सोमवार, 5 अगस्त 2013

झारखण्ड की बदहाल स्वास्थ्य सेवाएँ


शीतांशु कुमार सहाय
    इन दिनों स्तनपान सप्ताह चल रहा है। इस दौरान झारखण्ड की स्वास्थ्य सेवाओं, विशेषकर बच्चों व माँ के स्वास्थ्य प्रकरण की पड़ताल आवश्यक जान पड़ती है। झारखण्ड को बिहार से अलग करने का एकमात्र कारण विकास को ही माना गया। पर, अब तक विकास के किसी भी खाँचे में यह फिट नहीं बैठ रहा है। विकास के सभी क्षेत्र बदहाल हैं। सड़क, बिजली व पेयजल की हालत तो बदतर है ही, स्वास्थ्य का क्षेत्र तो और भी बदहाल है। राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं व जागरूकता के अभाव में प्रत्येक वर्ष हजारों बच्चे और माँ की मृत्यु हो जाती है। इसे कम किया जा सकता है, रोका जा सकता है मगर सरकारी स्तर पर वैसा प्रयास नहीं हो रहा है। यह निश्चय ही खेदजनक है। जब सरकारी स्तर पर सार्थक प्रयास नहीं हुए तब यूनिसेफ ने राज्य के एक दैनिक समाचार पत्र के साथ स्वास्थ्य जागरूकता का प्रशंसनीय कार्य आरम्भ कर दिया है। इस अभियान में जो तथ्य सामने आ रहे हैं, वे बड़े चौंकाने वाले हैं। बच्चों व माँ के स्वास्थ्य के प्रति स्थिति अत्यन्त खतरनाक है। जहाँ तक गर्भवती स्त्री और प्रसव के तरीकों की बात है तो अब भी अधिकतर प्रसव घर में ही बड़े अस्वास्थ्यकर तरीके से हो रहे हैं। संस्थागत प्रसव बहुत कम हो रहा है।

    इस सन्दर्भ की पड़ताल से पता चलता है कि स्वास्थ्य सेवाओं की कमी से प्रति वर्ष 46 हजार बच्चे असमय ही काल के गाल में समा जाते हैं। इनमें 19 हजार बच्चों की मौत जन्म के मात्र 28 दिनों के अन्दर ही हो जाती है। इस सन्दर्भ में सरकारी आँकड़े का अवलोकन करें तो विदित होता है कि जन्म लेने वाले प्रति एक हजार बच्चों में 55 बच्चे जीवन का 5वाँ दिन भी नहीं देख पाते हैं। 24 बच्चे जन्म के 28 दिनों के अन्दर मर जाते हैं तो 38 बच्चे अपना पहला वर्षगाँठ भी नहीं मना पाते। मतलब यह कि प्रति हजार नवजात बच्चों में 79 की मौत एक माह के अन्दर निश्चित है। एक वर्ष पूरा होते-होते कम-से-कम 117 बच्चे काल-कवलित हो जाते हैं। अगर थोड़ी सावधानी बरती जाए, जागरूकता फैलाई जाए, सरकारी स्वास्थ्य संस्थाएँ ठीक से कार्य करें, बच्चों को माँ नियमित स्तनपान कराए, समय पर टीके लगाए जाएँ, कुपोषण व संक्रमण से बचने के उपाय किये जाएँ और संस्थागत प्रसव हो तो निश्चय ही 46 हजार जानें बचाई जा सकती हैं। प्रतिदिन कम-से-कम 126 नवजातों की प्राण रक्षा हो सकती है। जाहिर है कि इस रक्षा की कुंुजी सरकार के पास है और वह प्रयत्नशील नहीं है या उसका तन्त्र उचित तरीके से कार्य नहीं कर रहा है। वास्तव में सरकार के पास नियम-कानूनों की कमी नहीं है पर उसे सही तरीके से लागू करने वाले तन्त्र की लगाम का प्रबन्धन ही नहीं हो पा रहा है। यही कारण है कि झारखण्ड में 62 प्रतिशत प्रसव अकुशल दाई कराती हैं या फिर घरों में असुरक्षित तरीके से कराए जाते हैं। यह स्वास्थ्य व स्वच्छता की दृष्टि से उचित नहीं है। इससे माँ-बच्चों में जानलेवा संक्रमण का खतरा बना रहता है। केवल 37.6 प्रतिशत प्रसव ही सरकारी या निजी अस्पतालों में होते हैं। कुशल और प्रशिक्षित हाथों से प्रसव होने पर माँ व बच्चों की मृत्यु-दर को काफी कम किया जा सकता है। माँ व बच्चों के स्वास्थ्य के क्षेत्र में राज्य के जिलों की स्थिति को देखें तो पूर्वी सिंहभूम सबसे आगे दीखता है। सबसे बुरा हाल सिमडेगा का है। पूर्वी सिंहभूम के आगे होने का एक कारण यह भी है कि जिले के जमशेदपुर क्षेत्र में टाटा के अस्पताल व निजी अस्पतालों की व्यवस्था अच्छी है। वित्त वर्ष 2012-13 में जहाँ तक प्रसव के लिए सिजेरियन ऑपरेशन यानी सी-सेक्शन की बात है तो इसमें सबसे आगे है हजारीबाग जहाँ 401 सिजेरियन हुए। राँची में 256, पलामू में 186, साहेबगंज में 157, गोड्डा में 138, गिरिडीह में 135 और दुमका में 109 महिलाओं के सिजेरियन हुए। सबसे शर्मनाक स्थिति पाकुड़ की है जहाँ एक भी सिजेरियन नहीं हुआ।

    झारखण्ड में मातृ-शिशु स्वास्थ्य के क्षेत्र में कुछ काम हुए भी हैं। संस्थागत प्रसव को बढ़ावा देने और ऑपरेशन की आवश्यकता वाली गर्भवती महिलाओं के सुरक्षित प्रसव के लिए पिछली राज्य सरकार ने फर्स्ट रेफरल यूनिट (एफआरयू) की व्यवस्था की जहाँ सर्जन होते हैं और ऑपरेशन की व्यवस्था होती है। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों (पीएचसी) को एफआरयू की तरह विकसित किया गया है। राज्य के 188 पीएचसी में से 17 को पहले एफआरयू बनाया गया था। वर्ष 2012-13 में इनकी संख्या 46 की गयी है। इस कारण सिजेरियन की संख्या बढ़ी है। राज्यभर के एफआरयू में वर्ष 2011-12 में 889 सिजेरियन हुए जो वर्ष 2012-13 में बढ़कर 1926 हो गए। वर्तमान वित्त वर्ष 2013-14 में 5 हजार सिजेरियन का लक्ष्य सरकार ने रखा है। अब देखना है कि नवनियुक्त स्वास्थ्य मंत्री राजेन्द्र प्रसाद सिंह के नेतृत्व में स्वास्थ्य विभाग यह लक्ष्य प्राप्त करता है या नहीं। वैसे यूनिसेफ के नेतृत्व में झारखण्ड में चल रहे स्वास्थ्य जागरूकता अभियान को तमाम गाँव-शहर तक फैलाने के लिए राज्य सरकार को भी सहयोग करना चाहिये। इससे हजारों झारखण्डियों के प्राण बचाए जा सकते हैं। 

शनिवार, 3 अगस्त 2013

छिपाएंगे राज और पर्दे में रहेंगे राजनीतिक दल


   
शीतांशु कुमार सहाय
अब राजनीतिक दलों के आन्तरिक सच को जानने का अवसर जनता को नहीं मिल पाएगा, कभी नहीं। जनतन्त्र की दुहाई देने वाले दल जनता से ही छिपाएंगे अपना राज। वे कभी नहीं बताएंगे कि उनके पास वैध या अवैध तरीके से कितना धन आया। पद पर रहकर महज कुछ हजार वेतन पाने वाले नेता लाखों की यात्रा व मौज-मस्ती में करोड़ों उड़ाने का राज ढँककर रखेंगे। पद से हटने पर भी उनके रुतबे में कमी क्यों नहीं हुई? यह प्रश्न अनुत्तरित ही रहेगा। गला फाड़कर पारदर्शिता की बात कहने वाले नेता अपनी पार्टी को कभी पारदर्शी नहीं बनाएंगे। वे ऐसा करें भी क्यों? अब कोई प्रखर समाजसेवी कहेगा भी तोे वे कानून की लाचारी समझा देंगे और कहेंगे, क्या करें, हम तो चाहते हैं कि हमारी पार्टी अपनी आय-व्यय और अन्य बातें सार्वजनिक करे लेकिन कानून ऐसा करने नहीं देता.....अब हम तो कानून मानने वाले हैं, गैर-कानूनी काम तो हम कर नहीं सकते! ऐसा तर्क देने का मौका किसी और ने नहीं दिया; बल्कि दल वाले स्वयं अपनी ‘हिफाजत’ के लिए ऐसा कानून बना रहे हैं। वृहस्पतिवार को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने राजनीतिक दलों को सूचना का अधिकार कानून (आरटीआई) से बाहर कर दिया। अब सम्बन्धित विधेयक संसद के मॉनसून सत्र में लाया जाएगा। यकीन मानिये कि बिना हिल-हुज्जत के यह पारित भी हो जाएगा। जिस विधेयक से सीधा जनता को लाभ हो, वह भले ही विरोध या शोरगुल की भेंट चढ़ जाए मगर जिससे नेताओं को फायदा हो, वह तुरन्त पारित हो जाता है। यह भारतीय जनतन्त्र का व्यावहारिक सच है।

    दरअसल, देश के सभी राजनीतिक दल अब आरटीआई से बाहर रहेंगे। केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने वृहस्पतिवार को एक महत्त्वपूर्ण फैसला लेते हुए आरटीआई में संशोधन विधेयक को मंजूरी दे दी है। अब सरकार को संसद के मॉनसून सत्र में इस विधेयक को पेश करना होगा। प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की बैटक हुई। उस दौरान आरटीआई संशोधन विधेयक को हरी झण्डी दिखायी गयी। असल में सरकार इस विधेयक के जरिये सार्वजनिक इकाइयों की परिभाषा बदलना चाहती है; ताकि सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे से बाहर रखा जा सके। यों तो सरकार ने आरटीआई को जनता के हाथ में ताकत देने का सबसे बड़ा हथियार बताया था लेकिन खुद इसके दायरे से बाहर रहने में जुटी है। सरकार इस मुद्दे पर पहले ही सभी दलों की राय ले चुकी है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने इस प्रस्ताव पर संसद में सरकार को समर्थन देने का वचन दिया है। वास्तव में जब स्वार्थ साधना हो तब दुश्मन को भी दोस्त बना लेना चाहिये। भाजपा ने ऐसा ही किया। विदित हो कि आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चन्द्र अग्रवाल और अनिल बैरवाल ने केन्द्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) के समक्ष अलग-अलग शिकायतें दर्ज कराकर राजनीतिक दलों को आरटीआई के तहत लाने की माँग की थी। इस मामले पर सुनवाई के दौरान 3 जून को सीआईसी ने कहा था कि 6 राष्ट्रीय दलों को केन्द्र सरकार की ओर से परोक्ष रूप से आर्थिक मदद मिलती है। ये 6 दल हैं- काँग्रेस, भाजपा, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी। मुख्य सूचना आयुक्त ने यह भी कहा था कि पार्टियों को जन सूचना अधिकारियों की नियुक्ति करनी चाहिये; क्योंकि आरटीआई के तहत उनका स्वरूप सार्वजनिक इकाई का है। सीआईसी ने पार्टियों को जन सूचना अधिकारी और अपीलीय अधिकारी की नियुक्ति के लिए 6 सप्ताह का समय दिया था। हालाँकि इस दौरान केवल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ही एकमात्र ऐसी पार्टी रही जिसने आरटीआई के जरिये माँगी गयी सूचना आवेदक को मुहैया करायी।

    इस संदर्भ में सरकारी राग भी सुन लेते हैं। केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने स्पष्ट किया कि राजनीतिक दल निर्वाचन आयोग के प्रति जवाबदेह हैं और आय का ब्योरा आयोग को दिया जाता है। 20 हजार रुपये से अधिक के चन्दे का आँकड़ा आयकर विभाग को दिया जाता है। अब प्रश्न उठता है कि जो बातें निर्वाचन आयोग व आयकर विभाग को बतायी जाती है, वही बातें जनता को बताने से पार्टियाँ क्यों घबरा रही हैं? जिसे जनता चुनकर भेजती है वह अपने बारे में जनता को नहीं बताएगा। यह कैसा जनप्रतिनिधित्व? जनता कराहती रहेगी और उसके प्रतिनिधि पर्दे के पीछे मलाई काटते रहेंगे। बकौल सिब्बल वे (दलीय नेता) नियुक्त नहीं होते, उन्हें जनता चुनती है, इसलिये उन पर आरटीआई लागू नहीं होगा। यानी नेताओं ने अपने को कानून से ऊपर की चीज बना लिया है। इसका असर 2014 के लोकसभा आम चुनाव में हो या न हो मगर दूरगामी प्रभाव तो अवश्य पड़ेगा, बस इन्तजार कीजिये। इस दौरान अन्ना हजारे की सहयोगी अरुणा राय ने शनिवार को जयपुर में इस सरकारी निर्णय को निन्दनीय बताया। वह कहती हैं कि राजनीतिक दल भले ही अपनी विचारधारा छिपाएँ मगर आय-व्यय को जनता के सामने रखना ही चाहिये। इस बीच 5 अगस्त को विरोध प्रदर्शन का निर्णय समाजसेवी निखिल डे ने लिया है। बाद में दिल्ली में खुले मंच पर इसका विरोध किया जाएगा। सच है कि जनता अब जाग गयी है। यही सच नेताओं के गले नहीं उतर रहा है।

गुरुवार, 1 अगस्त 2013

दुर्गा शक्ति से घबरायी अखिलेश की सरकार


शीतांशु कुमार सहाय
याद है मुझे अब भी कि विद्यालय में शिक्षक ने पढ़ाया था- ईमानदारी सर्वोत्तम नीति है यानी ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी। पढ़ाते समय शिक्षक महोदय ने यह भी कहा था कि इस उक्ति पर अमल करने से ही जीवन सफल होगा। पर, अब व्यावहारिक जीवन में वह उक्ति सफल होती नहीं दीख रही है। ‘डिजऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी’ ही हर जगह सफल दीख रहा है, खासकर भारतीय लोकतन्त्र में। ईमानदारों को तन्त्र और समाज दोनों से दग्ध व पीड़ित होना पड़ रहा है। कुछ ऐसा ही हुआ है उत्तर प्रदेश कैडर की भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी (भाप्रसेअ) दुर्गा शक्ति नागपाल के साथ। वर्ष 2010 बैच की भाप्रसेअ दुर्गा को उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री अखिलेश यादव ने 27 जुलाई को निलम्बित कर लखनऊ स्थित राजस्व बोर्ड में भेज दिया है। उनपर आरोप लगाया गया है कि सरकारी भूमि पर बन रही मस्जिद की दीवार को तोड़ने का उन्होंने आदेश दिया था। यह तो हुआ सरकारी पक्ष पर वास्तविकता इससे अलग है। वास्तव में खनन माफियाओं पर दुर्गा ने कार्रवाई की थी। उन माफियाओं की राजनीतिक पहुँच की ही यह परिणति है।

