सोमवार, 6 मई 2013

दाग धोने में लगी सीबीआइ


    वर्तमान हालातों में यह स्पष्ट हो गया कि सीबीआइ की हर जांच व गतिविधि को सरकार प्रभावित करती है। ऐसे में सीबीआइ की साख धूमिल हुई और उसकी जांच को भी निष्पक्ष नहीं माना जा सकता। हालाँकि खुलासा करके सीबीआइ ने अपने दाग धोने के प्रयास किये। पर, यह दाग अधिवक्ता के काले कोट पर लगे दाग की तरह नहीं; बल्कि अधिवक्ता के सफेद शर्ट पर लगे दाग की तरह है जो दीखता है, दीखता रहेगा।

विधि मंत्री अश्विनी कुमार

    सोमवार को एक और सच देश के सामने आया। इस सच ने कई दिग्गजों के झूठ को बेनकाब कर दिया। सच-दर-सच उद्घाटित होते जा रहे हैं और लगातार मौन धारण किये रहने वाले प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की सरकार कटघरे में नजर आ रही है। सोमवार वाला सच ऐसा है जिसमें सीधा मनमोहन सिंह का कार्यालय भी कटघरे में दीख रहा है। इसमें केन्द्रीय मंत्रियों के साथ-साथ उच्च पदस्थ प्रशासनिक व न्यायिक अधिकारियों की भी पोल-पट्टी खुल गई है। यह खुलासा किया है केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) के निदेशक रंजीत सिन्हा ने। सिन्हा ने सर्वोच्च न्यायालय में उन नामों को उजागर किया जिन्होंने कोयला ब्लॉक आवंटन घोटाले की जाँच रपट में रद्दोबदल करवाए। दरअसल, सर्वोच्च न्यायालय ने 12 अप्रैल को सीबीआइ से पूछा कि कोयला घोटाले की रपट किसी से साझा तो नहीं की गई। 26 अप्रैल को रंजीत सिन्हा ने न्यायालय को बताया कि रपट को प्रधान मंत्री कार्यालय, विधि मंत्रालय व कोयला मंत्रालय से साझा कर उसमें फेर-बदल किये गए। तब सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप करने वालों के नाम बताने का आदेश दिया। उसी आदेश का पालन करते हुए जब सोमवार को सीबीआइ ने नामों की घोषणा की तो कई दिग्गजों के झूठ पकड़े गए और केन्द्रीय राजनीति में भूचाल आ गया। वास्तव में कोयला महाघोटाला एक लाख 76 हजार करोड़ रुपये का है। सीबीआइ के इस खुलासे ने सीने तक भ्रष्टाचार में डूबी केन्द्र सरकार को अब गर्दन तक डूबो दिया है। विपक्षी भारतीय जनता पार्टी चाहती है कि सरकार की गर्दन भी डूब जाए, प्रधान मंत्री त्याग पत्र दे दें।
प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह, सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा व विधि मंत्री अश्विनी कुमार

    सीबीआइ ने सर्वोच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति आरएम लोढ़ा की खण्डपीठ को एक शपथ पत्र के माध्यम से विधि मंत्री अश्विनी कुमार, अटार्नी जनरल जीई वाहनवती, एडिशनल सॉलिसिटर जनरल हरीन पी. रावल, प्रधान मंत्री कार्यालय और इस कार्यालय के संयुक्त सचिव शत्रुघ्न सिंह, कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल, कोयला मंत्रालय के संयुक्त सचिव अजय कुमार भल्ला के नाम बताए। कोयले के रंग में इन सबके चेहरे काले नजर आने लगे हैं। यह कालापन और गहराएगा जब कल सर्वोच्च न्यायालय इसपर अगली सुनवाई करेगा। हालाँकि इस मामले में सीबीआइ निदेशक ने न्यायालय से बिना शर्त्त क्षमा मांगी कि उन्होंने नियमित सुनवाई के दौरान ये खुलासे नहीं किये। यदि न्यायालय यह स्पष्टीकरण नहीं मांगता तो इस गंभीर बात को रंजीत सिन्हा हजम ही कर जाते। ऐसे में वे किस हद तक क्षमा के पात्र हो सकते हैं? वैसे चर्चित अधिवक्ता प्रशान्त भूषण के अनुसार, अटार्नी जनरल वाहनवती पर कोर्ट के अवमानना का मामला चलना चाहिए; क्योंकि उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में स्वीकार किया था कि वे सीबीआइ की रपट को देखे ही नहीं जबकि वे रद्दोबदल वाली बैठक में शामिल थे। रद्दोबदल के लिए 3 बैठकें हुईं- विधि मंत्री के कार्यालय में, अटार्नी जनरल के साथ व सीबीआइ कार्यालय में। सीबीआइ के इस खुलासे के केन्द्र में विधि मंत्री अश्विनी कुमार हैं। यह जाहिर हो गया है कि अबतक अश्विनी झूठ बोलते रहे। यदि वे सच बोल रहे थे तो खुलासे के तुरंत बाद बचाव के उपाय पर मंथन करने प्रधान मंत्री के पास क्यों गए? वास्तव में अश्विनी ने सीबीआइ की रपट में से पूरा एक अवतरण ही निकलवा दिया। क्या रद्दोबदल हुए यह भी न्यायालय जानना चाहता है जिसे सीबीआइ बन्द लिफाफे के माध्यम से अवगत कराएगी। मतलब यह कि केन्द्र सरकार की परेशानी को सीबीआइ अभी और बढ़ाएगी।

