा। रेटिंग एजेंसी ‘मूडीज’ के विश्लेषकों के मुताबिक भारत में कमजोर केंद्रीय सरकार ही देश की तरक्की में सबसे बड़ी बाधा है। इस वजह से अर्थव्यवस्था अपनी क्षमता से कम गति से बढ़ रही है। इसके मुताबिक, वर्ष 2012 में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 7.5 प्रतिषत से कम रहेगी। गंभीर राजनीतिक हालात के कारण जोखिम का स्तर बना हुआ है। वर्ष 2012 की पहली छमाही के दौरान आर्थिक विकास दर छः प्रतिशत के करीब रहने की संभावना है। हालांकि दूसरी छमाही में यह 6.5 प्रतिषत तक पहुंच सकती है।
अर्थव्यवस्था की खराब हालत पर यूपीए सरकार को अब अपने सहयोगियों की भी खरी-खोटी सुननी पड़ रही है। ताजा हमला एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार ने किया है। कृषि मंत्री शरद पवार ने केंद्र की नीतियों पर सवाल उठाते हुए कहा कि तेल की कीमतें पहले ही बढ़ जानी चाहिए थीं। जब तेल के दाम बढ़ाने चाहिए थे, तब बढ़ाए नहीं गए। नतीजा, देश की आर्थिक हालत बिगड़ी। देश के हित में सरकार को कड़े फैसले लेने चाहिए। सरकारों को देश के फायदे के लिए लोगों की नाराजगी झेलनी पड़ती है। गौरतलब है कि तेल की कीमतों पर पवार की यह उक्ति सरकार के दूसरे सहयोगी तृणमूल काँग्रेस अध्यक्षा ममता बनर्जी से बिल्कुल उलट है। तेल की कीमतें बढ़ाने के विरोध में ममता ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल लिया था। उन्होंने कोलकाता में विरोध मार्च भी निकाला था। बाद में विपक्ष के दबाव बढ़ाने पर सरकार को पेट्रोल की कीमतों में कुछ कमी करनी पड़ी। 


मनमोहन सिंह बहुत समझदार व्यक्ति हैं। वे सब कुछ समझते हैं मगर निर्णय ख़ुद ले नहीं पाते, किसी के इशारे पर चलते हैं। पिछले आठ वर्षों में ऐसा एक भी निर्णय याद नहीं आता जो मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री के रूप में लिया हो। नरसिंह राव के प्रेस सलाहकार रहे एच.वाई. शारदा प्रसाद ने लिखा है कि लोकतंत्र में प्रधानमंत्री भले ही ‘फ़र्स्ट एमंग इक्वल्स’ हों लेकिन वह होते अव्वल ही हैं। निर्णय लेने में उनसे आगे कोई नहीं होता। पर, मनमोहन सिंह अव्वल दीखते ही नहीं।


मनमोहन सिंह ने प्रथम बार 72 वर्ष की उम्र में 22 मई 2004 से प्रधानमंत्री का कार्यकाल आरम्भ किया, जो अप्रैल 2009 में सफलता के साथ पूर्ण हुआ। इसके पश्चात् लोकसभा के चुनाव हुए और काँग्रेस की अगुवाई वाला संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन पुनः विजयी हुआ और वह दुबारा प्रधानमंत्री बने। उनका 1992 का भाषण याद आता है। वित्तमंत्री के रूप में आर्थिक सुधार की शुरुआत करते हुए उन्होंने महात्मा गाँधी का उद्धरण देते हुए कहा था कि वे जो कुछ भी कर रहे हैं, वह समाज के आखिरी आदमी के लिए है। आज जब वे प्रधानमंत्री के रूप में आठ साल पूरा कर रहे हैं तो यह देखना पीड़ादायक है कि उनकी अध्यक्षता वाला योजना आयोग को हर रोज़ 26 रुपए कमाने वाला भी ग़रीब नज़र नहीं आता। 