दुर्गा शक्ति की घटना ने अशोक खेमका की याद दिला दी। 1991 बैच के हरियाणा कैडर के भाप्रसेअ खेमका को 22 साल की नौकरी में 44 तबादलों का दंश झेलना पड़ा। उनके 19 तबादलों का आदेश हरियाणा के मुख्य मंत्री भूपिन्दर सिंह हुड्डा ने दिया। इन दोनों ने विश्व कीर्तिमान बनाया है। खेमका के नाम सर्वाधिक तबादले का कीर्तिमान है तो हुड्डा के नाम एक ही अधिकारी को सर्वाधिक तबादले का आदेश देने का। खेमका ने इसी वर्ष अप्रील में जब काँग्रेस प्रमुख सोनिया गाँधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा व रियल एस्टेट कम्पनी डीएलएफ के बीच के करोड़ों रुपयों के घोटाले को उजागर किया व जमीन के निबन्धन को रद्द कर दिया तो हुड्डा की काँग्रेसी सरकार ने अगले ही दिन उनका तबादला कर दिया गया। ईमानदार खेमका जहाँ भी गये, अनियमितता को उजागर किया और पुरस्कारस्वरूप तबादले का आदेश मिलता रहा। कुछ विभागों से तो 4-5 दिनों में ही उन्हें हटा दिया गया। इसी नक्श-ए-कदम पर दुर्गा भी चलीं और निलम्बन का पुरस्कार पायीं। इस निलम्बन को अखिलेश ने जायज ठहराया। पर, दुर्गा पर लगाया उनका आरोप तब निराधार लगा जब गौतम बुद्ध नगर के जिलाधिकारी की रपट आयी कि जिले के ग्रेटर नोएडा के रबुपुरा क्षेत्र के कांदलपुर गाँव की निर्माणाधीन मस्जिद की दीवार ग्रामीणों ने स्वयं तोड़कर सरकारी भूमि खाली कर दी। रिपोर्ट में कहा गया है कि भवन का निर्माण आरम्भ ही नहीं हुआ, ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता कि वह धार्मिक स्थल है या नहीं। जिला पुलिस भी दंगा भड़कने की किसी सम्भावना से इनकार करती है। स्थानीय लोग भी कहते हैं कि निर्माण में गाँव के सभी धर्मों के लोग शामिल थे इसलिये साम्प्रदायिकता भड़कने का सवाल ही नहीं उठता। फिर सरकार किस साम्प्रदायिकता की बात कर रही है? सच्चाई कुछ और ही है। हाल के दिनों में नोएडा में यमुना और हिण्डन नदियों के तटवर्ती क्षे़त्रों में चल रहे अवैध बालू खनन के विरुद्ध नोएडा की उपजिलाधिकारी के रूप में दुर्गा ने विशेष अभियान छेड़ा था। 2 दर्जन प्राथमिकियाँ दर्ज करवाई थीं तो खनन माफिया बौखला गये। विरोधी दलों की बात मानें तो इन माफियाओं के तार सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी से जुड़े हैं। लिहाजा बहाना बनाकर दुर्गा को वहाँ से हटा दिया गया। माफियाओं के पक्ष में अखिलेश सरकार के मंत्री आजम खान ने कहा- राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट। जाहिर है कि जब लूट को तन्त्र का ही सहयोग मिल रहा है तो इस लूट से कंगाल हो रही जनता को कौन बचाएगा?

इस बीच भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी संघ को केन्द्रीय कार्मिक राज्य मंत्री वी नारायणसामी ने न्याय का वचन दिया है। 4737 सदस्यों वाले इस संघ ने दुर्गा के निलम्बन वापसी की माँग की है। वैसे मामला अब जनहित याचिका के माध्यम से इलाहाबाद उच्च न्यायालय में पहुँच गया है। देखना दिलचस्प होगा कि न्यायालय का क्या फैसला आता है? वैसे एक बात तो सच ही है कि राजनेताओं को सच्चे अधिकारियों से डर लगता है। लिहाजा अशोक खेमका, मनोज नाथ, राहुल शर्मा, अमिताभ ठाकुर और दुर्गा शक्ति नागपाल जैसे भाप्रसे अधिकारियों को बार-बार तबादला या निलम्बित होना पड़ता है। इस संदर्भ में सरकार की तरफ से ‘गलत’ कार्य करने वाले अधिकारियों पर कार्रवाई की बात की जाती है पर जब नियम के विरुद्ध राजनेता की ओर से तबादला या निलम्बन किया जाता है तो उनपर कार्रवाई क्यों नहीं की जाती? दुर्गा प्रकरण में भी नियम के खिलाफ ही कार्रवाई की गयी है।  

सोमवार, 29 जुलाई 2013

100 करोड़ का सांसद


    शीतांशु कुमार सहाय
याद होगा सुधी पाठकों को कि कुछ दिनों पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त ने कहा था कि राजनीतिक दल भी सूचना का अधिकार कानून के दायरे में आते हैं। लिहाजा उन्हें अपनी आय व व्यय के अलावा अन्य जानकारी माँगने पर उपलब्ध करवानी चाहिये। इतना सुनते ही काँग्रेस बौखला गयी। उसने अपने को सूचना का अधिकार कानून के बाहर रहने की घोषणा कर दी। काँग्रेस के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने भी काँग्रेस का साथ दिया और कहा था कि ऐसा करने से कई व्यावहारिक अड़चनें उत्पन्न होंगी। इस संदर्भ में पक्ष व विपक्ष के सभी दलों के सुर एक हो गये, कट्टर विरोधी भारतीय जनता पार्टी भी इस मामले में काँग्रेसी पाले में नजर आयी। दलों की ऐसी ‘एकता’ का राज केवल यही है कि उनकी अवैध कमाई को जनता जान जाएगी, चन्दे की मोटी आय सार्वजनिक हो जाएगी। लोग यह भी जान जाएंगे कि चुनाव के दौरान किस कम्पनी ने भविष्य में ‘लाभ’ लेने के लिए और किस नेता ने चुनावी टिकट के एवज में कितनी मोटी राशि दल के कोष में जमा करायी है। वैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक वर्ग यह कहता आ रहा है कि विभिन्न दलों द्वारा विधायक व सांसद का चुनावी टिकट मनमाने दाम पर बेचा जाता है। इसी बात को और पुष्ट किया है राज्य सभा के काँग्रेसी सांसद चौधरी वीरेन्द्र सिंह ने। बकौल चौधरी राज्य सभा की सीटें 100 करोड़ रुपये में बिकती हैं। यह है भारतीय लोकतन्त्र का एक और सच, कड़वा सच जिसकी घँूट से जनता का हाजमा बिगड़ता है मगर नेताओं के गालों की लाली बढ़ती है।
    चहुंओर से भ्रष्टाचार में घिरी काँग्रेस व उसके नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार चौधरी वीरेन्द्र सिंह के बयान से और पसोपेश में पड़ गयी है। अभी केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल व योजना आयोग के बीच गरीबी वाला विवाद शान्त भी नहीं पड़ा कि उसे अपने बयान बहादुरों को चौधरी के बयान पर सफाई देने के लिए लगाना पड़ा है। बयान बहादुरों के बीच सफाई देने स्वयं चौधरी भी सामने आए और कहा कि उनके बयान को गलत तरीके से पेश किया गया। पर, बयानों से पलटने वाले वरिष्ठ नेताओं को हमेशा अपने जमाने के प्रिण्ट मीडिया वाला ही जमाना याद रहता है जिस वक्त ‘तोड़-मरोड़कर छापा गया’ कहकर बयान से पलटना आसान था। पर, अब त्वरित इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का जमाना है जिसमें कैमरा सच को ही दिखाता है। शायद कैमरे की इस सच्चाई को भूल जाते हैं बयानबाज नेता। पर, लोकतान्त्रिक शर्म को ताक पर रखकर निर्लज्जतापूर्वक कैमरे की सच्चाई को भी नकारने से बाज नहीं आते कथित वरिष्ठ नेता। ऐसा ही किया है हरियाणा के चर्चित काँग्रेसी नेता चौधरी वीरेन्द्र ने। वास्तव में उनके बयान को मीडिया ने बिना छेड़छाड़ किये ही छापा और दिखाया। उन्होंने समझाकर कहा कि राज्य सभा के एक सांसद ने उन्हें बताया कि उनके राज्य सभा में सांसद बनने का बजट 100 करोड़ रुपयों का था पर काम 80 करोड़ रुपये में ही हो गया और 20 करोड़ रुपये की ‘बचत’ हो गयी। चौधरी के शब्दों में और तल्खी आयी और उन्होंने अपने गृह राज्य हरियाणा के यमुना नगर में पत्रकारों को समझाया कि जो 100 करोड़ में सांसद की सीट खरीदेगा, क्या वह गरीबों का भला सोचेगा! अपनी पार्टी पर भी भड़ास निकालते हुए उनकी जुबान ने कहा कि प्रदेश काँग्रेस में वे पहले पायदान पर हैं पर पार्टी में पायदान से नहीं, ‘अन्य दानों’ से कुर्सी मिलती है। क्या इतने शब्दों को मीडिया ने गढ़ा? क्या कैमरे में रिकॉर्ड उनके शब्द गलत हैं? आखिर किस तकनीक से यह सम्भव हो सका कि उन्होंने कहा कुछ और कैमरे ने रिकॉर्ड किया कुछ और? ये ऐसे प्रश्न हैं जिनके उत्तर न चौधरी दे सकते हैं, न उनकी पार्टी काँग्रेस और न ही पार्टी के बयान बहादुर। वैसे वे बंसल के बाद रेल मंत्री बनने वाले थे और राष्ट्रपति की चिट्ठी भी आ गयी थी, वे ‘गोल’ करने वाले ही थे कि ‘रेफरी’ ने सीटी बजा दी और पत्ता साफ हो गया। ऐसे में जज्बात की पटरी पर उनकी जुबान की रेल ऐसी चली कि पंजे वाली पार्टी का हलक सूख गया। पर, इस बार भी जरूर उसी रेफरी ने सीटी बजायी होगी तभी तो अपनी प्रतिष्ठा को दाँव पर लगाकर बयान से पलटना पड़ा। नहीं पलटते तो 100 करोड़ रुपये की सांसदी जाती। इस महंगाई में भी एक अरब रुपये का मोल तो है ही!  
    इस बीच भाजपा ने चुटकी लेते हुए इसे काँग्रेस की संस्कृति बतायी। सूचना का अधिकार के तहत न आने पर अड़ी और इस बाबत काँग्रेस के साथ दीखने वाली भाजपा चौधरी के बयान पर मिशन 2014 को ध्यान में रखकर ही काँग्रेस का विरोध कर रही है। इस संदर्भ में एक अन्य गंभीर प्रश्न उभरता है कि मनमोहन सरकार में मात्र सांसद बनने की लागत एक अरब रुपये है तो मंत्री बनने की कीमत क्या होगी?

रविवार, 28 जुलाई 2013

तेलंगाना के गठन से घटेंगी नहीं, बढ़ेंगी समस्याएँ


शीतांशु कुमार सहाय
 छोटे राज्यों के गठन से समस्याएँ बढ़ती हैं या घटती हैं? तेलंगाना प्रकरण के बहाने यह टटोलने का अवसर एक बार फिर से आया है। आखिर राज्यों को भौगोलिक रूप से नन्हा बनाने का कारण क्या हो सकता है? इस पर समर्थक राजनीतिज्ञों का एकमात्र कथन यही है कि इससे विकास अधिक होगा। जनसमस्याओं के निराकरण तेजी से होंगे। छोटा राज्य होने से विधि-व्यवस्था की कठिनाइयाँ उत्पन्न नहीं होंगी। जनता के प्रति जनप्रतिनिधि अपेक्षाकृत अधिक उत्तरदायी हो पाएंगे। इन तर्कांे के अलावा भी ढेर सारे तर्क समर्थन में दिये जाते हैं। किसी बड़े राज्य के विखण्डन के समय भोली-भाली जनता को अपने पक्ष में करने के लिए संभावित नये राज्य का नाम लेकर यह प्रचारित किया जाता है कि अब उसका कायापलट हो जाएगा, विकास की रफ्तार बुलेट ट्रेन को मात दे देगी। पर, सच्चाई की कसौटी पर जब ये तर्क सही नहीं ठहरते तब माहौल के मद्देनजर दूसरा तर्क खोज लेते हैं राजनीति के खिलाड़ी और लगातार चलता रहता है उनका पंचवर्षीय लोकतान्त्रिक-तानाशाह।

दरअसल, जब देश स्वतन्त्र हुआ तब प्रशासनिक सुदृढ़ता के लिए राज्यों का पुनर्गठन करना आवश्यक था। इसके लिए 22 दिसम्बर 1953 को न्यायाधीश फजल अली की अध्यक्षता में पहले राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ जिसने 30 सितम्बर 1955 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। वैसे राज्य पुनर्गठन आयोगों का इतिहास 110 वर्ष पुराना है। सबसे पहले सन् 1903 ईश्वी में तत्कालीन ब्रिटिश भारत सरकार के गृह सचिव हर्बर्ट रिसले की अध्यक्षता में राज्य पुनर्गठन समिति गठित की गयी थी। इस समिति ने भाषाई आधार पर बंगाल के विभाजन की सिफारिश की थी जिसके चलते 1905 में बंगाल का विभाजन हुआ था। इसके बाद 1911 में लार्ड हार्डिंग की अध्यक्षता में एक आयोग बना जिसने बंगाल विभाजन को खत्म करने का सुझाव दिया। 1918 में मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड समिति की रपट आयी जिसने विधिवत् आयोग की तरह कार्य नहीं किया लेकिन प्रशासनिक सुधारों के बहाने छोटे राज्यों के गठन का सुझाव दिया था। उसने भाषाई व जातीय आधार पर राज्य गठन को नामंजूर कर दिया था। फिर करीब 10 वर्षों बाद मोती लाल नेहरू की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गयी जिसे काँग्रेस का समर्थन था। उस समिति ने भाषा, जनेच्छा, जनसंख्या, भौगोलिक और वित्तीय स्थिति को राज्य के गठन का आधार माना। 1947 में स्वतन्त्रता मिलते ही भारत के सामने 562 देसी रियासतों के एकीकरण व पुनर्गठन की समस्या थी। इसे ध्यान में रखते हुए उसी वर्ष पहले एसके दर आयोग का गठन किया गया फिर जेवीपी (जवाहर लाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल, पट्टाभिसीतारमैया) आयोग का गठन किया गया। दर आयोग ने भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का विरोध किया था। उसका मुख्य जोर प्रशासनिक सुविधाओं को आधार बनाने पर था। हालाँकि तत्कालीन जनाकांक्षाओं को देखते हुए तत्काल जेवीपी आयोग बना जिसने प्रभावित जनता की आपसी सहमति, आर्थिक और प्रशासनिक व्यवहार्यता पर जोर देते हुए भाषाई राज्यों के गठन का सुझाव दिया। पर, सरकार में आने पर जवाहर लाल के सुर बदल गये और वे भाषाई आधार पर राज्य गठन का विरोध करने लगे। सामाजिक कार्यकर्ता पोट्टी श्रीरामालू की मद्रास से आंध्र प्रदेश को अलग किये जाने की माँग को लेकर 58 दिन के आमरण अनशन के बाद मौत हो गयी पर अपने हठ पर जवाहर लाल डटे रहे। तब संयुक्त मद्रास में साम्यवादी दलों के बढ़ते वर्चस्व ने उन्हें अलग तेलुगू भाषी राज्य बनाने पर मजबूर कर दिया था। अब आंध्र प्रदेश से ही पृथक तेलंगाना बनाने की प्रक्रिया बतौर काँग्रेस अन्तिम चरण में है।

तेलंगाना के गठन के बाबत भी वही पुरानी बात दुहराई जा रही है कि अब विकास तीव्र होगा। पर, हश्र सामने है कि असम को विभाजित कर छोटे-छोटे राज्य बने मगर विकास कम और हªास अधिक हुआ। पूर्वोत्तर के तमाम राज्य अब भी विकास में पिछड़े हैं और विधि-व्यवस्था इतनी लचर है कि वहाँ आतंकवाद और बांग्ला देशी घुसपैठ की समस्या चरम पर है। पहले अवतरण में वर्णित तर्कों के आधार पर ही सन् 2000 के नवम्बर में भारतीय जनता पार्टी की केन्द्र सरकार ने उत्तर प्रदेश से उत्तरांचल, मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ और बिहार से पृथक झारखण्ड राज्य बनाया। केन्द्र में काँग्रेस की सरकार बनने के बाद उसने उत्तरांचल का नाम बदलकर उत्तराखण्ड कर दिया जिस पर करोड़ों रुपये बेकार ही खर्च हुए। इस विखण्डन का नतीजा सामने है कि कुछ पूर्व मुख्य मंत्रियों और मंत्रियों की सुविधाभोगी संख्या अवश्य बढ़ी मगर विकास की रफ्तार जापान की बुलेट ट्रेन को नहीं ही पछाड़ पायी, अलबत्ता भारतीय रेल की सवारी गाड़ी की गति को भी छू नहीं सकी। .... तो फिर बनने दीजिए तेलंगाना को भी और रहिए तैयार उसका परिणाम देखने के लिए!