    अब तक राजनीतिक व सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा केन्द्र सरकार पर यह आरोप लगाया जाता रहा कि सीबीआइ को उसने कठपुतली बनाकर रखा है। इसलिए सरकार के साथ जनलोकपाल की बैठकों में अन्ना हजारे और उनके सहयोगी सीबीआइ को सरकार के नियंत्रण से मुक्त कर जनलोकपाल के अधीन लाने की मांग करते रहे। पर, सरकार अन्त तक नहीं मानी। वर्तमान हालातों में यह स्पष्ट हो गया कि सीबीआइ की हर जांच व गतिविधि को सरकार प्रभावित करती है। ऐसे में सीबीआइ की साख धूमिल हुई और उसकी जांच को भी निष्पक्ष नहीं माना जा सकता। हालाँकि खुलासा करके सीबीआइ ने अपने दाग धोने के प्रयास किये। पर, यह दाग अधिवक्ता के काले कोट पर लगे दाग की तरह नहीं; बल्कि अधिवक्ता के सफेद शर्ट पर लगे दाग की तरह है जो दीखता है, दीखता रहेगा। इस पूरे मामले में एक बार फिर प्रधान मंत्री ने मौन साध रखा है। हालाँकि कोयले की कालिख उनके कार्यालय पर भी लगी है। इस बीच काँग्रेस एक बार फिर मनमोहन सिंह की व्यक्गित इमानदारी की दुहाई देती हुई भ्रष्टाचारियों को बचाने में लगी है। उधर मुख्य विपक्षी भाजपा संसद के दोनों सदनों को चलने नहीं दे रही है। वह प्रधान मंत्री, विधि मंत्री व रेल मंत्री के त्याग पत्र से कम पर फिलहाल मानने के मूड में नहीं है। इस बीच आपके साथ हम भी प्रतीक्षा करते हैं 8 मई के सर्वोच्च न्यायालय के रुख का।

रेलमंत्री पवन बंसल का निराला खेल


  
विश्व में सर्वाधिक रोजगार देनेवाला संगठन ‘भारतीय रेल’ इन दिनों कुछ ज्यादा ही चर्चा में है। यह चर्चा इसलिए नहीं कि भारतीय रेल ने कोई अनुकरणीय या प्रशंसनीय कीर्तिमान बनाया है; बल्कि इसलिए कि पहली बार रेलमंत्री का कोई इतना करीबी बड़े रिश्वत काण्ड में केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) की गिरफ्त में आया है। मामला केवल रेल बोर्ड के उच्च पद पर रिश्वत लेकर नियुक्ति का ही नहीं है; बल्कि इस वर्ष रेलवे में होने वाली 51 हजार नियुक्तियों में भी अरबों का बंदरबांट होने वाला था। यदि कोल ब्लॉक मामले में सीबीआइ की सर्वोच्च न्यायालय में फजीहत न हुई होती तो यकीन मानिये कि यह रिश्वत मामला उजागर न होता। कोल ब्लॉक जांच प्रकरण में सीबीआइ पर आरोप लगा कि वह केन्द्र सरकार की कठपुतली है। सीबीआइ निदेशक रंजीत सिन्हा को सर्वोच्च न्यायालय में स्वीकारना पड़ा कि उसने एक लाख 76 हजार करोड़ रुपये के कोल ब्लॉक घोटाले में केन्द्र सरकार से मिलकर आरोप पत्र तैयार किया। अपनी इसी शर्मिन्दगी से उबरने की बौखलाहट में सीबीआइ ने रेल मंत्रालय को कटघरे में खड़ा किया। त्वरित कार्रवाई में 10 को गिरफ्तार कर 12 करोड़ रुपयों के डील में से पेशगी के 90 लाख रुपये जब्त भी किये गए। गिरफ्त में आए आरोपितों में रेलमंत्री पवन कुमार बंसल के भांजे विजय सिंगला सहित अन्य करीबी भी हैं। मजे की बात कि जिस तरह 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में तत्कालीन संचार मंत्री ए. राजा की तरफदारी प्रधानमंत्री व कांग्रेस की तरफ से की गई, वैसा ही बचाव बंसल का किया जा रहा है।