यूपीए-1 के लिए यूपीए-2 एक भयानक शत्रु बन गया है। इसमें घोटालों का जन्म तेज रफ्तार से हो रहा है। इस सरकार में शुरुआती सौदे काफी तेजी से हो जाते हैं। दोनों पक्षों को आपस में संवाद करने में ज्यादा वक्त नहीं लगता। यहां दलाली करने वाले बेहद सक्षम और योग्य हैं। अगर देरी होती है तो बस तोल-मोल में ही। दोनों पक्षों को यह मालूम होता है कि सौदा तो किया ही जाना है, इसलिए यह सब एक निश्चित समय सीमा के भीतर निबटा लिया जाता है। समय लगता है इन घोटालों पर से पर्दा हटाने में। परियोजनाओं के जमीन पर उतरने में वक्त लगता है। फिर कोई शिकायत करता है, तब इस पर जाँच शुरू होती है लेकिन निर्णय नहीं आता। वैसे यूपीए-2 का हर मंत्री ईमानदार और पवित्र होना चाहता है लेकिन मंत्री पद छोड़ने के बाद। जब वे सत्ता में हैं तो जेब का ही ख्याल रखेंगे नऽ। काँग्रेस ने यह धारणा प्रचारित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है कि प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत ईमानदारी पर प्रश्न खड़ा नहीं किया जा सकता। शायद ऐसा है भी। पर, यह कम महत्त्वपूर्ण नहीं है कि मुझे इस बावत ‘शायद’ षब्द का प्रयोग करना पड़ रहा है।


अब देखिये कि इन दिनों कोयला घोटाले का षोर बहुत ज्यादा है। शिबू सोरेन के इस्तीफे के बाद से कोयला मंत्रालय प्रधानमंत्री के ही पास है। अगर कोयला मंत्रालय में उनकी निगरानी में बड़ी लूट को अंजाम दिया गया, तो उन्हें इसकी जिम्मेदारी लेनी ही होगी। अगर उन्होंने देश के संसाधनों की लूट की इजाजत दी, तो उन्हें जवाब देना होगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लूट का पैसा दूसरे लोग ले गए। प्रधानमंत्री की कमजोरी का आलम देखिये कि झारखण्ड से आनेवाले केन्द्रीय मंत्री सुबोध कान्त सहाय एक कम्पनी के पक्ष में प्रधानमंत्री को पत्र लिखते हैं और उस कम्पनी को कोल ब्लॉक का आवण्टन हो जाता है।


वर्ष 2004 में जब प्रधानमंत्री ने अपना पहला भाषण दिया था तो उन्होंने संस्थागत सुधारों की बात कही थी। उन्होंने मूल रूप से नौकरशाही में सुधार की बात थी। पर, वह नौकरशाहों के सामने भी कमजोर साबित हुए और सुधार की बातं हवा-हवाई हो गई। इसी तरह अनशन के दौरान अन्ना हजारे को पुलिस हिरासत में लेना और स्वामी रामदेव के सो रहे सत्याग्रहियों पर रात में पुलिसिया कार्रवाई करवाकर अपनी कमजोरी की पराकाष्ठा उन्होंने दिखा दी। इसी सन्दर्भ में प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री सहित टीम अन्ना ने जिन केन्द्रीय मंत्रियों के खिलाफ स्वतंत्र विशेष जाँच टीम से तहकीकात करवाने की माँग की है उनमें पी. चिदंबरम, शरद पवार, एस.एम. कृष्णा, कमलनाथ, प्रफुल्ल पटेल, विलास राव देशमुख, वीरभद्र सिंह, कपिल सिब्बल, सलमान खुर्शीद, जी.के. वासन, फारुख अब्दुल्ला, एम.अझागिरी और सुशील कुमार शिंदे के नाम शामिल हैं। उन्होंने यह सुझाव भी दिया है कि सरकार छः अवकाष प्राप्त न्यायाधीश के एक पैनल में से तीन न्यायाधीश का चुनाव भी कर सकती है। न्यायाधीषों में न्यायमूर्ति सुदर्शन रेड्डी, ए.के. गांगुली, ए.पी. शाह, कुलदीप सिंह, जे.एस. वर्मा और एम.एन. वेंकटचेलैया शामिल हैं। यों काले धन को स्वदेश लाने के मुद्दे पर मुहिम चला रहे रामदेव ने प्रधानमंत्री पर निशाना साधते हुए कहा है कि अगर वह वाकई में ईमानदार हैं तो काले धन को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर दें। 

गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

बीमारियों की जड़ पेट के कीडे़

       इस सम्पूर्ण सृष्टि में मानव शरीर सर्वश्रेष्ठ है। इसलिए हर प्रकार से हमें इसकी रक्षा करनी चाहिये। परन्तु, मानव अपनी क्षणिक मानसिक तृप्ति के लिये तरह-तरह के सडे़-गले व्यंजन जो शरीर के लिये हानिकारक हैं, खाता रहता है। इससे शरीर में अनेकों तरह के कीडे़ पैदा हो जाते है और यही शरीर की अधिकतर बीमारियों के जनक बनते है। ये कीडे़ दो तरह के होते हैं। प्रथम, बाहर के कीडे़ और द्वितीय, भीतर के कीडे़। बाहर के कीडे़ सर में मैल और शरीर में पसीने की वजह से जन्मते हैं, जिन्हं जूँ, लीख और चीलर आदि नामों से जानते हैं। अन्दर के कीड़े तीन तरह के होते हैं। प्रथम पखाने से पैदा होते है, जो गुदा में ही रहते हैं और गुदा द्वार के आसपास काटकर खून चूसते हैं। इन्हे चुननू आदि अनेकों नामों से जानते हैं। जब यह ज्यादा बढ़ जाते हैं, तो ऊपर की ओर चढ़ते हैं, जिससे डकार में भी पखाने की सी बदबू आने लगती है। दूसरे तरह के कीडे़ कफ के दूषित होने पर पैदा होते हैं, जो छः तरह के होते हैं। ये आमाशय में रहते हैं और उसमें हर ओर घूमते है। जब ये ज्यादा बढ़ जाते हैं, तो ऊपर की ओर चढ़ते हैं, जिससे डकार में भी पखाने की सी बदबू आने लगती है। तीसरे तरह के कीडे़ रक्त के दूषित होने पर पैदा हो सकते हैं, ये सफेद व बहुत ही बारीक होते हैं और रक्त के साथ-साथ चलते हुये हृदय, फेफडे़, मस्तिष्क आदि में पहुँचकर उनकी दीवारों में घाव बना देते हैं। इससे सूजन भी आ सकती है और यह सभी अंग प्रभावित होने लगते हैं। इनके खून में ही मल विसर्जन के कारण खून भी धीरे-धीरे दूषित होने लगता है, जिससे कोढ़ जनित अनेकों रोग होने का खतरा बन जाता है।

      एलोपैथिक चिकित्सा के मतानुसार अमाशय के कीड़े खान-पान की अनियमितता के कारण पैदा होते हैं,जो छः प्रकार के होते है। 1- राउण्ड वर्म 2- पिन वर्म 3- हुक वर्म 5-व्हिप वर्म 6-गिनी वर्म आदि तरह के कीडे़ जन्म लेते हैं।