शनिवार, 27 जुलाई 2013

लालू ने पगला बाबा के जोड़े हाथ, मिली गाली


मिर्जापुर| बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव शुक्रवार 26 जुलाई 2013 को विंध्यधाम क्षेत्र में पहुंचने के बाद मंदिर बाद में पहले बाबाओं के आश्रम में गए। घमहापुर स्थित विभूति नारायण उर्फ पगला बाबा और महुवारी कला स्थित देवराहा हंस बाबा के आश्रम में उन्होंने पांच घंटे से भी अधिक समय गुजारा। आश्रम में आशीर्वाद लेने के बाद उन्होंने रात में मां विंध्यवासिनी देवी का दर्शन-पूजन किया। शुक्रवार शाम करीब चार बजे लालू अपने लाव-लश्कर के साथ सबसे पहले विभूति नारायण बाबा के आश्रम में पहुंचे। यहां पर बाबा ने अपने चिरपरिचित अंदाज में उन्हें खूब गाली दी, जिसे बाबा का आशीर्वाद समझ लालू मुस्कराते रहे। फिर बाबा ने आश्रम में स्थित शिवलिंग की पूजा लालू से कराई। विभूति नारायण बाबा के आश्रम से होते हुए लालू महुवारी कला स्थित देवराहा हंस बाबा के आश्रम में पहुंचे। यहां पर भी उन्होंने बाबा का आशीर्वाद लिया।(Amar Ujala)

रविवार, 21 जुलाई 2013

गुरु पूर्णिमा : अन्तःकरण के अंधकार को दूर करते हैं गुरु Guru Poornima



गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवोमहेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरुवे नमः ।।
      गुरु अन्तःकरण के अंधकार को दूर करते हैं। आत्मज्ञान की युक्तियाँ बताते हैं। गुरु प्रत्येक शिष्य के अंतःकरण में निवास करते हैं। वे जगमगाती ज्योति के समान हैं जो शिष्य की बुझी हुई हृदय-ज्योति को प्रकट करते हैं। 
      'गु' का अर्थ है- अंधकार या मूल अज्ञान और 'रु' का अर्थ है- उस का निरोधक। गुरु अज्ञान-तिमिर का ज्ञानाञ्जन-शलाका से निवारण कर देते हैं। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जानेवाले को 'गुरु' कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता है। जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है, वैसी ही गुरु के लिए भी। गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। आज विश्वस्तर पर जितनी भी समस्याएँ दिखायी दे रही हैं, उन का मूल कारण है गुरु-शिष्य परम्परा का टूटना।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥
(शीमद्भगवद्गीता ४ / ३४)
      गुरु की महत्ता को समझाते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया-- ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ। उन को भली-भाँति दण्डवत्-प्रणाम करने से, उन की सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म-तत्त्व को भली-भाँति जाननेवाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे। 
      गुरु पूर्णिमा का यह दिन 'महाभारत' के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। उन के पिता महर्षि पराशर तथा माता सत्यवती हैं। कृष्ण द्वैपायन व्यास संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे और उन्होंने भगवान द्वारा प्रदत्त ज्ञान को पहली बार संकलित कर पुस्तक का स्वरूप प्रदान किया। इस ज्ञान को 'वेद' की पवित्र संज्ञा दी गयी। चारों वेदों की भी रचना करने के कारण उन का एक नाम 'वेद व्यास' भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उन के सम्मान में गुरु पूर्णिमा को 'व्यास पूर्णिमा' नाम से भी जाना जाता है। ‘व्यास’ का शाब्दिक अर्थ है सम्पादक। वेदों का व्यास यानी विभाजन भी सम्पादन की श्रेणी में आता है। कथावाचक शब्द भी व्यास का पर्याय है। कथावाचन भी देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप पौराणिक कथाओं का विश्लेषण भी सम्पादन है। भगवान वेदव्यास ने वेदों का संकलन किया, १०८ उपनिषदों, १८ पुराणों और उपपुराणों आदि ग्रन्थों की रचना की। ऋषियों के बिखरे अनुभवों को जनसामान्य के योग्य  बनाकर व्यवस्थित किया। उन्होंने ‘महाभारत’ की रचना इसी पूर्णिमा के दिन पूर्ण की और विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रंथ 'ब्रह्मसूत्र' का लेखन इसी दिन आरंभ किया। देवताओं ने वेदव्यासजी का पूजन आषाढ़ पूर्णिमा को किया और तभी से 'व्यास पूर्णिमा' अर्थात् 'गुरु पूर्णिमा' मनायी जा रही है।
      द्वापर युग के अंतिम भाग में वेदव्यासजी प्रकट हुए थे। उन्होंने अपनी सर्वज्ञ दृष्टि से समझ लिया कि कलियुग में मनुष्यों की शारीरिक शक्ति और बुद्धि शक्ति बहुत घट जाएगी। इसलिए कलियुग के मनुष्यों को सभी वेदों का अध्ययन करना और उनको समझ लेना संभव नहीं रहेगा। व्यासजी ने यह जानकर वेदों के चार विभाग कर दिए। जो लोग वेदों को पढ़, समझ नहीं सकते, उनके लिए महाभारत की रचना की। महाभारत में वेदों का सभी ज्ञान आ गया है। धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, उपासना और ज्ञान-विज्ञान की सभी बातें महाभारत में बड़े सरल ढंग से समझाई गई हैं। इसके अतिरिक्त पुराणों की अधिकांश कथाओं द्वारा हमारे देश, समाज तथा धर्म का पूरा इतिहास महाभारत में आया है। महाभारत की कथाएं बड़ी रोचक और उपदेशप्रद हैं। धार्मिक ग्रंथों में महर्षि वेदव्यास द्वारा लिखित 'शिव-पुराण' को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। इस ग्रंथ में भगवान शिव की भक्ति महिमा का उल्लेख है। इसमें शिव के अवतार आदि विस्तार से लिखे गए हैं। 'वेद' और 'उपनिषद' सहित 'विज्ञान भैरव तंत्र', 'शिव पुराण' और 'शिव संहिता' में शिव की संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है। सब प्रकार की रुचि रखने वाले लोग भगवान की उपासना में लगें और इस प्रकार सभी मनुष्यों का कल्याण हो। इसी भाव से व्यासजी ने अठारह पुराणों की रचना की। इन पुराणों में भगवान के सुंदर चरित्र व्यक्त किए गए हैं। भगवान के भक्त, धर्मात्मा लोगों की कथाएं पुराणों में सम्मिलित हैं। इसके साथ-साथ व्रत-उपवास को की विधि, तीर्थों का माहात्म्य आदि लाभदायक उपदेशों से पुराण परिपूर्ण है।
      भारत में गुरु पूर्णिमा पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है। आषाढ़ की पूर्णिमा को ही 'गुरु पूर्णिमा' कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। वैसे तो देश भर में एक से बड़े एक अनेक विद्वान हुए हैं, परंतु उनमें महर्षि वेद व्यास, जो चारों वेदों के प्रथम व्याख्याता थे, उनका पूजन आज के दिन किया जाता है।
      इस दिन से लगभग चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।
      प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करता था, तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु का पूजन करके उन्हें अपनी शक्ति, अपने सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर कृतकृत्य होता था।      
      हमें वेदों का ज्ञान देनेवाले व्यासजी ही हैं, अतः वे हमारे आदिगुरु हुए। इसीलिए इस दिन को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है। उनकी स्मृति हमारे मन मंदिर में हमेशा ताजा बनाए रखने के लिए हमें इस दिन अपने गुरुओं को व्यासजी का अंश मानकर उनकी पाद-पूजा करनी चाहिए तथा अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए गुरु का आशीर्वाद जरूर ग्रहण करना चाहिए। साथ ही केवल अपने गुरु-शिक्षक का ही नहीं, अपितु माता-पिता, बड़े भाई-बहन आदि की भी पूजा का विधान है।
      गुरु पूर्णिमा के दिन खासकर करें : -
* प्रातः घर की सफाई, स्नानादि नित्य कर्म से निवृत्त होकर साफ-सुथरे वस्त्र धारण करके तैयार हो जाएं।
* घर के किसी पवित्र स्थान पर पटिए पर सफेद वस्त्र बिछाकर उस पर १२-१२ रेखाएँ बनाकर व्यास-पीठ बनाना चाहिए।
* फिर हमें 'गुरुपरम्परासिद्धयर्थं व्यासपूजां करिष्ये' मंत्र से पूजा का संकल्प लेना चाहिए।
* तत्पश्चात् दसों दिशाओं में अक्षत छोड़ना चाहिए।
* फिर व्यासजी, ब्रह्माजी, शुकदेवजी, गोविंद स्वामीजी और शंकराचार्यजी के नाम, मंत्र से पूजा का आवाहन करना चाहिए।
* अब अपने गुरु अथवा उन के चित्र की पूजा करके उन्हें यथायोग्य दक्षिणा देना चाहिए।
* गुरु पूर्णिमा पर व्यासजी द्वारा रचे हुए ग्रंथों का अध्ययन-मनन करके उनके उपदेशों पर आचरण करना चाहिए।
* यह पर्व श्रद्धा से मनाना चाहिए, अंधविश्वास के आधार पर नहीं।
* इस दिन वस्त्र, फल, फूल व माला अर्पण कर गुरु को प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए।
* गुरु का आशीर्वाद सभी-छोटे-बड़े तथा हर विद्यार्थी के लिए कल्याणकारी तथा ज्ञानवर्द्धक होता है।
* इस दिन केवल गुरु (शिक्षक) ही नहीं, अपितु माता-पिता, बड़े भाई-बहन आदि की भी पूजा का विधान है।
      अन्त में कबीर की वाणी का उल्लेख करता हूँ......
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान॥
      गुरु के श्रीचरणों में नमन!

गुरु की कृपा का दिन गुरु पूर्णिमा

 गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः।
गुरूः साक्षात्परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः ।।
गुरु अंतःकरण के अंधकार को दूर करते हैं। आत्मज्ञान के युक्तियाँ बताते हैं। गुरु प्रत्येक शिष्य के अंतःकरण में निवास करते हैं। वे जगमगाती ज्योति के समान हैं जो शिष्य की बुझी हुई हृदय-ज्योति को प्रकट
करते हैं। 'गु' का अर्थ है- अंधकार या मूल अज्ञान और 'रु' का अर्थ है- उसका निरोधक। गुरु अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता है। जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है, वैसी ही गुरु के लिए भी। गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। आज विश्वस्तर पर जितनी भी समस्याएं दिखाई दे रही हैं, उनका मूल कारण है गुरु-शिष्य परंपरा का टूटना।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥
(गीताः ४ / ३४)('उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत्-प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म-तत्व को भलीभाँति जाननेवाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।') यह दिन
'महाभारत' के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। उनके पिता महर्षि पराशर तथा माता सत्यवती है। कृष्ण द्वैपायन व्यास संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। व्यासका शाब्दिक संपादक है। वेदों का व्यास यानी विभाजन भी संपादन की श्रेणी में आता है। कथावाचक शब्द भी व्यास का पर्याय है। कथावाचन भी देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप पौराणिक कथाओं का विश्लेषण भी संपादन है। भगवान वेदव्यास ने वेदों का संकलन किया, 18 पुराणों और उपपुराणों की रचना की। ऋषियों के बिखरे अनुभवों को समाजभोग्य बना कर व्यवस्थित किया। महाभारतकी रचना इसी पूर्णिमा के दिन पूर्ण की और विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रंथ 'ब्रह्मसूत्र' का लेखन इसी दिन आरंभ किया। तब देवताओं ने वेदव्यासजी का पूजन किया और तभी से 'व्यास पूर्णिमा' अर्थात 'गुरु पूर्णिमा' मनायी जा रही है।
द्वापर युग के अंतिम भाग में वेदव्यासजी प्रकट हुए थे। उन्होंने अपनी सर्वज्ञ दृष्टि से समझ लिया कि कलियुग में मनुष्यों की शारीरिक शक्ति और बुद्धि शक्ति बहुत घट जाएगी। इसलिए कलियुग के मनुष्यों को सभी वेदों का अध्ययन करना और उनको समझ लेना संभव नहीं रहेगा। व्यासजी ने यह जानकर वेदों के चार विभाग कर दिए। जो लोग वेदों को पढ़, समझ नहीं सकते, उनके लिए महाभारत की रचना की। महाभारत में वेदों का सभी ज्ञान आ गया है। धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, उपासना और ज्ञान-विज्ञान की सभी बातें महाभारत में बड़े सरल ढंग से समझाई गई हैं। इसके अतिरिक्त पुराणों की अधिकांश कथाओं द्वारा हमारे देश, समाज तथा धर्म का पूरा इतिहास महाभारत में आया है। महाभारत की कथाएं बड़ी रोचक और उपदेशप्रद हैं। धार्मिक ग्रंथों में महर्षि वेदव्यास द्वारा लिखित
'शिव-पुराण' को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। इस ग्रंथ में भगवान शिव की भक्ति महिमा का उल्लेख है। इसमें शिव के अवतार आदि विस्तार से लिखे गए हैं। 'वेद' और 'उपनिषद' सहित 'विज्ञान भैरव तंत्र', 'शिव पुराण' और 'शिव संहिता' में शिव की संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है। सब प्रकार की रुचि रखने वाले लोग भगवान की उपासना में लगें और इस प्रकार सभी मनुष्यों का कल्याण हो। इसी भाव से व्यासजी ने अठारह पुराणों की रचना की। इन पुराणों में भगवान के सुंदर चरित्र व्यक्त किए गए हैं। भगवान के भक्त, धर्मात्मा लोगों की कथाएं पुराणों में सम्मिलित हैं। इसके साथ-साथ व्रत-उपवास को की विधि, तीर्थों का माहात्म्य आदि लाभदायक उपदेशों से पुराण परिपूर्ण है।
भारत में गुरु पूर्णिमा पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है। आषाढ़ की पूर्णिमा को ही 'गुरु पूर्णिमा' कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। वैसे तो देश भर में एक से बड़े एक अनेक विद्वान हुए हैं, परंतु उनमें महर्षि वेद व्यास, जो चारों वेदों के प्रथम व्याख्याता थे, उनका पूजन आज के दिन किया जाता है।
इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।

प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करता था, तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु का पूजन करके उन्हें अपनी शक्ति, अपने सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर कृतकृत्य होता था।