    काँग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए-2 की केन्द्र सरकार भ्रष्टाचार के तमाम कीर्तिमान ध्वस्त कर चुकी है। राजा तो कारावास में भी गए, इसके अलावा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व उनका कार्यालय सहित अश्विनी कुमार, श्रीप्रकाश जायसवाल, चिदम्बरम, सिब्बल, सलमान खुर्शीद जैसे कई केन्द्रीय मंत्रियों पर विभिन्न आरोप लगे हैं। इतने आरोपित मंत्रियों वाली यह विश्व की पहली सरकार है। ऐसे में भाजपा प्रवक्ता प्रकाश जावडे़कर कहते हैं कि केन्द्रीय मंत्रियों में देश को लूटने की होड़ लगी है और काँग्रेस को देश को लूटने का रोग लग गया है। आलोच्य विषय पर दृष्टिपात करें तो पाएंगे कि रेलमंत्री बंसल के कई कदम सवालों के घेरे मेें हैं। रेल बजट में चंडीगढ़-पंजाब के आगे अन्य राज्यों की उपेक्षा पर बिहार, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश व पश्चिम बंगाल से विरोध के स्वर उभरे। रेल मंत्रालय में आते ही वीके गुप्ता को उत्तर रेलवे का महाप्रबंधक बनाया और उनसे वरिष्ठ अधिकारियों की अनदेखी की। मंत्रालय की कारगुजारी बाहर न जाए इसलिए मीडिया सलाहकार नियुक्त ही नहीं किया। ऊपर से कुछ और, अंदर से कुछ और करते रहे। खर्च घटाने के नाम पर कुछ समितियों को भंग कर उनकी शक्तियां अपने चहेते अधिकारियों में निहित कर दी। कुछ महीनों के रेल मंत्रित्व काल में 2 बार किराया बढ़ा चुके हैं। रेल बजट से पूर्व की वृद्धि के बाद बजट में ईंधन अधिभार लगाकर पुनः किराए में वृद्धि की। बजट पूर्व की वृद्धि का मकसद बंसल समझा नहीं पाए। जब इस वृद्धि का निर्णय हुआ उस समय दिल्ली के तमाम रेल पत्रकार मुम्बई में थे। वहां उनके मोबाइल फोन पर सूचना दी गई। पत्रकारों को पश्चिम रेलवे के महाप्रबंधक महेश कुमार से मिलवाया गया जो अब सीबीआइ की गिरफ्त में हैं। दिल्ली आकर पत्रकारों ने इस हड़बड़ी का मकसद पूछा तो बंसल का जवाब था- मैं आपको कारण नहीं बता सकता। आखिर किसने उन्हें कारण बताने से रोका था? रेलवे बोर्ड में हाल में सदस्य बने और अब निलम्बित महेश कुमार पर बंसल की विशेष कृपा के फलस्वरूप ही इस वर्ष रेलवे में होनेवाली 51 हजार बहालियाँ उन्हीं की देख-रेख में होनेवाली थी। 12 करोड़ लगाकर इन बहालियों में अरबों कमाने के स्वप्न को सीबीआइ ने भंग कर दिया।