कीडे़ क्यों पैदा होते हैं- बासी एवं मैदे की बनी चीजें अधिकता से खाने, ज्यादा मीठा गुड़-चीनी अधिकता से खाने, दूध या दूध से बनी अधिक चीजें खाने, उड़द और दही वगैरा के बने व्यंजन ज्यादा मात्रा में खाने, अजीर्ण में भोजन करने, दूध और दही के साथ-साथ नमक लगातार खाने, मीठा रायता जैसे पतले पदार्थ अत्यधिक पीने से मनुष्य शरीर में कीडे़ पैदा हो जाते हैं। कीडे़ पैदा होने के लक्षण एवं बीमारियाँ  शरीर के अन्दर मल, कफ व रक्त में अनेकों तरह के कीडे़  पैदा होते हैं। इनमें खासकर बड़ी आंत में पैदा होने वाली फीता कृमि (पटार) ज्यादा खतरनाक होती है। जो प्रत्येक स्त्री-पुरूष व बच्चों के पूरे जीवनकाल में अनेक बीमारियों के जन्म देती हैं, जो निम्नवत है:-
1- आंतां में कीड़ों के काटने व उनके मल विसर्जन से सूजन आना, पेट में हल्का-हल्का दर्द, अजीर्ण, अपच, मंदाग्नि, गैस, कब्ज आदि का होना।      2- शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर पड़ना, जिससे अनेकों रोगों का आक्रमण ।     3- बड़ों व बच्चों में स्मरण शक्ति की कमी, पढ़ने में मन न लगना, कोई बात याद करने पर भूल जाना।       4- नींद कम आना, सुस्ती, चिड़चिड़ापन, पागलपन, मिर्गी, हाथ कांपना, पीलिया रोग आदि होना।    5- पित्ती, फोड़े, खुजली, कोढ़, आँखों के चारों ओर सूजन, मुँह में झंाई, मुहांसे आदि होना।     6- पुरुषों में प्रमेह, स्वप्नदोष, शीघ्रपतन, बार-बार पेशाब जाना आदि।     7-स्त्रियों की योनि से सफेद पदार्थ बराबर निकलना, श्वेतप्रदर, रक्तप्रदर आदि।   8- बार-बार मुँह में पानी आना, अरुचि तथा दिल की धड़कन बढ़ना, ब्लडप्रेशर आदि।    9- ज्यादा भूख लगना, बार-बार खाना, खाने से तृप्ति न होना, पेट निकल आना।   10- भूख कम लगना, शरीर कमजोर होना, आंखो की रोशनी कमजोर होना।    11- अच्छा पौष्टिक भोजन करने पर भी शरीर न बनना क्योंकि पेट के कीड़े आधा खाना खा जाते है।    12- फेफड़ो की तकलीफ, सांस लेने में दिक्कत, दमा की शिकायत, एलर्जी आदि।    13- बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास में कमी आना।     14- बच्चों का दांत किटकिटाना, बिस्तर पर पेशाब करना, नींद में चौंक जाना, उल्टी होना।      15- आंतो में कीड़ो के काटने पर घाव होने से लीवर एवं बड़ी आंत में कैंसर होने का खतरा। कैंसर के जीवाणु खाना के साथ लीवर व आंत में पहुँचकर कीड़ो के काटने से हुए घाव में सड़न पैदा कर कैंसर का रूप ले लेते हैं।

      ये कीड़े संसार के समस्त स्त्री-पुरुष व बच्चों में पाये जाते है। यह छोटे-बडे 1 सेन्टीमीटर से 1मीटर तक लम्बे हो सकते हैं एवं इनका जीवनकाल 10से12वर्ष तक रहता है। यह पेट की आंतो को काटकर खून पीते है जिससे आंतो में सूजन आ जाती है। साथ ही यह कीड़े जहरीला मल विसर्जित भी करते हैं जिससे पूरा पाचन तंत्र बिगड़ जाता है। यह जहरीला पदार्थ आंतो द्वारा खींचकर खून में मिला दिया जाता है जिससे खून में खराबी आ जाती है। यही दूषित खून पूरे शरीर के सभी अंगों जैसे हृदय, फेफड़े, गुर्दे, मस्तिष्क आदि में जाता है जिससे इनका कार्य भी बाधित होता है और अनेक रोग जन्म ले लेते हैं। शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर पड़ जाती है और अनेक रोग हावी हो जाते हैं। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को प्रतिवर्ष कीड़े की दवा जरूर लेनी चाहिए। एलोपैथिक दवाओं में ज्यादातर कीड़े मर जाते हैं, परन्तु जो ज्यादा खतरनाक कीड़े होते हैं, जैसे- गोलकृमि, फीताकृमि, कद्दूदाना आदि, जिन्हें पटार भी कहते हैं, वे नहीं मरतें हैं। इन कीड़ों पर एलोपैथिक दवाओं को कोई प्रभाव नहीं पडता है, इन्हें केवल आयुर्वेदिक दवाओं से ही खत्म किया जा सकता है। ये कीड़े मरने के बाद फिर से हो जाते हैं। इसका कारण खान-पान की अनियमितता है। मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिये प्रत्येक वर्ष कीड़े की दवा अवश्य खानी चाहिये।