हमें वेदों का ज्ञान देने वाले व्यासजी ही हैं, अतः वे हमारे आदिगुरु हुए। इसीलिए इस दिन को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है। उनकी स्मृति हमारे मन मंदिर में हमेशा ताजा बनाए रखने के लिए हमें इस दिन अपने गुरुओं को व्यासजी का अंश मानकर उनकी पाद-पूजा करनी चाहिए तथा अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए गुरु का आशीर्वाद जरूर ग्रहण करना चाहिए। साथ ही केवल अपने गुरु-शिक्षक का ही नहीं, अपितु माता-पिता, बड़े भाई-बहन आदि की भी पूजा का विधान है।

गुरु पूर्णिमा के दिन खासकर करें : -
* प्रातः घर की सफाई, स्नानादि नित्य कर्म से निवृत्त होकर साफ-सुथरे वस्त्र धारण करके तैयार हो जाएं।
* घर के किसी पवित्र स्थान पर पटिए पर सफेद वस्त्र बिछाकर उस पर 12-12 रेखाएं बनाकर व्यास-पीठ बनाना चाहिए।
* फिर हमें 'गुरुपरंपरासिद्धयर्थं व्यासपूजां करिष्ये' मंत्र से पूजा का संकल्प लेना चाहिए।
* तत्पश्चात दसों दिशाओं में अक्षत छोड़ना चाहिए।
* फिर व्यासजी, ब्रह्माजी, शुकदेवजी, गोविंद स्वामीजी और शंकराचार्यजी के नाम, मंत्र से पूजा का आवाहन करना चाहिए।
* अब अपने गुरु अथवा उनके चित्र की पूजा करके उन्हें यथा योग्य दक्षिणा देना चाहिए।
* गुरु पूर्णिमा पर व्यासजी द्वारा रचे हुए ग्रंथों का अध्ययन-मनन करके उनके उपदेशों पर आचरण करना चाहिए।
* यह पर्व श्रद्धा से मनाना चाहिए, अंधविश्वास के आधार पर नहीं।
* इस दिन वस्त्र, फल, फूल व माला अर्पण कर गुरु को प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए।
* गुरु का आशीर्वाद सभी-छोटे-बड़े तथा हर विद्यार्थी के लिए कल्याणकारी तथा ज्ञानवर्द्धक होता है।
* इस दिन केवल गुरु (शिक्षक) ही नहीं, अपितु माता-पिता, बड़े भाई-बहन आदि की भी पूजा का विधान है।

यह तन विष की बेलरी
, गुरु अमृत की खान।शीश दियो जो गुरु मिले
, तो भी सस्ता जान॥-कबीरदास

गुरुवार, 18 जुलाई 2013

किस्मत चमकाने का खास दिन है 19 जुलाई


हर वर्ष विक्रम संवत् (हिन्दी पंचांग) के अनुसार आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष में एक बहुत ही खास दिन आता है. इस दिन कुछ बातों का ध्यान रख लिया जाए तो व्यक्ति की किस्मत रातोंरात बदल सकती है. इस साल 2013 में यह खास दिन 19 जुलाई, शुक्रवार को आ रहा है. यह बेहद खास योग है और इस योग में किए गए खास उपाय बुरे समय को शुभ समय में बदल सकते हैं. यहां कुछ ऐसी बातें बताई जा रही हैं जो स्त्री और पुरुषों के लिए स्वास्थ्य और किस्मत की दृष्टि से काफी उपयोगी हैं. आगे जानिए 19 जुलाई को कौन सा खास दिन है और इस योग में हमें किन बातों का ध्यान रखना चाहिए...
देवशयन एकादशी के दिन से कार्तिक शुक्ल दशमी तक किसी भी प्रकार के मांगलिक कार्य करना वर्जित किए गए हैं. मांगलिक कार्य जैसे विवाह, गृह प्रवेश, विवाह, मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा, यज्ञ-हवन, किसी भी प्रकार के संस्कार आदि. इन सभी कार्यों में भगवान श्रीहरि की विशेष उपस्थिति अनिवार्य होती है. ऐसे में जब भगवान के शयन का समय होता है तब वे इन कार्यों में उपस्थित नहीं होते हैं. इसी वजह से इन चार माह में मांगलिक कार्य नहीं करना चाहिए.
शास्त्रों के अनुसार इस सृष्टि के पालनहार श्रीहरि यानि भगवान विष्णु हैं और उनकी पूजा से देवी लक्ष्मी के साथ ही सभी देवी-देवताओं की कृपा प्राप्त हो जाती है. क्या आप जानते हैं कि श्रीहरि भी प्रतिवर्ष कुछ निश्चित समय के लिए विश्राम करते हैं, शेषनाग की शय्या पर शयन करते हैं. जी हां, यह सत्य है कि भगवान विष्णु भी आराम करते हैं. ऐसी पौराणिक मान्यता है कि भगवान श्रीहरि चार माह के लिए क्षीरसागर में शयन करते हैं. इस वर्ष श्रीहरि के सोने का समय 19 जुलाई से प्रारंभ हो रहा है. अत: यह दिन बेहद खास और इस दिन कुछ खास उपाय किए जाने चाहिए.

देवशयनी एकादशी के संबंध में शास्त्रों में कई कथाएं बताई गई हैं. यहां जानिए उन्हीं कथाओं में से एक कथा. यह काफी प्रचलित है. कथा के अनुसार जब भगवान विष्णु ने वामन रूप में दैत्यराज बलि से तीन पग धरती मांगी थी. तब राजा बलि ने उन्हें तीन पग जमीन देने का वचन दिया. वामन अवतार ने एक पग में पृथ्वी, दूसरे पग में आकाश और सभी दिशाओं को नाप लिया. तब राजा बलि ने तीसरा पग रखने के लिए स्वयं का शीश आगे कर दिया. इससे श्रीहरि प्रसन्न हो गए. तब उन्होंने राजा से वरदान मांगने को कहा.... राजा बली ने वरदान में श्रीहरि को ही मांग लिया और कहा अब आप मेरे यहां निवास करेंगे. तब महालक्ष्मी ने अपने पति श्रीहरि को बलि के बंधन से मुक्त करवाने के लिए राजा के हाथ पर रक्षासूत्र बांधा और उसे भाई बना लिया. महालक्ष्मी ने राजा को भाई बनाकर निवेदन किया कि वे भगवान विष्णु को उनके वचन से मुक्त करें. राजा बलि ने श्रीहरि को मुक्त कर दिया लेकिन उनसे चार माह तक सुतल लोक में रहने का वचन ले लिया. तभी से भगवान विष्णु के साथ ही ब्रह्मा और शिव भी इस वचन का पालन करते हैं. मान्यताओं के अनुसार विष्णु के बाद महादेव महाशिवरात्रि तक और ब्रह्मा शिवरात्रि से देवशयनी एकादशी तक, चार-चार माह सुतल यानी भूमि के अंदर निवास करते हैं.
बारिश के दिनों में पत्तेदार सब्जियां हमारे स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकती हैं. अत: इन सब्जियों का त्याग करना चाहिए. इन दिनों बारिश की वजह से सूर्य और चंद्रमा दोनों के ही दर्शन नहीं हो पाते हैं. ना ही इनसे मिलने वाली ऊर्जा हम तक पहुंच पाती है. इसी वजह से बारिश के दिनों में हमारी पाचन शक्ति बहुत कम हो जाती है. सूर्य और चंद्र से मिलने वाली ऊर्जा हमारे पाचन तंत्र को मजबूती प्रदान करती है. इसके साथ ही वर्षा के कारण हम अधिक शारीरिक श्रम भी नहीं कर पाते हैं. जिससे भोजन ठीक से पच नहीं पाता है. जो कि स्वास्थ्य के हानिकारक है. इसी वजह से इन दिनों में व्रत-उपवास का काफी महत्व है. ऐसा खाना न खाएं जो आसानी से पचता नहीं है.
देवशयनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु की विधि-विधान से पूजा करनी चाहिए. पूजन के लिए श्रीहरि की प्रतिमा को सुंदर वस्त्रों से सजाएं. गादी एवं तकिए पर श्रीविष्णु की प्रतिमा को शयन करवाएं. इस दिन भक्त व्रत रखना चाहिए. जो भी व्यक्ति इस एकादशी पर व्रत रखता है उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं. महालक्ष्मी की विशेष कृपा प्राप्त होती है. देवशयनी एकादशी से देवउठनी एकादशी तक हमें मधुर स्वर के लिये गुड़, लंबी उम्र एवं संतान प्राप्ति के लिये तेल, शत्रु बाधा से मुक्ति के लिये कड़वे तेल, सौभाग्य के लिये मीठा तेल आदि का त्याग करना चाहिए. इसी प्रकार वंश वृद्धि के लिये दूध का और बुरे कर्म के अशुभ फल से मुक्ति के लिये उपवास करना चाहिए.
एक वर्ष में 24 एकादशियां आती हैं और इन दिनों में उपवास या व्रत रखने की परंपरा है. देवशयनी एकादशी पर व्रत रखा जाता है. व्रत रखने के साथ कुछ और भी नियम हैं जिनका पालन करना चाहिए. वर्तमान में वर्षा ऋतु चल रही है और इस समय में स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां अधिक होती हैं. क्योंकि हम खान-पान में सावधानी नहीं रखते हैं. देवशयनी एकादशी से देवउठनी एकादशी तक चार माह होते हैं. इन चार माह को चातुर्मास कहा जाता है. चातुर्मास में खाने-पीने की कई चीजें स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकती हैं. अत: आगे जानिए इस समय में क्या खाना चाहिए और क्या नहीं खाना चाहिए. (Samay)

शनिवार, 1 जून 2013

हर 8 मिनट पर गुम हो जाता है एक बच्चा


-पिछले 3 साल में 2 लाख 36 हजार 14 बच्चे लापता हुए हैं। इनमें से एक लाख 60 हजार 206 बच्चों की तलाश कर ली गई है, जबकि 75,808 बच्चों का अब भी अता-पता नहीं है

-नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर आठ मिनट पर एक बच्चा गुम हो जाता है, यानी पूरे एक दिन में औसतन 180 बच्चे। ब्यूरो के मुताबिक इनमें से 40% बच्चों का मुंह माता-पिता कभी नहीं देख पाते

खिलौना, गुड़िया, तस्वीरें, किताबें, जूते, फ्रॉक, टोपी, शर्ट, निक्कर..... ये सामान नहीं; बल्कि यादों के खजाने हैं, उन माता-पिता के जिनके बच्चों के नाम पुलिस के गुमशुदा रजिस्टर में दर्ज हैं। इन चीजों के सहारे वे जिंदगी काट रहे हैं। इन्हें देखकर रोते हैं लेकिन एक आस भी भीतर धड़क रही है कि एक दिन बच्चा लौट आएगा। अगर आप माता-पिता हैं तो इसको पढ़ने से पहले शुक्र मनाएं कि आप के जिगर का टुकड़ा आपके पास महफूज है। सुरक्षित रहना भी चाहिए; क्योंकि सुरक्षा उसका जन्मसिद्ध अधिकार है।
आप देश के किसी कोने में रहते हैं, फर्क नहीं पड़ता। अखबार उठाएं और पन्ने के किसी कोने में किसी बच्चे की गुमशुदगी या अपहरण की दुबकी हुई कोई खबर मिल जाएगी। अमेरिका या यूरोप में ऐसा नहीं होता। वहां किसी बच्चे का गायब होने का मतलब होता है राष्ट्रीय हाहाकार। भारत में स्थिति दूसरी है। बच्चे के गायब होने की सूचना पर तुरंत एफआईआर दर्ज कर उसे खोज निकालने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद पुलिसतंत्र मामले को डायलूट करने में जुट जाता है। पहले तो प्राथमिकी दर्ज करने में आना-कानी की जाती है। माता-पिता को समझाया जाता है- रास्ता भटक गया होगा, आ जाएगा। आप खोजो, हम भी तलाश करते हैं। अगर रिपोर्ट दर्ज कर भी ली तो कार्रवाई सिफर। अंत में माता-पिता भी थक-हार कर नियति का खेल मान लेते हैं। इसके बाद परिजनों के लिए घर पर शुरू होता है ट्रामा के न खत्म होने वाला दौर।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर आठ मिनट पर एक बच्चा गुम हो जाता है, यानी पूरे एक दिन में औसतन 180 बच्चे। ब्यूरो के मुताबिक इनमें से 40% बच्चों का मुंह माता-पिता कभी नहीं देख पाते।
हाल में खुद सरकार राज्यसभा में स्वीकार कर चुकी है कि पिछले 3 साल में 2 लाख 36 हजार 14 बच्चे लापता हुए हैं। इनमें से एक लाख 60 हजार 206 बच्चों की तलाश कर ली गई है जबकि 75,808 बच्चों का अब भी अता-पता नहीं है। सरकार के मुताबिक, सबसे अधिक बच्चे पश्चिम बंगाल से गायब हुए हैं। पिछले 3 साल में पश्चिम बंगाल से 46,616 बच्चे गायब हुए जिनमें से 30,516 बच्चों की तलाश नहीं की जा सकी है। पश्चिम बंगाल में बच्चों के गायब होने में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। महाराष्ट्र में 42,055 बच्चे लापता हुए जिनमें से 8,489 बच्चों का अब तक पता नहीं चल सका है। मध्य प्रदेश से पिछले 3 सालों में 32,352 बच्चे गायब हुए, जिनमें से अब तक 5,407 बच्चों का पता नहीं चल सका है। यही हाल आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़ में 11,536 बच्चे गायब हुए जिनमें से 2,986 बच्चों के बारे में अब तक पता नहीं चल सका है। राजधानी दिल्ली में इस दौरान 18,091 बच्चे लापता हुए जिनमें से 2,976 बच्चों की जानकारी नहीं है।

शनिवार, 11 मई 2013

त्याग पत्र के बाद कार्रवाई होगी बंसल व अश्विनी पर?