    इधर नई बात सामने आई है। बंसल के भांजे, भतीजे व बेटे का आपस में कारोबारी रिश्ता भी है। जेटीएल इन्फ्रा में बंसल का भतीजा व भांजा जबकि एक अन्य कम्पनी रौनक एनर्जी में बेटा व भतीजा पार्टनर हैं। अपने ऊपर लगे लांछन को आसानी से रेलमंत्री नहीं धो सकते; क्योंकि उनके घर का पता ही उनके भतीजे का पता है। तभी तो भाजपा नेता किरीट सोमैया सप्रमाण कहते हैं कि बंसल का पूरा परिवार रेल घूस काण्ड में सहभगी है। यहां ‘कमाई’ का एक अन्य स्रोत ढूँढा गया। रेलमंत्री ने अकारण ही रेलवे कैटरिंग का नया ठेका 20 मई तक देने की घोषणा कर रखी है। ऐसे में ठेकों के नवीनीकरण की प्रक्रिया पूरी होने से पूर्व ही रेल का खान-पान महंगा हो गया मगर इस ओर बंसल का ध्यान ही नहीं गया। ऐसे में उनका यह कहना कि वे सदा ईमानदारी का उच्च मानक कायम रखते हैं, सत्य से परे ही महसूस होता है। अपने देश मंे एक बात सदा से चली आ रही है कि किसी भी घपले में फँसने पर त्याग पत्र मांगा जाता है, उस आरोपित पर कार्रवाई की माँग नहीं होती। इस बार भी विपक्षी भाजपा व अन्य बंसल का त्याग पत्र मांग रहे हैं, उनपर कार्रवाई की बात कोई नहीं कर रहा। क्या करोड़ों-अरबों डकारने के बाद त्यागपत्र दे देेने से ही वह शख्स पाक-साफ हो जाता है?

शनिवार, 4 मई 2013

राजनीतिक अस्थिरता के दौर में झारखण्ड




अगले कुछ दिनों में झारखण्ड विधान सभा भंग हो सकती है। तब निर्वाचन अवश्यम्भावी हो जाएगा। पर, इस बात की गारण्टी कदापि नहीं होगी कि किसी दल को बहुमत मिलेगा और राज्य में अस्थिर सरकारों का दौर खत्म हो जाएगा। 12 वर्ष 5 माह और 20 दिनों के झारखण्ड में राजनीतिक अस्थिरता का दौर अभी भी जारी है। इस अवधि में 8 सरकारें बनीं और तीसरी बार इसी वर्ष 18 जनवरी को राष्ट्रपति शासन लगा जो जारी है। 5 वर्षों की संवैधानिक अवधि को किसी भी सरकार ने पूरा नहीं किया। सर्वाधिक लम्बी अवधि तक भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बाबूलाल मराण्डी ही प्रथम मुख्यमंत्री के रूप में कार्यरत रहे। 15 नवम्बर 2000 से 18 मार्च 2003 तक के 860 दिनों तक मराण्डी की सरकार ने शासन किया। फिर भाजपा के ही अर्जुन मुण्डा पहली बार 18 मार्च 2003 को दूसरे मुख्यमंत्री बने। तब मराण्डी ने भाजपा का दामन छोड़ अलग दल ‘झारखण्ड विकास मोर्चा’ (झाविमो) का गठन किया। वर्तमान निलम्बित विधान सभा में झाविमो के 11 विधायक हैं। 81 निर्वाचित सदस्यों वाले झारखण्ड विधान सभा में प्रथम सरकार को छोड़कर कभी भी एक दल की सरकार नहीं बनी। कारण है कि किसी दल को बहुमत मिला ही नहीं। राज्य में अबतक कांग्रेस की सरकार नहीं बनी। भाजपा के नेतृत्व में सरकारें बनीं भी तो स्थिर नहीं रह पाईं। 7 सरकारें क्षेत्रीय दलों के सहयोग से बनीं और बेमौत मारी गयीं। पिछली अर्जुन मुण्डा की सरकार में झारखण्ड मुक्ति मार्चा (झामुमो), ऑल झारखण्ड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू), जदयू व अन्य शामिल थे। जनवरी में झामुमो ने कंधे का सहारा देना बंद किया और धराशायी हो गई मुण्डा की सरकार।
झारखण्ड में लगातार जारी राजनीतिक अस्थिरता ने छोटे राज्यों की अवधारणा पर ही प्रश्न खड़ा कर दिया है। छोटे राज्यों के गठन का मुख्य मुद्दा अच्छा शासन और दु्रत विकास ही रहा है। इसके विपरीत झारखण्ड में कुशासन, भ्रष्टाचार, भयादोहन और राजनीतिक दलों द्वारा सौदेबाजी का बोलवाला है। राष्ट्रीय दल आगे बढ़े तो क्षेत्रीय दलों ने अड़ंगा लगाया। इससे क्षेत्रीय दलों की फूट से सरकार बन नहीं पाती, चल नहीं पाती। आज का झारखण्ड वास्तव में एकीकृत बिहार में ‘दक्षिण बिहार’ कहलाता था। उस दौरान राजधानी पटना में बैठे शासक वर्ग का ध्यान दक्षिण बिहार पर बहुत कम गया। इसलिए यहां क्षेत्रीय दल उभरे। क्षेत्रीय दलों या निर्दलीय विधायकों की बढ़ती संख्या के पीछे एक कारण यह भी है कि बड़े या राष्ट्रीय दल जनता के सामने विकास का बड़ा चित्र प्रस्तुत नहीं कर सके। वर्ष 1951 के बिहार विधान सभा निर्वाचन में क्षेत्रीय दल ‘झारखण्ड पार्टी’ को 32 सीटें दक्षिण बिहार में मिलीं। इसी तरह वर्ष 2000 के निर्वाचन में भाजपा को  34 सीटों पर विजयश्री मिली, वह इसलिए कि पार्टी ने पृथक झारखण्ड के नाम पर मत मांगा था। उसके बाद इतनी सीटें किसी के पास नहीं आईं और राजनीतिक स्थिरता एक तरह से राज्य की ‘तकदीर’ बन गई।
राजनीतिक अस्थिरता की नकारात्मक तकदीर से सर्वाधिक क्षति राज्य के आमजन को हुई। कई योजनाएं-परियोजनाएं अधूरी पड़ी हैं। न आदिवासियों का उत्थान हुआ न बेरोजगारी घटी। न कृषि में क्रांति आई और न उद्योग-धन्धों में निवेश बढ़ा। हाँ, कुछ शिलान्यास जरूर हुए, बड़े-बड़े घोटालों को अंजाम दिया गया। यों जनता अपने भरोसे ही जी रही है, सिसक रही है। इस बीच एक और ‘विकास’ हुआ। विधायकों, मंत्रियों और मुख्य मंत्रियों की संख्या बढ़ी। बहुमत न रहने पर भी झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन 10 दिनों तक मुख्यमंत्री बन बैठे। इस बार बेटे को मुख्यमंत्री बनाने की जिद्द में मुण्डा की सरकार गिरा दी। राज्य में राजनीतिक स्थिरता का प्रथम  मंत्र विधान सभा में सीटों की संख्या बढ़ाने से संबद्ध है। कहा गया है कि सीटें बढ़ेंगी तो जन प्रतिनिधित्व बढ़ेगा और बहुमत की सम्भावना भी बनी रहेगी। झारखण्ड विधान सभा ने इस सम्बंध में 5 बार प्रस्ताव पारित कर केंद्र को भेजा पर मंजूरी नहीं मिली। यहां द्रष्टव्य है कि हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ या पूर्वोत्तर के छोटे राज्यों में आखिर किसी प्रकार एक दल को बिना सीट बढ़ाए ही बहुमत मिलता है। वास्तव में राज्य के 4 मुख्य क्षेत्रों छोटानागपुर, सिंहभूम, पलामू व संताल परगना की गतिविधियों में घुलने-मिलने वाले दल को ही बहुमत मिलना संभव है। क्षेत्रीय व बड़े दलों को निहित स्वार्थ छोड़कर राज्य की तकदीर बदलने का प्रयास तो करना ही चाहिए।