कृमि रोग की चिकित्सा- 1- बायबिरंग, नारंगी का सूखा छिलका, चीनी(शक्कर) को समभाग पीसकर रख लें। 6ग्राम चूर्ण को सुबह खाली पेट सादे पानी के साथ 10दिन तक प्रतिदिन लें। दस दिन बाद कैस्टर आयल (अरंडी का तेल) 25ग्राम की मात्रा में शाम को रोगी को पिला दें। सुबह मरे हुए कीड़े निकल जायेंगे।
2- पिसी हुई अजवायन 5ग्राम को चीनी के साथ लगातार 10दिन तक सादे पानी से खिलाते रहने से भी कीड़े पखाने के साथ मरकर निकल जाते है।
3- पका हुआ टमाटर दो नग, कालानमक डालकर सुबह-सुबह 15 दिन लगातार खाने से बालकों के चुननू आदि कीड़े मरकर पखाने के साथ निकल जाते है। सुबह खाली पेट ही टमाटर खिलायें, खाने के एक घंटे बाद ही कुछ खाने को दें।
4- बायबिरंग का पिसा हुआ चूर्ण तथा त्रिफला चूर्ण समभाग को 5ग्राम की मात्रा में चीनी या गुड़ के साथ सुबह खाली पेट एवं रात्रि में खाने के आधा घंटे बाद सादे पानी से लगातार 10दिन दें। सभी तरह के कृमियों के लिए लाभदायक है।
5- नीबू के पत्तों का रस 2ग्राम में 5 या 6 नीम के पत्ते पीसकर शहद के साथ 9 दिन खाने से पेट के कीड़े मर जाते हैं।
6- पीपरा मूल और हींग को मीठे बकरी के दूध के साथ 2ग्राम की मात्रा में 6दिन खाने से पेट के कीड़े मर जाते हैं।