अपने देश में एक अजीब सिलसिला जारी है। जैसे-तैसे विधायक या सांसद बनो और करोड़ों-अरबों का घोटाला करो। यदि विपक्षियों द्वारा या किसी अन्य माध्यम से हो-हल्ला हुआ तो पद से त्याग पत्र देकर जनता की मोटी रकम को डगार लो। हाल के वर्षों में इस प्रकरण की इतनी पुनरावृत्ति हुई कि अब यह भारतीय लोकतंत्र की एक परम्परा बन गई है। इस परम्परा का निर्वहन कर विपक्षी दलों के नेता भी आरोपों के घेरे में आए मंत्रियों के त्याग पत्र ही माँगते हैं, उन पर कार्रवाई की बात नहीं करते हैं।
क्या महज त्याग पत्र देने से आरोप धुल जाते हैं? पद छोड़ने मात्र से ही आरोपित पवित्र तो नहीं हो जाता! क्या पद त्यागने वालों पर कानून का डण्डा नहीं चलना चाहिये? क्या इस्तीफा देने वालों से घपले की राशि नहीं वसूली जानी चाहिए? ऐसे कई प्रश्न उभरते हैं मगर विपक्षियों की माँग में ये प्रश्न शामिल न होना एक गंभीर सच्चाई को उजागर करता है। वह सच्चाई है कि यदि कल विपक्षियों के हाथ में सत्ता आ गई और उनके सहयोगी घपलेबाज निकले तो वह भी उनका त्याग पत्र लेकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेंगे! यह परम्परा लोकतन्त्र के लिए अत्यन्त घातक है। इसी घातक परम्परा की एक बार फिर पुनरावृत्ति हुई शुक्रवार की रात को। पवन की रेल से टिकट कटी तो अश्विनी को कानून से बाहर किया गया। मतलब यह कि रेल मंत्री के पद से पवन कुमार बंसल और विधि (कानून) मंत्री की कुर्सी से अश्विनी कुमार का त्याग पत्र लिया गया।
यों एक तीर से दो निशाना साधा कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी ने। पहली तो यह कि संसद में मुख्य विपक्षी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) बंसल व अश्विनी सहित प्रधान मंत्री मनमोहन के त्याग पत्र की माँग के मद्देनजर सत्र को बाधित करती रही जो अब चुप रहेगी। दूसरी यह कि इन दोनों मंत्रियों के चलते काँग्रेस व सरकार की काफी छीछालेदर हो रही थी, उम्मीद है उस पर विराम लगेगा। पर,
इस बीच भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने मनमोहन को आत्मावलोकन करने की नसीहत दी। उन्होंने कहा कि आत्मावलोकन करने पर प्रधान मंत्री को मात्र पद त्यागने का ही विकल्प सूझेगा। मतलब यह कि मनमोहन सिंह के पद त्यागने की माँग पर भाजपा अब भी अडिग है।
एक तरफ जहाँ काँग्रेसी खेमे में अश्विनी-बंसल से छुटकारा पाने पर राहत व कर्नाटक फतह पर खुशी महसूस की जा रही है, उसी तरह भाजपा खेमे में भी तीन में से दो के त्याग पत्र पर सफलता की खुशी छाई हैं। खुशी में तो तत्कालीन विधि मंत्री अश्विनी व तत्कालीन रेल मंत्री पवन भी थे। एक ने केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) की कोयला घोटाले की स्टेटस रिपोर्ट बदलवा कर अपने पद का गुरूर दिखाया तो दूसरे ने भांजे के सहारे मोटी रिश्वत लेकर रेल में बहाली को अंजाम दिया। काँग्रेस और मनमोहन की सरकार ने ए. राजा की तरह इन दोनों की भी खूब तरफदारी की, बंसल के ‘मिस्टर क्लीन’ वाली छवि को भी उछाला। पर, सर्वोच्च न्यायालय व सीबीआई की चोट से दोनों को ‘घायल’ होना ही पड़ा।
इस दरम्यान केन्द्र सरकार राहत की साँस ले रही है। पर, यह राहत क्षणिक साबित हो सकती है। सरकार में एकमात्र ईमानदार छवि प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की है। यह छवि ईमानदार जरूर है पर बेदाग नहीं। मूक मनमोहन को आगे कर वाचाल मंत्रियों में लूट की होड़ लगी है।
विकास में सरकार की जितनी ऊर्जा लग रही है उससे कई गुना अधिक ऊर्जा सरकार को बचाने में लगती जा रही है। इस कारण जहाँ महंगाई बेतहाशा बढ़ रही है, वहीं तन्त्र कमजोर व लाचार होता जा रहा है। तंत्र की तंत्रिकाओं में स्फूर्ति भरने का प्रयास नहीं किया जा रहा है।
ऐसे में देश एक भयानक अंधेरे की ओर बढ़ रहा है। पर, इस नकारात्मक कल की चिंता सरकार को नहीं है। ‘सबकुछ’ चुप रहकर जारी है। घपला-घोटाला हो तो चुप। कोई सीमा प्रहरी का सिर काट ले तो चुप। कोई सीमा का अतिक्रमण कर ले तो चुप। तंग-परेशान जनता कराहती रहे तो चुप। संसद चले तो चुप, न चले तो भी चुप। मंत्री गड़बड़ी करे तो चुप, त्याग पत्र दे तब भी चुप। इस चुप्पी के बीच त्याग पत्र तो हो गया मगर फिर वही प्रश्न उभरता है कि क्या पद छोड़ने वालों पर कार्रवाई होगी?

शुक्रवार, 10 मई 2013

सीबीआई : आजाद हो सकेगा पिंजड़े में बन्द तोता


यकीन मानिये कि कार्यपालिका (सीबीआइ) और विधायिका (केन्द्र सरकार) के अनैतिक गठजोड़ का खुलासा न होता यदि सर्वोच्च न्यायालय का डण्डा न चलता। केन्द्र सरकार बार-बार यह दावा करती रही कि सीबीआइ स्वायत्त जाँच एजेन्सी है मगर कोयला घोटाले के वर्तमान प्रकरण ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह किस हद तक दबाव में कार्य करती है। वास्तव में सीबीआइ के पास आजादी से कार्य करने की आजादी नहीं है।
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में सरकार के 3 प्रमुख अंगों में से 2 पर जनता को विश्वास नहीं रहा। तीसरी न्यायपालिका पर ही सारी उम्मीदें टिकी हैं। इन दोनों के कर्ता-धर्ता अर्थात् तमाम अधिकारियों-पदाधिकारियों व जनप्रतिनिधियों ने स्वार्थ के आगे जनहित को तिलांजलि दे रखी है। तभी तो नाले व गलियों की सफाई के लिए भी न्यायालय को आदेश देना पड़ रहा है। ऐसे भ्रष्ट तन्त्र के बीच जाँच-पड़ताल के लिए केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) से उम्मीद शेष थी। उस उम्मीद पर भी कोयला घोटाले पर मचे कोहराम ने धूल की मोटी परत बिछा दी। केन्द्र सरकार बार-बार यह दावा करती रही कि सीबीआइ स्वायत्त जाँच एजेन्सी है मगर कोयला घोटाले के वर्तमान प्रकरण ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह किस हद तक दबाव में कार्य करती है।
वास्तव में सीबीआइ के पास आजादी से कार्य करने की आजादी नहीं है। यह गंभीर तथ्य तब उभरा जब सर्वोच्च न्यायालय ने सीबाआइ निदेशक रणजीत सिन्हा से पूछा कि कोयला घोटाले की जाँच रपट सरकार से साझा तो नहीं की गई। तब रणजीत की जो मुँह खुली तो 2 केन्द्रीय मंत्रियों समेत प्रधान मंत्री कार्यालय भी कटघरे में नजर आने लगा। सरकारी दबाव को स्वीकारते हुए सीबीआइ ने यह कहा कि कोयला घोटाले की रपट ही बदलवा दी गई। ऐसे में इस जांच एजेन्सी की तमाम पड़तालों की निष्पक्षता भी संदेह के घेरे में आ गई।
सीबीआइ को सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार द्वारा पिंजड़े में बन्द तोता करार दिया जो मालिक (सरकार) की भाषा ही बोलता है। यकीन मानिये कि कार्यपालिका (सीबीआइ) और विधायिका (केन्द्र सरकार) के अनैतिक गठजोड़ का खुलासा न होता यदि सर्वोच्च न्यायालय का डण्डा न चलता। इस बीच रणजीत सिन्हा मानते हैं कि सीबीआइ की स्वायत्तता में 5 प्रमुख रोड़े हैं- गृह, विधि व कार्मिक विभाग सहित संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) और केन्द्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी)।
अधिकारियों के कैडर क्लीयरेन्स के लिए सीबीआइ को गृह विभाग पर निर्भर रहना पड़ता है। निदेशक स्तर से केवल निरीक्षक स्तर के अधिकारी ही बहाल हो सकते हैं। डीएसपी स्तर के अधिकारियों के लिए यूपीएससी से गुहार लगानी पड़ती है। यों याचिका दायर करने के लिए विधि विभाग की मंजूरी जरूरी है। इसी तरह प्रतिदिन के कार्य, खर्च हेतु राशि व नये अधिकारियों के लिए कार्मिक विभाग का मुँह ताकना पड़ता है। साथ ही भ्रष्टाचार से सम्बन्धित मुकदमों में सीबीसी को जवाब देने की मजबूरी भी सीबाआइ को है।
ऐसी स्थिति में किस आधार पर सरकार इसे स्वायत्त कहती आई है? हालाँकि इस जाँच एजेन्सी के पास काबिल अधिकारियों की टीम भी है पर कुछ वर्षों से इसकी जाँच की धार को सरकार ने कुन्द कर रखा है। लिहाजा इसके पास लम्बित मामलों में लगातार इजाफा हो रहा है। वर्ष 2012 के अन्त में सीबीआइ के 9734 मामले न्यायालयों में लम्बित हैं। ऐसे में यह सवाल उभर रहा है कि आखिर खुले आकाश में स्वतंत्रतापूर्वक सीबीआइ का तोता कब उड़ सकेगा?
इस बीच सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार को सख्त आदेश दिया है कि वह सीबीआइ की स्वायत्तता के लिए उचित कानून 10 जुलाई तक बनाए। 15 वर्षों से स्वायत्तता पर कुछ नहीं करने के मामले में भी सरकार को जवाब देना है। लिहाजा केन्द्र सरकार में खलबली है। केन्द्रीय मंत्रियों कपिल सिब्बल, पी.चिदम्बरम व नारायण सामी आदि की एक समिति गठित कर अन्तिम निर्णय लिये जाने की कवायद जारी है। सरकार अध्यादेश भी जारी करने की प्रक्रिया पूरी कर रही है। इस सरकारी हरकत की पृष्ठभूमि पुरानी है। सीबीआइ को पूरी तरह सरकारी नियंत्रण से बाहर करने की पहली सिफारिश वर्ष 1978 में एलपी सिंह समिति ने की। फिर वर्ष 2007 व 2008 में संसद की स्थाई समिति ने भी सीबीआइ के स्वायत्तता की वकालत की। प्रशासनिक सुधार आयोग भी ऐसा ही चाहता है।
देखना यह है कि सर्वोच्च न्यायालय की डेडलाइन में सरकार कानून बनाती है या स्वायत्तता के मामले को किसी समिति के हवाले कर ठण्डे बस्ते में डालती है।

गुरुवार, 9 मई 2013

अनैतिक गठजोड़ सरकार व सीबीआई का


सर्वोच्च न्यायालय की तल्खी कुछ इन शब्दों में झलकी- सीबीआई पिंजरे में बंद ऐसा तोता बन गई है जो केवल अपने मालिक की बोली बोलता है। यह ऐसी अनैतिक कहानी है जिसमें एक तोते के कई मालिक हैं। वास्तव में सीबीआई को एक अस्त्र के रूप में सरकार प्रयोग करती रही है। हाल के वर्षों में यह देखने में आया है कि जिसने भी काँग्रेस की खिलाफत की उसके पीछे सीबीआई को लगा दिया गया।

आरोप-प्रत्यारोप के बीच शर्म, सामाजिक-राजनीतिक मर्यादा और नैतिकता को तिलांजलि देकर निरन्तर अनियमितताओं को अंजाम देती हुई कांग्रेस नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन (संप्रग) की केन्द्र सरकार सत्ता से चिपकी हुई है। साथ ही सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह सभी चर्चित मुद्दों पर मौन धारण किये रहते हैं।
    मनमोहन सरकार के कई कदमों को कैग, विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक संगठनों, विपक्षी दलों, आम जनता सहित न्यायालय ने भी गलत करार दिया है। पर, सरकार को लगता है कि वह जो भी कर रही है, वही सच है। अपनी पीठ थपथपाने वाली संप्रग सरकार की कारगुजारियों पर इस बार सर्वोच्च न्यायालय ने प्रश्न चिह्न लगाया है।
कोयला खदान आवंटन काण्ड में केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) की जांच रपट को ही हस्तक्षेप कर केन्द्र सरकार ने बदलवा दिया जिसपर न्यायालय ने बुधवार को कड़ा ऐतराज किया है। सर्वोच्च न्यायालय की तल्खी कुछ इन शब्दों में झलकी- सीबीआई पिंजरे में बंद ऐसा तोता बन गई है जो केवल अपने मालिक की बोली बोलता है। यह ऐसी अनैतिक कहानी है जिसमें एक तोते के कई मालिक हैं। वास्तव में सीबीआई को एक अस्त्र के रूप में सरकार प्रयोग करती रही है। हाल के वर्षों में यह देखने में आया है कि जिसने भी काँग्रेस की खिलाफत की उसके पीछे सीबीआई को लगा दिया गया। जो समर्थन में हैं उनकी सीबीआई जांच भी शिथिल हो गई।
    दरअसल, सीबीआई सरकार के हाथों की कठपुतली बनकर रह गई है। तभी तो सर्वोच्च न्यायालय को कहना पड़ा कि 15 वर्षों पूर्व चर्चित विनीत नारायण मामले में सीबीआई की स्वायत्तता के जो हालत थे, आज उससे भी बदतर स्थिति है। उस समय न्यायालय ने केन्द्र सरकार को आदेश दिया था कि वह सीबीआई को स्वायत्तता देकर मजबूत बनाए। उस आदेश पर 9 वर्षों से सत्ता पर काबिज मनमोहन सरकार ने अमल तो नहीं ही किया, ऊपर से सीबीआई की जांच रपट में फेर-बदल करने का दुस्साहस कर कोर्ट के आदेश का उल्लंघन करती चली आ रही है। आदेश के इस उल्लंघन पर सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र को कडे़ लहजे में कहा कि वह 10 जुलाई से पूर्व सीबीआई की स्वायत्तता हेतु काननू बनाए। यदि सरकार ऐसा नहीं करेगी तो कोर्ट हस्तक्षेप करेगा।
    न्यायालय इस बात से भी नाराज है कि निष्पक्ष जांच करने वाले अधिकारियों की तुरंत बदली कर दी जाती है। ऐसे में कोयला खदान आवंटन काण्ड की त्वरित जांच करने वाले उप महानिरीक्षक रविकांत मिश्र को इंटेलिजेंस ब्यूरो (आइबी) से वापस सीबीआई में भेजने का आदेश भी केन्द्र को दिया गया। साथ ही सीबीआई को ‘दिमाग’ से काम करने की हिदायत दी।
    अब तक राजनीतिक व सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा केन्द्र सरकार पर यह आरोप लगाया जाता रहा कि सीबीआई को उसने कठपुतली बनाकर रखा है। इसलिए सरकार के साथ जनलोकपाल की बैठकों में अन्ना हजारे और उनके सहयोगी सीबीआई को सरकार के नियंत्रण से मुक्त कर जनलोकपाल के अधीन लाने की मांग करते रहे। पर, सरकार अन्त तक नहीं मानी। वर्तमान हालातों में यह स्पष्ट हो गया कि सीबीआई की हर जांच व गतिविधि को सरकार प्रभावित करती है। ऐसे में सीबीआई की साख धूमिल हुई और उसकी जांच को भी निष्पक्ष नहीं माना जा सकता।
    इस प्रकरण में केन्द्र सरकार की परेशानी बढ़ गई है। चूँकि कोयला खदानों के आवण्टन के दौरान कोयला मंत्रालय का प्रभार प्रधान मंत्री के पास ही था। ऐसे में एक लाख 76 हजार करोड़ रुपये के महाघोटाले में सीधे प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की संलिप्तता दीख रही थी। लिहाजा मनमोहन को स्वच्छ साबित करने के लिए सरकार ने अनैतिक रूप से सीबीआई का जांच प्रतिवेदन ही बदलवा दिया।
    न्यायालय के अनुसार, प्रतिवेदन में से हृदय को ही निकाल दिया गया। इस गंभीर गड़बड़ी को अंजाम देने वालों का नेतृत्व किया विधि मंत्री अश्विनी कुमार ने। उनके साथ इसमें दागदार नजर आते हैं कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल, प्रधान मंत्री कार्यालय व कोयला विभाग के एक-एक संयुक्त सचिव, एटार्नी जनरल और एडिशनल सालिसिटर जनरल भी।
    इस सदंर्भ में विपक्षियों की ओर से अश्विनी का त्याग पत्र मांगा जा रहा है। पर, इस मामले में पहला त्याग पत्र दिया एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ने। इस बीच कर्नाटक फतह से काँग्रेस प्रसन्न है। इसी महीने में वर्तमान सरकार का चौथा वर्ष पूरा होगा और प्रश्नों के घेरे में मौजूद पवन बंसल व अश्विनी कुमार के मात्र विभाग में बदलाव होगा। टारगेट 2014 के मद्देनजर यही काँग्रेसी चाल होगी। इस दौरान जनता धोखे में है कि अबतक सीबीआई ने जिस भी मामले में जांच की, वह निष्पक्ष नहीं थी! 