बुधवार, 4 अप्रैल 2012

काले धन पर सरकारी प्रयास

शीतांशु कुमार सहाय
काले धन का विरोध भारत में आपातकाल के दौर से ही एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा रहा है। समस्या यह है कि विरोध करने वाले जब सरकार में होते हैं तो वे इस मामले को व्यावहारिक नजरिये से देखने लगते हैं। इसे काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ देशभर में चले नागरिक आंदोलन का असर कहें या अदालतों द्वारा बात-बात पर लगाई जा रही फटकार का लेकिन भारत सरकार अभी इस बीमारी से निपटने को लेकर गंभीर होती दीख रही है।
केन्द्रीय सरकार काले धन पर संसद के वर्तमान बजट सत्र में श्वेत पत्र लाएगी। यह ऐलान वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने 16 मार्च 2012 शुक्रवार को लोकसभा में आम बजट पेश करते हुए किया। उन्होंने कहा कि पिछले साल काले धन के सृजन और उसके चलन की बुराई तथा भारत से बाहर इसके गैर कानूनी लेनदेन की समस्या का सामना करने के लिये एक पंचआयामी कार्यनीति को रेखांकित किया गया था। सरकार ने इस कार्यनीति पर अमल के लिए कई सक्रिय कदम उठाए हैं। मुखर्जी ने बताया कि दुहरे कराधान से बचने के लिये 82 तथा कर सूचना आदान-प्रदान के लिये 17 करार विभिन्न देशों के साथ किये गए और भारतीयों के विदेश स्थित बैंक खातों और परिसंपत्तियों के संबंध में सूचना हासिल होनी शुरू हो गई है। कुछ मामलों में कानूनी कार्रवाई शुरू की जाएगी। उन्होंने बताया कि केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) में आयकर आपराधिक अन्वेषण निदेशालय की स्थापना की गई है। उल्लेखनीय है कि केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के निदेशक ए.पी. सिंह कह चुके हैं कि विदेश में भारतीयों का 24.5 लाख करोड़ रुपए काला धन जमा है। सिंह का यह बयान सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त समिति की रिपोर्ट के आधार पर आया था।
सेंट्रल बोर्ड आॅफ डायरेक्ट टैक्सेज, एनफोसर्मेंट डायरेक्टरेट, रेवेन्यू इंटेलिजेंस, फायनेंशल इंटेलिजेंस और कानून मंत्रालय के कई अधिकारियों को लेकर गठित एक उच्चाधिकार समिति ने काले धन पर रोक लगाने के लिए कई महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये हैं। आम लोगों का मानना है कि काला पैसा कमाने में राजनेताओं और नौकरशाहों का कोई सानी नहीं है लेकिन समिति का निष्कर्ष यह है कि देश में सबसे ज्यादा काला धन इस समय जमीन-जायदाद, सोना-चांदी और जेवरात के धंधे में पैदा हो रहा है। इससे निपटने के लिए रीयल एस्टेट और कमोडिटी कारोबार पर नजर रखने के कुछ ठोस उपाय सुझाए गए हैं। मसलन यह कि अचल संपत्ति की कारोबारी खरीद-फरोख्त को आयकर कानून के दायरे में लाया जाए। सबसे ज्यादा चिंता काले धन और भ्रष्टाचार के मुकदमों के लंबा खिंचने को लेकर जताई गई है।
इन्हें जल्द से जल्द निपटाने के लिए सुझाव दिया गया है कि सभी उच्च न्यायालय इन मुकदमों के लिए विशेष न्यायालय गठित करें और इनमें बैठने वाले न्यायाधीशों के लिये अलग से प्रशिक्षण और रिफ्रेशर कोर्स की व्यवस्था की जाए। समिति ने ऐसे मामलों के दोषियों को मिलने वाली सजा सात से बढ़ाकर दस साल करने का भी सुझाव दिया है। देश के बाहर जमा काले धन के बारे में कमेटी का सुझाव है कि एक निश्चित सीमा से ज्यादा धन देश से बाहर जाने की स्थिति में देसी और विदेशी, दोनों तरह के बैंकों के लिये उसका पूरा रेकॉर्ड रखना और इसकी जानकारी भारत सरकार को देना जरूरी बना दिया जाए। ये सुझाव बहुत अच्छे हैं और विभिन्न नागरिक समूहों से फीडबैक लेकर इन्हें और ताकतवर बनाया जा सकता है।
इन सुझावों का दायरा मुख्यत: महानगरीय लगता है लेकिन ग्रामीण और कस्बाई क्षेत्र भी काले धन के खिलाड़ियों से कम त्रस्त नहीं हैं। एक बड़ी समस्या सरकार के नजरिये की भी है, जो कॉरपोरेट सेक्टर पर हाथ डालने से आम तौर पर कतराती है और निवेश बढ़ाने के नाम पर कुछ-कुछ समय बाद वॉलंटरी डिस्क्लोजर स्कीमें लेकर हाजिर हो जाती है। इस मामले में हमें चीनियों और अमेरिकियों से सबक लेनी चाहिए, जो बिल्कुल विपरीत विचारधारा वाले देश होने के बावजूद अपनी सरकार को चूना लगाने वालों के मामले में बिल्कुल एक-से बेरहम हैं।

मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

रामदेव को व्यवसायी कहनेवाले गांधीजी को गाली तो नहीं दे रहे

शीतांशु कुमार सहाय

लगातार कांग्रेस के नेताओं के बयान आ रहे हैं कि बाबा रामदेव बिजनसमैन हैं। कांग्रेस के एक बयान पुरुष दिग्विजय सिंह ने असभ्यतापूर्ण लहजे में रामदेव के खिलाफ बयान देकर एकबार फिर अपनी असभ्यता का परिचय दिया। अगर रामदेव व्यवसायी हैं तो कांग्रेसी महात्मा गाँधी को भी व्यवसायी ही कहेंगे। विदित हो कि गाँधीजी खादी स्टोर के माध्यम से स्पदेशी वस्तुएं बेचा करते थे और दूसरों को भी इसें लिये प्रेरित किया करते थे।
बाबा रामदेव की संस्था पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट ने देश में स्वदेशी और अच्छे उत्पादों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से पूरे भारत में स्वदेशी स्टोर खोलने और इनके माध्यम से देश में सस्ते मूल्य पर शुद्ध उपभोक्ता सामग्रियों को उपलब्ध कराने की योजना बनाई है। रामदेव के इस कदम से बाजार में लूट मचा रही उपभोक्ता सामग्रियों वाली कंपनियों में खलबली मच गई है। खलबली इसलिये कि बाबा ने पहले ही कई अच्छे उत्पाद बिना किसी विज्ञापन के पहले ही सफलतापूर्वक बाज़ार में ला चुके हैं।


आजकल कांग्रेस के लोग बाबा रामदेव को न जाने क्या-क्या शब्दावली से नवाज रहे हैं। ऐसे कांग्रेसी महात्मा गाँधी के बारे में क्या कहेंगे? महात्मा गाँधी ने भी स्वदेशी परिकल्पना पर काम किया था और खादी एवं ग्रामोद्योग के माध्यम से देशभर में खादी स्टोर खोले थे जहां पर हर तरह की जरूरी वस्तुएं आज भी बिकती हैं। कुछ मीडिया के सुर भी कांग्रेसी टाईप के ही दीख रहे हैं। ...तो क्या मीडिया और कांग्रेसी महात्मा गाँधी को भी व्यापारी कहेगी? महात्मा गाँधी नवजीवन प्रेस के माध्यम से किताबें छापकर बेचा करते थे तो क्या कांग्रेस उन्हें व्यापारी कहेगी?
बाबा रामदेव की परिकल्पना के बारे में बाबा के मीडिया सलाहकार वेद प्रताप वैदिक के अनुसार, बाबा पूरे देश में कुटीर उद्योग के माध्यम से सहकारिता के तर्ज पर लोगों से चीजें बनवाएंगे और उन लोगों को बेचने के लिये अपने स्टोर पर उनको जगह भी देंगे। इससे देश में रोजगार बढ़ेगा। बेरोजगारों को पतंजलि ट्रस्ट ने बड़े पैमाने पर रोजगार दिया है।


इस संदर्भ में कुछ सवाल ऐसे हैं जिनके जवाब कांग्रेसियों को देने ही चाहिये। क्या बाबा रामदेव का अपना कोई परिवार है जिसके लिए वे पैसा कमाने की सोच रहे हैं? रामदेव ने जो अपने पैसे से दो सौ करोड़ में पतंजलि विश्वविद्यालय और तीन सौ करोड़ की लागत से आवासीय सुविधायुक्त विश्व का सबसे बड़ा योग केन्द्र बनवाया है उसमें सरकार ने कोई सहयोग दिया है? 


नियमानुसार किसी भी ट्रस्ट का पदेन सहअध्यक्ष उस जिले का जिलाधिकारी होता है जिस जिले में ट्रस्ट का रजिस्ट्रेशन होता है। पतंजलि ट्रस्ट के अध्यक्ष हरिद्वार के जिलाधिकारी हैं जिनके हस्ताक्षर के बिना बाबा एक रूपये भी खर्च नहीं कर सकते। इसके अलावा बाबा के सभी ट्रस्टों के आय और व्यय का आॅडिट सरकार करवाती है। ... तो फिर ट्रस्ट की आय और व्यय के संबंध में कांग्रेसी उल्टी-सीधी बात करके जनता को भ्रमित क्यों करते हैं?