बुधवार, 8 मई 2013

कर्नाटक : भाजपा की चिन्ता, काँग्रेस की खुशी


   कर्नाटक में 224 में से 223 सीटों के लिए हुए चुनावों में कांग्रेस को 121, भाजपा को 40, जनता दल (एस) को 40, कर्नाटक जनता पार्टी को 6 और अन्य 16 सीटों पर जीत मिली है।
 केन्द्र में सत्ता हथिया लेने का सुखद स्वप्न पाले भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को बुधवार के दिन जोरदार झटका लगा। यह झटका दिया काँग्रेस ने जिसने उसके हाथ से कर्नाटक की सत्ता छीन ली। भाजपा हारी भी तो बहुत बुरी तरह, सीटों की अर्द्धशतक भी पूरी नहीं कर सकी। सदन में वह मुख्य विपक्षी पार्टी भी नहीं रह पाएगी। इस बीच भाजपा खेमे में मातम के बीच मंथन का दौर जारी है। दूसरी तरफ काँग्रेसी पक्ष फूला नहीं समा रहा। पार्टी इसे 2014 के लोकसभा निर्वाचन का सेमीफाइनल मानकर लगातार राहुल गाँधी के माथे जीत का सेहरा बांधे जा रही है। हालाँकि कर्नाटक में प्रचार करने प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह भी सोनिया के साथ गए थे पर वे भी जीत का श्रेय राहुल को ही दे रहे हैं। ऐसा कहकर उन्होंने इतना तो प्रदर्शित कर ही दिया कि राज्य में पार्टी को प्राप्त मतों में उनकी छवि का कोई सकारात्मक असर नहीं पड़ा। मतलब साफ है कि विशेष अवसरों पर मूक रहने वाले मनमोहन ने मुँह खोलकर यह भी जता दिया कि काँग्रेस लोकसभा का निर्वाचन राहुल के नेतृत्व में ही लड़ेगी। कर्नाटक में पिछले एक-दो साल में कई नाटक हुए। राज्य में पहली बार कमल खिलाने वाले बीएस येदियुरप्पा को मुख्य मंत्री का पद त्यागने के साथ ही भाजपा से भी बाहर होना पड़ा। राज्य में सिंहासन के फाइनल में भाजपा की ऐसी करारी हार व काँग्रेस को बहुमत के साथ इतनी बेहतरीन जीत नसीब होगी, यह दोनों में से किसी को अनुमान नहीं था। वैसे कर्नाटक में मतदान से ऐन पहले देश में राजनीतिक भूचाल आया। रेल मंत्री पवन कुमार बंसल व उनके परिवार वाले रिश्वत काण्ड में बुरी तरह फँस गए। इससे जहाँ काँग्रेस सहम गयी, वहीं भाजपा खुशफहमी में थी। पर, जनता ने तमाम कयासों को दरकिनार कर अपना निर्णय दिया।
    धर्मग्रन्थों में उल्लेख है कि मनुष्य स्वयं अपने दुःख का कारण बनता है। सनातन धर्म की बात करने वाली भाजपा धर्म की इस बात को भूल गई तो उसे मुँह की खानी पड़ी। अपनी हार की पटकथा को भाजपा ने लिखना तब शुरू किया जब उसने भ्रष्टाचार में लिप्त तत्कालीन मुख्य मंत्री येदियुरप्पा को पद से नहीं हटाया। जब काफी छीछालेदर हो गई तब येदियुरप्पा को पद व पार्टी से चलता किया गया। उनकी जगह जगदीश शेट्टार को मुख्य मंत्री की कुर्सी दी गई। भाजपा के तत्कालीन केन्द्रीय अध्यक्ष गडकरी का वह अदूरदर्शी फैसला था, खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा। पार्टी से अलग होकर येदि ने कर्नाटक जनता पार्टी (कजपा) बनाई और विधान सभा की कुछ सीटों पर कब्जा करने में कामयाब रही। येदियुरप्पा के भाजपा से हटने के बाद उनके कद का कोई चेहरा पार्टी में नहीं रह गया। निर्वाचन के दौरान शेट्टार में कोई सम्मोहन नहीं दिखाई दिया जिससे मतों की बरसात होती। येदियुरप्पा के करिश्मे का अंदाज भाजपा के केन्द्रीय नेताओं को भले ही न था मगर राज्य में जमीन से जुड़े नेताओं को था। जब वे भ्रष्टाचार के कुछ मुकदमों में बरी कर दिये गए तब उमा भारती ने उन्हें दुबारा पार्टी में लेने की पुरजोर वकालत की पर वह इस मामले में अकेली पड़ गईं। ऐसी स्थिति में काँग्रेस को बहुत लाभ हुआ। एक के आन्तरिक कलह ने दूसरे की जीत को सुनिश्चित कर दिया। एक समय भाजपा नेता जनार्दन रेड्डी, करुणाकरण रेड्डी व सोमशेखर रेड्डी का कर्नाटक में अवैध खनन पर एकाधिकार था। इस मामले में जनार्दन हैदराबाद कारावास में बन्द हैं। इस प्रकरण का सीधा लाभ काँग्रेसी प्रत्याशियों को मिला। यों वेल्लारी काण्ड को भी काँग्रेस अपने पक्ष में भुनाने में कामयाब रही।
    उत्तराखण्ड के बाद कर्नाटक की सत्ता भाजपा से काँग्रेस ने छीन ली। वास्तव में भ्रष्टाचार के आरोपों से चौतरफा घिरी काँग्रेस यदि जीत दर्ज करती है तो इसका मतलब है कि कुछ मायनों में यह भाजपा से आगे है। भाजपा नेता विपक्षियों की खामियों को जोरदार ढंग से जनता के बीच नहीं रख पाते। इस संदर्भ में द्रष्टव्य है कि काँग्रेस या अन्य विरोधियों से पस्त भाजपा काफी समय तक बचाने के बाद भी अन्ततः येदियुरप्पा पर कार्रवाई करने को विवश हुई थी। दूसरी तरफ अभी का संदर्भ देखिये कि वह लाख प्रयास के बाद भी रेल मंत्री पवन बंसल, प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह या विधि मंत्री अश्विनी कुमार के पद त्याग करवाने में सफल नहीं हो पा रही है। वास्तव में केन्द्र की काँग्रेस नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की सरकार जितने घपले-घोटालों में फँसी है, उसे जनता के बीच ले जाने में भाजपा को कामयाबी नहीं मिल पा रही है। वरना सरकार सत्ता में नजर नहीं आती। जहाँ तक कर्नाटक फतह की बात है तो इसमें काँग्रेस को अपनी खूबी पर जनादेश नहीं मिला; बल्कि भाजपा की कलह-कमजोरी की बदौलत मिला। जीत में सोनिया-मनमोहन-राहुल की तिकड़ी के प्रचार का असर कम और भाजपा की खामियों का अधिक हाथ रहा। प्रचार में भाजपा ने नरेन्द्र मोदी का भी उचित उपयोग नहीं किया। 224 विधान सभा क्षेत्रों के बदले मात्र 37 क्षेत्रों में ही मोदी से प्रचार करवाया गया। फिलहाल जीतने वाली पार्टी ने अपने को सत्ता का हकदार बताया तो हारने वाली पार्टी समीक्षा करने की बात कह रही है। 

मंगलवार, 7 मई 2013

झारखण्ड में ताल ठोंक रहे राजनीतिक दल


 

वर्तमान झारखण्ड विधान सभा में दलों की स्थिति

    यदि कांग्रेस कोयला घोटाला व रेल रिश्वत काण्ड से उबर गई तो 18 जुलाई से पहले झारखण्ड विधान सभा का निर्वाचन हो जाएगा। आज झारखण्ड में राष्ट्रपति शासन के 4 माह 20 दिन हो गए। संवैधानिक रूप से राष्ट्रपति शासन की अवधि 6 माह की ही होती है। इस बीच विधान सभा का निर्वाचन न हुआ तो अगले 6 महीने के लिये इसे विस्तारित किया जा सकता है। यों 6-6 माह के अन्तराल पर इसे कई बार भी विस्तारित किया जा सकता है। पर, अधिक विस्तार सरकार की खामियों को उजागर करता है। लिहाजा केन्द्र की कांग्रेसी नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की सरकार राज्य में राष्ट्रपति शासन को लम्बा नहीं खींचना चाहती। ऐसा ही पिछले दिनों लोकसभा में गृह मंत्री पी चिदम्बरम भी स्वीकार कर चुके हैं। साथ ही गृह मंत्रालय ने एक मसौदा भी तैयार कर लिया है जिसे कभी भी केन्द्रीय मंत्रिमण्डल पारित कर राष्ट्रपति के पास स्वीकृति के लिये भेज सकता है। इस स्वीकृति के बाद राज्य की निलम्बित विधान सभा भंग हो जाएगी। ऐसा होने पर ज्यादा उम्मीद है कि 18 जुलाई से पूर्व चुनाव करा लिये जाएंगे; क्योंकि उक्त तिथि को राष्ट्रपति शासन की 6 माह की मियाद पूरी हो रही है। केन्द्र सरकार के इस कवायद के प्रकाश में आते ही राज्य के सभी राजनीतिक दलों ने अपनी-अपनी तैयारियां शुरू कर दी हैं। बैठकों व सम्मेलन के दौर जोर-शोर से चल पड़े हैं। साथ ही दल बदलने का सिलसिला भी जारी है। सभी अपने को विकास का साथी व जनता का हितैषी बताने लगे हैं। नेता अपने नए-पुराने कीर्तिमानों को खोज-खोजकर जनता के सामने ला रहे हैं और विरोधियों को पटखनी देने का उपाय ढूंढ रहे हैं।
    12 वर्ष से अधिक उम्र के झारखण्ड में स्थिर सरकार का जनस्वप्न पूरा नहीं हो पाया है। कोई सरकार 5 वर्षों की संवैधानिक अवधि पूरी न कर सकी। जो भी सरकारें बनीं उनमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), झारखण्ड मुक्ति मोर्चा (झामुमो), ऑल झारखण्ड स्टूडेण्ट्स यूनियन (आजसू), जनता दल (युनाइटेड), राष्ट्रीय जनता दल (राजद), कांग्रेस आदि शामिल रही हैं। इन दलों की अस्थिर सरकारों को जनता झेल चुकी है, उनके रग-रग से वाकिफ है। पर, निर्वाचन में ये शून्य पर आउट तो नहीं होंगे। इन दलों के दलदल में झारखण्ड विकास मोर्चा (झाविमो) कुछ अलग नजर आ रहा है। झारखण्ड के प्रथम मुख्य मंत्री बाबूलाल मराण्डी ने भाजपा से नाता तोड़कर झाविमो का गठन किया था। हाल ही में वे एक बार फिर से झाविमो के अध्यक्ष बन गए हैं। राज्य में सर्वाधिक 860 दिनों तक शासन करने का कीर्तिमान उन्हीं के नाम है। पुनः पार्टी का कमान सम्भालने के बाद मराण्डी ने कार्यकर्ताओं को चुनाव के प्रति सजग किया। अन्य दल भी अपनी सजगता में लगातार वृद्धि कर रहे हैं। इस संदर्भ में राष्ट्रीय दलों से आगे हैं क्षेत्रीय दल। सत्ता का सर्वाधिक स्वाद चख चुका क्षेत्रीय दल झामुमो है जिसने गठबन्धन सहयोगी भाजपा से समर्थन खींचकर अर्जुन मुण्डा की सरकार गिरा दी और राज्य को राष्ट्रपति शासन के भरोसे छोड़ दिया। वह अपनी काबिलियत से ज्यादा भाजपा को कोसकर ही चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश करेगी। वैसे झामुमो विधान सभा क्षेत्रवार अपनी पैठ बनाने में लगी है। संताल परगना सहित कई क्षेत्रों में उसकी बैठकें हो रही हैं। इस बीच आजसू युवाओं को दल में शामिल करने पर ज्यादा जोर दे रही है। आजसू प्रमुख सुदेश महतो भी सहयोगियों के साथ चुनावी गहमागहमी में जोर-आजमाइश कर रहे हैं। वैसे जनता को गिनाने के लिए उनके पास कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है। इस बीच जदयू व राजद फिलहाल खामोश हैं। जदयू नीतीश कुमार की बिहारी उपलब्धियों को गिनाकर मत बटोरेगी जबकि राजद सबकी खामियों को उजागर कर केवल लालू के भरोसे ही कुछ सीट बढ़ाने की फिराक में है।
    नजर डालें राष्ट्रीय दलों पर तो भाजपा व कांग्रेस दोनों की अधिकतर उर्जा आन्तरिक कलह को सलटाने में ही खप जा रही है। भाजपा का कलह तो सतह पर है। रवीन्द्र के प्रदेशाध्यक्ष बनते ही बौखलाए यशवन्त सिन्हा ने पार्टी छोड़ने की धमकी दे डाली जिसे फिलहाल तो सलटा लिया गया है पर चुनाव के दौरान नजारा कुछ और होगा। राज्य में भाजपा मुख्यतः दो गुटों में बंटी है। एक छोर पर यशवन्त तो दूसरे छोर पर अर्जुन मुण्डा के साथ रवीन्द्र दीख रहे हैं। इनमें मुण्डा गुट प्रबल दिखाई दे रहा है। वैसे पार्टी झामुमो को सरकार गिराने का दोषी बताकर व कांग्रेस के भ्रष्टाचारों को ही उजागर कर जीतने की प्रयास करेगी। यों कांग्रेस की स्थिति ठीक नहीं दीख रही। वह कोयला घोटाला व रेल रिश्वत काण्ड से उबरने में ही लगी है। ऊपर से वोट फॉर नोट काण्ड में भी कांग्रेस की काफी फजीहत हो रही है। पर, वह चाहती है कि राज्य में जल्द चुनाव हो। ऐसे में वह छवि सुधारने को छटपटा रही है पर प्रदेशाध्यक्ष प्रदीप कुछ विशेष नहीं कर पा रहे हैं। इस बीच जनता उचित मौके पर जवाब देने को तमाम राजनीतिक पैंतरेबाजी पर पैनी नजर रख रही है।

अमेरिकी कंपनी मोरसैंटों ने भारतीय तरबूज का पेटेंट किया हासिल


गर्मियों में चाव से खाया जाने वाले भारतीय फल तरबूज का पेटेंट एक अमेरिकी कंपनी ने हासिल कर लिया है। अमेरिकी कंपनी मोरसैंटों ने भारतीय तरबूज में पाए जाने वाले एक एक जीन का पेटेंट हासिल कर लिया है। कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण राज्य मंत्री तारिक अनवर ने लोकसभा में वरुण गांधी के सवाल के लिखित जवाब में यह जानकारी दी। उन्होंने बताया, सरकार को इस बात की जानकारी है कि मोनसैंटों नामक अमेरिकी कंपनी ने भारतीय तरबूज में पाए जाने वाले जीन का पेटेंट ले लिया है। अनवर ने बताया कि अन्य देशों में मंजूर बौद्धिक संपदा अधिकार पर कंपनी के विरूद्ध कार्रवाई करने का मुद्दा भारत सरकार के केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (एनबीए) के अधिकार क्षेत्र में आता है। उन्होंने बताया कि इस समय एनबीए आरोपित अतिक्रामकों के विरूद्ध इस मामले को दर्ज करने की कार्रवाई कर रहा है।

गुणकारी तरबूज और तरबूज के बीज



तरबूज का सेवन तो हमारे स्वास्थ्य और सौंदर्य दोनों के लिए फायदेमंद है। साथ ही इसके बीज भी बहुत गुणकारी होते हैं।

तरबूज के बीज के गुण :-
* तरबूज के बीज शीतवीर्य, शरीर में स्निग्धता बढ़ानेवाले, पौष्टिक, मूत्रल, गर्मी का शमन करने वाले, कृमिनाशक, दिमागी शक्ति बढ़ाने वाले, दुर्बलता मिटाने वाले, गुर्दों की कमजोरी दूर करने वाले, गर्मी की खाँसी एवं ज्वर को मिटाने वाले क्षय एवं मूत्ररोगों को दूर करने वाले हैं।
* तरबूज के बीज के सेवन की मात्रा हररोज 10 से 20 ग्राम है। तरबूज के ज्यादा बीज खाने से तिल्ली की हानि होती है।
* तरबूज के बीजों को छीलकर अंदर की गिरी खाने से शरीर में ताकत आती है। मस्तिष्क की कमजोर नसों को बल मिलता है, टखनों के पास की सूजन भी ठीक हो जाती है।
* तरबूज के बीजों की गिरी की ठंडाई बनाकर प्रात: नियमित पीने के स्मरण शक्ति बढ़ती है।
* बीजों की गिरी में मिश्री, सौंफ, बारीक पीसकर मिलाकर खाने से गर्भ में पल रहे शिशु का विकास अच्छा होता है।
* बीजों को चबा-चबाकर चूसने से दाँतों के पायरिया रोग में लाभ होता है।
* पुराने सिरदर्द को दूर करने के लिये तरबूज के बीजों की गिरी को पानी के साथ पीसकर लेप तैयार कर नियमित माथे पर लगायें।
* ग्रीष्म ऋतु में दोपहर के भोजन के 2-3 घंटे बाद तरबूज खाना लाभदायक है। यदि तरबूज खाने के बाद कोई तकलीफ हो तो शहद अथवा गुलकंद का सेवन करें।
* तरबूज के लाल गूदे पर काली मिर्च, जीरा एवं नमक का चूर्ण डालकर खाने से भूख खुलती है एवं पाचनशक्ति बढ़ती है।
* यह रसीला फल गुर्दे की पथरी, कोलोन कैंसर, अस्थमा, दिल की बीमारी, र्यूमेटाइड अर्थराइटिस और प्रोस्टेट कैंसर का खतरा घटाता है।
* यदि आप अपने दिल को स्वस्थ रखना चाहते हैं तो हर रोज तरबूज जरूर खाएं। एक नए अध्ययन में पाया गया है कि तरबूज आपके शरीर में हानिकारक कोलेस्ट्रॉल नहीं बनने देता और वजन कम करने में भी मदद करता है।
* तरबूज ब्लड प्रेशर को कंट्रोल कर हार्टबीट को रेगुलेट करता है।
* वैज्ञानिक ने दावा किया है कि तरबूज यौन शक्तिवर्द्ध दवा वियाग्रा ज्यादा प्रभावशाली भी होता है।
* तरबूज का सेवन मोटापा कम करने में बहुत अधिक कारगर होता है।
* नित्य तरबूज का ठंडा-ठंडा शरबत पीने से हमारे शरीर को शीतलता तो मिलती ही है साथ ही हमारे चेहरे पर गुलाबी-गुलाबी आभा भी दमकने लगती है।

विशेष ध्यान रखें :-
 * गर्म तासीरवालों के लिए तरबूज एक उत्तम फल है लेकिन वात व कफ प्रकृतिवालों के लिए हानिकारक है। अतः सर्दी-खाँसी, श्वास, मधुप्रमेह, कोढ़, रक्तविकार के रोगियों को इसका सेवन नहीं करना चाहिए।
* तरबूज खाकर तुरंत पानी या दूध-दही या बाजार के पेय नहीं पीने चाहिए।
* तरबूज खाने के 2 घंटे पूर्व तथा 3 घंटे बाद तक चावल का सेवन न करें।
* गर्म या कटा बासी तरबूज सेवन न करें। इससे कई बीमारियाँ फैलने की आशंका रहती है।

सोमवार, 6 मई 2013

दाग धोने में लगी सीबीआइ


    वर्तमान हालातों में यह स्पष्ट हो गया कि सीबीआइ की हर जांच व गतिविधि को सरकार प्रभावित करती है। ऐसे में सीबीआइ की साख धूमिल हुई और उसकी जांच को भी निष्पक्ष नहीं माना जा सकता। हालाँकि खुलासा करके सीबीआइ ने अपने दाग धोने के प्रयास किये। पर, यह दाग अधिवक्ता के काले कोट पर लगे दाग की तरह नहीं; बल्कि अधिवक्ता के सफेद शर्ट पर लगे दाग की तरह है जो दीखता है, दीखता रहेगा।

विधि मंत्री अश्विनी कुमार

    सोमवार को एक और सच देश के सामने आया। इस सच ने कई दिग्गजों के झूठ को बेनकाब कर दिया। सच-दर-सच उद्घाटित होते जा रहे हैं और लगातार मौन धारण किये रहने वाले प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की सरकार कटघरे में नजर आ रही है। सोमवार वाला सच ऐसा है जिसमें सीधा मनमोहन सिंह का कार्यालय भी कटघरे में दीख रहा है। इसमें केन्द्रीय मंत्रियों के साथ-साथ उच्च पदस्थ प्रशासनिक व न्यायिक अधिकारियों की भी पोल-पट्टी खुल गई है। यह खुलासा किया है केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) के निदेशक रंजीत सिन्हा ने। सिन्हा ने सर्वोच्च न्यायालय में उन नामों को उजागर किया जिन्होंने कोयला ब्लॉक आवंटन घोटाले की जाँच रपट में रद्दोबदल करवाए। दरअसल, सर्वोच्च न्यायालय ने 12 अप्रैल को सीबीआइ से पूछा कि कोयला घोटाले की रपट किसी से साझा तो नहीं की गई। 26 अप्रैल को रंजीत सिन्हा ने न्यायालय को बताया कि रपट को प्रधान मंत्री कार्यालय, विधि मंत्रालय व कोयला मंत्रालय से साझा कर उसमें फेर-बदल किये गए। तब सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप करने वालों के नाम बताने का आदेश दिया। उसी आदेश का पालन करते हुए जब सोमवार को सीबीआइ ने नामों की घोषणा की तो कई दिग्गजों के झूठ पकड़े गए और केन्द्रीय राजनीति में भूचाल आ गया। वास्तव में कोयला महाघोटाला एक लाख 76 हजार करोड़ रुपये का है। सीबीआइ के इस खुलासे ने सीने तक भ्रष्टाचार में डूबी केन्द्र सरकार को अब गर्दन तक डूबो दिया है। विपक्षी भारतीय जनता पार्टी चाहती है कि सरकार की गर्दन भी डूब जाए, प्रधान मंत्री त्याग पत्र दे दें।
प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह, सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा व विधि मंत्री अश्विनी कुमार

    सीबीआइ ने सर्वोच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति आरएम लोढ़ा की खण्डपीठ को एक शपथ पत्र के माध्यम से विधि मंत्री अश्विनी कुमार, अटार्नी जनरल जीई वाहनवती, एडिशनल सॉलिसिटर जनरल हरीन पी. रावल, प्रधान मंत्री कार्यालय और इस कार्यालय के संयुक्त सचिव शत्रुघ्न सिंह, कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल, कोयला मंत्रालय के संयुक्त सचिव अजय कुमार भल्ला के नाम बताए। कोयले के रंग में इन सबके चेहरे काले नजर आने लगे हैं। यह कालापन और गहराएगा जब कल सर्वोच्च न्यायालय इसपर अगली सुनवाई करेगा। हालाँकि इस मामले में सीबीआइ निदेशक ने न्यायालय से बिना शर्त्त क्षमा मांगी कि उन्होंने नियमित सुनवाई के दौरान ये खुलासे नहीं किये। यदि न्यायालय यह स्पष्टीकरण नहीं मांगता तो इस गंभीर बात को रंजीत सिन्हा हजम ही कर जाते। ऐसे में वे किस हद तक क्षमा के पात्र हो सकते हैं? वैसे चर्चित अधिवक्ता प्रशान्त भूषण के अनुसार, अटार्नी जनरल वाहनवती पर कोर्ट के अवमानना का मामला चलना चाहिए; क्योंकि उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में स्वीकार किया था कि वे सीबीआइ की रपट को देखे ही नहीं जबकि वे रद्दोबदल वाली बैठक में शामिल थे। रद्दोबदल के लिए 3 बैठकें हुईं- विधि मंत्री के कार्यालय में, अटार्नी जनरल के साथ व सीबीआइ कार्यालय में। सीबीआइ के इस खुलासे के केन्द्र में विधि मंत्री अश्विनी कुमार हैं। यह जाहिर हो गया है कि अबतक अश्विनी झूठ बोलते रहे। यदि वे सच बोल रहे थे तो खुलासे के तुरंत बाद बचाव के उपाय पर मंथन करने प्रधान मंत्री के पास क्यों गए? वास्तव में अश्विनी ने सीबीआइ की रपट में से पूरा एक अवतरण ही निकलवा दिया। क्या रद्दोबदल हुए यह भी न्यायालय जानना चाहता है जिसे सीबीआइ बन्द लिफाफे के माध्यम से अवगत कराएगी। मतलब यह कि केन्द्र सरकार की परेशानी को सीबीआइ अभी और बढ़ाएगी।

    अब तक राजनीतिक व सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा केन्द्र सरकार पर यह आरोप लगाया जाता रहा कि सीबीआइ को उसने कठपुतली बनाकर रखा है। इसलिए सरकार के साथ जनलोकपाल की बैठकों में अन्ना हजारे और उनके सहयोगी सीबीआइ को सरकार के नियंत्रण से मुक्त कर जनलोकपाल के अधीन लाने की मांग करते रहे। पर, सरकार अन्त तक नहीं मानी। वर्तमान हालातों में यह स्पष्ट हो गया कि सीबीआइ की हर जांच व गतिविधि को सरकार प्रभावित करती है। ऐसे में सीबीआइ की साख धूमिल हुई और उसकी जांच को भी निष्पक्ष नहीं माना जा सकता। हालाँकि खुलासा करके सीबीआइ ने अपने दाग धोने के प्रयास किये। पर, यह दाग अधिवक्ता के काले कोट पर लगे दाग की तरह नहीं; बल्कि अधिवक्ता के सफेद शर्ट पर लगे दाग की तरह है जो दीखता है, दीखता रहेगा। इस पूरे मामले में एक बार फिर प्रधान मंत्री ने मौन साध रखा है। हालाँकि कोयले की कालिख उनके कार्यालय पर भी लगी है। इस बीच काँग्रेस एक बार फिर मनमोहन सिंह की व्यक्गित इमानदारी की दुहाई देती हुई भ्रष्टाचारियों को बचाने में लगी है। उधर मुख्य विपक्षी भाजपा संसद के दोनों सदनों को चलने नहीं दे रही है। वह प्रधान मंत्री, विधि मंत्री व रेल मंत्री के त्याग पत्र से कम पर फिलहाल मानने के मूड में नहीं है। इस बीच आपके साथ हम भी प्रतीक्षा करते हैं 8 मई के सर्वोच्च न्यायालय के रुख का।

रेलमंत्री पवन बंसल का निराला खेल


  
विश्व में सर्वाधिक रोजगार देनेवाला संगठन ‘भारतीय रेल’ इन दिनों कुछ ज्यादा ही चर्चा में है। यह चर्चा इसलिए नहीं कि भारतीय रेल ने कोई अनुकरणीय या प्रशंसनीय कीर्तिमान बनाया है; बल्कि इसलिए कि पहली बार रेलमंत्री का कोई इतना करीबी बड़े रिश्वत काण्ड में केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) की गिरफ्त में आया है। मामला केवल रेल बोर्ड के उच्च पद पर रिश्वत लेकर नियुक्ति का ही नहीं है; बल्कि इस वर्ष रेलवे में होने वाली 51 हजार नियुक्तियों में भी अरबों का बंदरबांट होने वाला था। यदि कोल ब्लॉक मामले में सीबीआइ की सर्वोच्च न्यायालय में फजीहत न हुई होती तो यकीन मानिये कि यह रिश्वत मामला उजागर न होता। कोल ब्लॉक जांच प्रकरण में सीबीआइ पर आरोप लगा कि वह केन्द्र सरकार की कठपुतली है। सीबीआइ निदेशक रंजीत सिन्हा को सर्वोच्च न्यायालय में स्वीकारना पड़ा कि उसने एक लाख 76 हजार करोड़ रुपये के कोल ब्लॉक घोटाले में केन्द्र सरकार से मिलकर आरोप पत्र तैयार किया। अपनी इसी शर्मिन्दगी से उबरने की बौखलाहट में सीबीआइ ने रेल मंत्रालय को कटघरे में खड़ा किया। त्वरित कार्रवाई में 10 को गिरफ्तार कर 12 करोड़ रुपयों के डील में से पेशगी के 90 लाख रुपये जब्त भी किये गए। गिरफ्त में आए आरोपितों में रेलमंत्री पवन कुमार बंसल के भांजे विजय सिंगला सहित अन्य करीबी भी हैं। मजे की बात कि जिस तरह 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में तत्कालीन संचार मंत्री ए. राजा की तरफदारी प्रधानमंत्री व कांग्रेस की तरफ से की गई, वैसा ही बचाव बंसल का किया जा रहा है।

    काँग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए-2 की केन्द्र सरकार भ्रष्टाचार के तमाम कीर्तिमान ध्वस्त कर चुकी है। राजा तो कारावास में भी गए, इसके अलावा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व उनका कार्यालय सहित अश्विनी कुमार, श्रीप्रकाश जायसवाल, चिदम्बरम, सिब्बल, सलमान खुर्शीद जैसे कई केन्द्रीय मंत्रियों पर विभिन्न आरोप लगे हैं। इतने आरोपित मंत्रियों वाली यह विश्व की पहली सरकार है। ऐसे में भाजपा प्रवक्ता प्रकाश जावडे़कर कहते हैं कि केन्द्रीय मंत्रियों में देश को लूटने की होड़ लगी है और काँग्रेस को देश को लूटने का रोग लग गया है। आलोच्य विषय पर दृष्टिपात करें तो पाएंगे कि रेलमंत्री बंसल के कई कदम सवालों के घेरे मेें हैं। रेल बजट में चंडीगढ़-पंजाब के आगे अन्य राज्यों की उपेक्षा पर बिहार, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश व पश्चिम बंगाल से विरोध के स्वर उभरे। रेल मंत्रालय में आते ही वीके गुप्ता को उत्तर रेलवे का महाप्रबंधक बनाया और उनसे वरिष्ठ अधिकारियों की अनदेखी की। मंत्रालय की कारगुजारी बाहर न जाए इसलिए मीडिया सलाहकार नियुक्त ही नहीं किया। ऊपर से कुछ और, अंदर से कुछ और करते रहे। खर्च घटाने के नाम पर कुछ समितियों को भंग कर उनकी शक्तियां अपने चहेते अधिकारियों में निहित कर दी। कुछ महीनों के रेल मंत्रित्व काल में 2 बार किराया बढ़ा चुके हैं। रेल बजट से पूर्व की वृद्धि के बाद बजट में ईंधन अधिभार लगाकर पुनः किराए में वृद्धि की। बजट पूर्व की वृद्धि का मकसद बंसल समझा नहीं पाए। जब इस वृद्धि का निर्णय हुआ उस समय दिल्ली के तमाम रेल पत्रकार मुम्बई में थे। वहां उनके मोबाइल फोन पर सूचना दी गई। पत्रकारों को पश्चिम रेलवे के महाप्रबंधक महेश कुमार से मिलवाया गया जो अब सीबीआइ की गिरफ्त में हैं। दिल्ली आकर पत्रकारों ने इस हड़बड़ी का मकसद पूछा तो बंसल का जवाब था- मैं आपको कारण नहीं बता सकता। आखिर किसने उन्हें कारण बताने से रोका था? रेलवे बोर्ड में हाल में सदस्य बने और अब निलम्बित महेश कुमार पर बंसल की विशेष कृपा के फलस्वरूप ही इस वर्ष रेलवे में होनेवाली 51 हजार बहालियाँ उन्हीं की देख-रेख में होनेवाली थी। 12 करोड़ लगाकर इन बहालियों में अरबों कमाने के स्वप्न को सीबीआइ ने भंग कर दिया।