एक सच्चाई जानिये कि सोनिया गाँधी राजीव गाँधी स्मारक ट्रस्ट की मुखिया हैं। इस ट्रस्ट के पास भारत में बीस हज़ार एकड़ जमीन है। राजीव गांधी का स्मारक वीरभूमि, इंदिरा गांधी का स्मारक शक्तिस्थल, जवाहरलाल नेहरू का स्मारक शांतिवन और तमिलनाडु के श्रीपेरंबुदूर मं बना राजीव गाँधी के मृत्यु स्थल का स्मारक इस ट्रस्ट की जागीर है। ये कुल आठ हज़ार एकड़ में हैं जिनकी कीमत आज कई लाख अरब रूपये है। 


इस ट्रस्ट का आजतक कोई आडिट नहीं हुआ है, क्योंकि इसका रजिस्ट्रेशन एक चैरिटी ट्रस्ट के रूप में हुआ है जो सिर्फ इस नेहरू खानदान के लिए चैरिटी करता है। राजीव गाँधी फाउंडेशन की भी मुखिया सोनिया गाँधी हैं। ये भी एक चैरिटी ट्रस्ट है इसको 2006 में मनमोहन सरकार ने दो सौ करोड़ रूपये दिये थे जिस पर संसद में काफी हंगामा हुआ, क्योंकि कोई भी सरकार किसी निजी ट्रस्ट को इसका कभी आॅडिट न हुआ हो उसको सरकार पैसे नहीं दे सकती। बाद में मनमोहन सरकार ने पैसा वापस ले लिया था। इस ट्रस्ट को बिना किसी नियम-कायदे के राजस्थान सरकार ने गुणगांव और फरीदाबाद में दो सौ एकड़ जमीन सिर्फ एक रूपये में दिया है। महाराष्टÑ सरकार ने मुंबई में कोहिनूर मिल की दो एकड़ और पुणे में चालीस एकड़ जमीन मुफ्त में इस ट्रस्ट को दिया है। इन मामले पर कांग्रेसी क्यों नहीं कुछ बोलते?


क्या इस देश में पैसा कमाना फिर उस पैसे को किसी अच्छे काम में लगाना अपराध है? आज कांग्रेस के नेता और खासकर दिग्विजय सिंह लोगो को संन्यासी की परिभाषा बताते हैं तो फिर वे सतपाल महाराज के बारे में कुछ क्यों नहीं बोल पा रहे हैं? सतपाल महाराज के तीन मेडिकल कॉलेज चार फिजियोथेरेपी कॉलेज और कई दूसरे कॉलेज हैं। ये कांग्रेस के बड़े नेता हैं और केन्द्र में रेल राज्यमंत्री भी रहे हैं।  उत्तर प्रदेश में सतपाल ने कांग्रेस का खूब प्रचार किया है। ...तो ये कौन से संन्यासी हैं? इन्होंने तो आजतक आम आदमी के लिए कुछ नहीं किया? असल में कांग्रेस पिछले दो सालों से बाबा रामदेव और आचार्य बालकृष्ण के पीछे अपनी पूरी जाँच एजेंसियों से सब कुछ जाँच करवा लिया और अवैध कुछ भी नहीं मिला, इसलिए अब कांग्रेस अपना मानसिक संतुलन खो चुकी है। मीडिया में बाबा की आलोचना के पीछे बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ और कांग्रेस दोनों की मिलीभगत है, क्योकि रामदेव से दोनों बहुत डरती हैं। इसका नमूना लोगों ने तब देख लिया जब राहुल गाँधी से एक प्रत्रकार ने कालेधन पर सवाल   पूछ लिया तो उन्हें बाबा रामदेव दीखने लगे। उत्तर प्रदेश में जिस तरह से बाबा ने कांग्रेस के खिलाफ जमकर प्रचार किया। इससे कांग्रेस की हालत बहुत खराब हुई है।