    इधर नई बात सामने आई है। बंसल के भांजे, भतीजे व बेटे का आपस में कारोबारी रिश्ता भी है। जेटीएल इन्फ्रा में बंसल का भतीजा व भांजा जबकि एक अन्य कम्पनी रौनक एनर्जी में बेटा व भतीजा पार्टनर हैं। अपने ऊपर लगे लांछन को आसानी से रेलमंत्री नहीं धो सकते; क्योंकि उनके घर का पता ही उनके भतीजे का पता है। तभी तो भाजपा नेता किरीट सोमैया सप्रमाण कहते हैं कि बंसल का पूरा परिवार रेल घूस काण्ड में सहभगी है। यहां ‘कमाई’ का एक अन्य स्रोत ढूँढा गया। रेलमंत्री ने अकारण ही रेलवे कैटरिंग का नया ठेका 20 मई तक देने की घोषणा कर रखी है। ऐसे में ठेकों के नवीनीकरण की प्रक्रिया पूरी होने से पूर्व ही रेल का खान-पान महंगा हो गया मगर इस ओर बंसल का ध्यान ही नहीं गया। ऐसे में उनका यह कहना कि वे सदा ईमानदारी का उच्च मानक कायम रखते हैं, सत्य से परे ही महसूस होता है। अपने देश मंे एक बात सदा से चली आ रही है कि किसी भी घपले में फँसने पर त्याग पत्र मांगा जाता है, उस आरोपित पर कार्रवाई की माँग नहीं होती। इस बार भी विपक्षी भाजपा व अन्य बंसल का त्याग पत्र मांग रहे हैं, उनपर कार्रवाई की बात कोई नहीं कर रहा। क्या करोड़ों-अरबों डकारने के बाद त्यागपत्र दे देेने से ही वह शख्स पाक-साफ हो जाता है?

शनिवार, 4 मई 2013

राजनीतिक अस्थिरता के दौर में झारखण्ड




अगले कुछ दिनों में झारखण्ड विधान सभा भंग हो सकती है। तब निर्वाचन अवश्यम्भावी हो जाएगा। पर, इस बात की गारण्टी कदापि नहीं होगी कि किसी दल को बहुमत मिलेगा और राज्य में अस्थिर सरकारों का दौर खत्म हो जाएगा। 12 वर्ष 5 माह और 20 दिनों के झारखण्ड में राजनीतिक अस्थिरता का दौर अभी भी जारी है। इस अवधि में 8 सरकारें बनीं और तीसरी बार इसी वर्ष 18 जनवरी को राष्ट्रपति शासन लगा जो जारी है। 5 वर्षों की संवैधानिक अवधि को किसी भी सरकार ने पूरा नहीं किया। सर्वाधिक लम्बी अवधि तक भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बाबूलाल मराण्डी ही प्रथम मुख्यमंत्री के रूप में कार्यरत रहे। 15 नवम्बर 2000 से 18 मार्च 2003 तक के 860 दिनों तक मराण्डी की सरकार ने शासन किया। फिर भाजपा के ही अर्जुन मुण्डा पहली बार 18 मार्च 2003 को दूसरे मुख्यमंत्री बने। तब मराण्डी ने भाजपा का दामन छोड़ अलग दल ‘झारखण्ड विकास मोर्चा’ (झाविमो) का गठन किया। वर्तमान निलम्बित विधान सभा में झाविमो के 11 विधायक हैं। 81 निर्वाचित सदस्यों वाले झारखण्ड विधान सभा में प्रथम सरकार को छोड़कर कभी भी एक दल की सरकार नहीं बनी। कारण है कि किसी दल को बहुमत मिला ही नहीं। राज्य में अबतक कांग्रेस की सरकार नहीं बनी। भाजपा के नेतृत्व में सरकारें बनीं भी तो स्थिर नहीं रह पाईं। 7 सरकारें क्षेत्रीय दलों के सहयोग से बनीं और बेमौत मारी गयीं। पिछली अर्जुन मुण्डा की सरकार में झारखण्ड मुक्ति मार्चा (झामुमो), ऑल झारखण्ड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू), जदयू व अन्य शामिल थे। जनवरी में झामुमो ने कंधे का सहारा देना बंद किया और धराशायी हो गई मुण्डा की सरकार।
झारखण्ड में लगातार जारी राजनीतिक अस्थिरता ने छोटे राज्यों की अवधारणा पर ही प्रश्न खड़ा कर दिया है। छोटे राज्यों के गठन का मुख्य मुद्दा अच्छा शासन और दु्रत विकास ही रहा है। इसके विपरीत झारखण्ड में कुशासन, भ्रष्टाचार, भयादोहन और राजनीतिक दलों द्वारा सौदेबाजी का बोलवाला है। राष्ट्रीय दल आगे बढ़े तो क्षेत्रीय दलों ने अड़ंगा लगाया। इससे क्षेत्रीय दलों की फूट से सरकार बन नहीं पाती, चल नहीं पाती। आज का झारखण्ड वास्तव में एकीकृत बिहार में ‘दक्षिण बिहार’ कहलाता था। उस दौरान राजधानी पटना में बैठे शासक वर्ग का ध्यान दक्षिण बिहार पर बहुत कम गया। इसलिए यहां क्षेत्रीय दल उभरे। क्षेत्रीय दलों या निर्दलीय विधायकों की बढ़ती संख्या के पीछे एक कारण यह भी है कि बड़े या राष्ट्रीय दल जनता के सामने विकास का बड़ा चित्र प्रस्तुत नहीं कर सके। वर्ष 1951 के बिहार विधान सभा निर्वाचन में क्षेत्रीय दल ‘झारखण्ड पार्टी’ को 32 सीटें दक्षिण बिहार में मिलीं। इसी तरह वर्ष 2000 के निर्वाचन में भाजपा को  34 सीटों पर विजयश्री मिली, वह इसलिए कि पार्टी ने पृथक झारखण्ड के नाम पर मत मांगा था। उसके बाद इतनी सीटें किसी के पास नहीं आईं और राजनीतिक स्थिरता एक तरह से राज्य की ‘तकदीर’ बन गई।
राजनीतिक अस्थिरता की नकारात्मक तकदीर से सर्वाधिक क्षति राज्य के आमजन को हुई। कई योजनाएं-परियोजनाएं अधूरी पड़ी हैं। न आदिवासियों का उत्थान हुआ न बेरोजगारी घटी। न कृषि में क्रांति आई और न उद्योग-धन्धों में निवेश बढ़ा। हाँ, कुछ शिलान्यास जरूर हुए, बड़े-बड़े घोटालों को अंजाम दिया गया। यों जनता अपने भरोसे ही जी रही है, सिसक रही है। इस बीच एक और ‘विकास’ हुआ। विधायकों, मंत्रियों और मुख्य मंत्रियों की संख्या बढ़ी। बहुमत न रहने पर भी झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन 10 दिनों तक मुख्यमंत्री बन बैठे। इस बार बेटे को मुख्यमंत्री बनाने की जिद्द में मुण्डा की सरकार गिरा दी। राज्य में राजनीतिक स्थिरता का प्रथम  मंत्र विधान सभा में सीटों की संख्या बढ़ाने से संबद्ध है। कहा गया है कि सीटें बढ़ेंगी तो जन प्रतिनिधित्व बढ़ेगा और बहुमत की सम्भावना भी बनी रहेगी। झारखण्ड विधान सभा ने इस सम्बंध में 5 बार प्रस्ताव पारित कर केंद्र को भेजा पर मंजूरी नहीं मिली। यहां द्रष्टव्य है कि हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ या पूर्वोत्तर के छोटे राज्यों में आखिर किसी प्रकार एक दल को बिना सीट बढ़ाए ही बहुमत मिलता है। वास्तव में राज्य के 4 मुख्य क्षेत्रों छोटानागपुर, सिंहभूम, पलामू व संताल परगना की गतिविधियों में घुलने-मिलने वाले दल को ही बहुमत मिलना संभव है। क्षेत्रीय व बड़े दलों को निहित स्वार्थ छोड़कर राज्य की तकदीर बदलने का प्रयास तो करना ही चाहिए।

शुक्रवार, 3 मई 2013

सरबजीत की हत्या के कई अनुत्तरित प्रश्न




14 अगस्त 1947 की काली रात को जो निर्णय हुआ, उसी का परिणाम है कि भारत का एक हिस्सा ‘पाकिस्तान’ के नाम से नये देश के रूप में अस्तित्व में आया। देश के बंटवारे के तुरंत बाद ही पाकिस्तान ने अपना असल रूप दिखाया और गैर-मुस्लिमों पर कहर बरपाया। लाखों घायल हिन्दू व सिक्ख घर-सम्पत्ति छोड़ प्राण बचाने को भारतीय सीमा में दाखिल हुए। उसी दौरान उसने जम्मू-कश्मीर का बड़ा हिस्सा अपने कब्जे में ले लिया और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की कमजोरी व अदूरदर्शिता के कारण वह क्षेत्र आज भी पाकिस्तान के ही कब्जे में है। इसे ‘पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर’ कहा जाता है। फिर 1965 व 1971 में उसने युद्ध किया और पराजित हुआ। वाजपेयी काल में कारगिल युद्ध में उसे फिर भारत ने शिकस्त दी। तब भी वह गाहे-ब-गाहे भारत को परेशान करने से बाज नहीं आ रहा। कुछ सप्ताह पूर्व भारतीय सैनिकों का सिर काट लिया जिसका जख्म भरा भी नहीं कि भारतीय नागरिक सरबजीत की लाहौर के कोट लखपत कारावास में हत्या कर दी गई। इन तमाम प्रकरणों में भारत सरकार की कमजोरी और अदूरदर्शिता ही झलकती है। सारे कूटनीति धरे-के-धरे रह गये। गलत पहचान के चक्कर में फँसकर फँासी की सजा पाए सरबजीत का पक्ष सही ढंग से भारत की सरकार नहीं रख पाई और न ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकार संगठनों के सहयोग से पाकिस्तान पर दबाव ही बना पाई।

दरअसल, लाहौर और मुल्तान विस्फोट के आरोप में 1990 में सरबजीत को फाँसी की सजा पाकिस्तानी न्यायालय ने दी। तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने उनकी दया याचिका को ठुकरा दी। वही मुशर्रफ आज अपने ही देश में दया का पात्र बने हैं, जेल में बंद हैं। वास्तव में नशे की हालत में सरबजीत सीमा पार कर पाकिस्तान में चला गया और उसी दौरान हुए विस्फोट में उन्हें मुख्य अभियुक्त बना दिया गया। पाकिस्तान उन्हें कभी ‘मंजीत सिंह’ तो कभी ‘खुशी मोहम्मद’ का नाम देता रहा। करीब 23 वर्षों तक पाकिस्तानी कारावास में प्रताड़ित होने वाले सरबजीत को मौत की सजा पाए दो पाक कैदियों आमिर व मुदस्सर ने 26 अप्रैल को जेल में ही मार डाला। वास्तव में मृत शरीर ही जिन्ना अस्पताल में रखी थी और ‘सर्वोत्तम इलाज’ की नौटंकी जारी थी। अन्ततः शव भारत पहुंचा और बहन दलवीर कौर की आग सरबजीत को मयस्सर हुई। जैसा हर चर्चित मौत के बाद होता है, वैसा इस बार भी हुआ। सभी दलों के नेता भिखिविण्ड पहुँचकर मातमपुर्सी का कोरम पूरा कर आए। इसमें बाजी मार गए पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश ंिसंह बादल। परिजन को एक करोड़ रुपये का वजीफा दिया और मृतक सरबजीत के लिए विधानसभा से ‘शहीद’ का प्रस्ताव पारित करवा लिया। साथ ही शहीद की दोनों पुत्रियों को सरकारी नौकरी का आश्वासन भी दे आए। ऊपर से तीन दिनों का राजकीय शोक भी घोषित कर दिया और अंतिम संस्कार भी राजकीय सम्मान के साथ करवाया। यदि बादल इस ‘उपकार’ को चुनाव में भुनाएंगे तो कोई आपत्ति भी नहीं कर पाएगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने परिजन को 25 लाख रुपये देने की घोषणा की तो राहुल गांधी दलवीर कौर को गले लगाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री की। इसे कहते हैं चट मौत, पट राजनीतिक फायदा!

इन दिनों पाकिस्तान में चुनावी माहौल है। ऐसे में सरबजीत का खात्मे को जरदारी की पार्टी भुनाने भी लगी। हालाँकि कहने को न्यायिक जांच जारी है और दोनों नामजद अभियुक्तों पर मामला दर्ज किया गया है। पाकिस्तानी पंजाब के कार्यकारी मुख्यमंत्री नजम सेठी आखिर जांच करवाकर करेंगे क्या? जिन अभियुक्तों पर मामला दर्ज हुआ, वे तो पहले ही मौत की सजा पा चुके हैं। अब उन्हें दोषी पाने पर भी कौन-सी सजा होगी? वैसे सरबजीत की हत्या ने कई प्रश्न खड़े किये हैं। सरबजीत की मौत 26 अप्रैल को ही हो गई थी, इसका पता भारत सरकार को भी था। तभी तो भारत सरकार ने चिकित्सकों की टीम न भेजकर पाकिस्तान में अपनी न्यायिक टीम भेजी। जाहिर है कि लाश को इलाज की दरकार नहीं होती।  इसी तरह अस्पताल से कोई मेडिकल रिपोर्ट जारी नहीं हुई। इस दौरान भारतीय उच्चायोग के अधिकारी सरबजीत से नहीं मिले। नियमानुसार अंतर्राष्ट्रीय अभियुक्त की स्थिति में सम्बन्धित देश के दूतावास के अधिकारी नियमित रूप से अभियुक्त का कुशल क्षेम लेते हैं। पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग का प्रश्न है कि क्या जेल प्रशासन के सहयोग के बिना सरबजीत ही हत्या सम्भव थी? जेल अधिकारियों पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई? इस बाबत भारत सरकार कोई सफाई नहीं दे पा रही है। ऊपर से केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल कहते हैं कि भारत-पाक वार्ता पर इस हत्या का असर नहीं पड़ेगा। यह सरकारी बयान तब आया जब विपक्षी भारतीय जनता पार्टी ने पाकिस्तान से सारे राजनयिक सम्बन्ध तोड़ लेेने की बात कही है। ऐेसे ही कुछ सुलगते और बूझते प्रश्नों के बीच विश्व के कारावासों में कैद 6569 भारतीयों को भारत सरकार से कोई अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। यों सरबजीत की हत्या के बाद 253 अन्य भारतीय पाकिस्तान में कैद हैं। क्या उन्हें मुक्त कराने के प्रयास होंगे या इनके भी सरबजीत जैसे हश्र का इंतजार करेगी भारत सरकार?