शुक्रवार, 3 मई 2013

सरबजीत की हत्या के कई अनुत्तरित प्रश्न




14 अगस्त 1947 की काली रात को जो निर्णय हुआ, उसी का परिणाम है कि भारत का एक हिस्सा ‘पाकिस्तान’ के नाम से नये देश के रूप में अस्तित्व में आया। देश के बंटवारे के तुरंत बाद ही पाकिस्तान ने अपना असल रूप दिखाया और गैर-मुस्लिमों पर कहर बरपाया। लाखों घायल हिन्दू व सिक्ख घर-सम्पत्ति छोड़ प्राण बचाने को भारतीय सीमा में दाखिल हुए। उसी दौरान उसने जम्मू-कश्मीर का बड़ा हिस्सा अपने कब्जे में ले लिया और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की कमजोरी व अदूरदर्शिता के कारण वह क्षेत्र आज भी पाकिस्तान के ही कब्जे में है। इसे ‘पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर’ कहा जाता है। फिर 1965 व 1971 में उसने युद्ध किया और पराजित हुआ। वाजपेयी काल में कारगिल युद्ध में उसे फिर भारत ने शिकस्त दी। तब भी वह गाहे-ब-गाहे भारत को परेशान करने से बाज नहीं आ रहा। कुछ सप्ताह पूर्व भारतीय सैनिकों का सिर काट लिया जिसका जख्म भरा भी नहीं कि भारतीय नागरिक सरबजीत की लाहौर के कोट लखपत कारावास में हत्या कर दी गई। इन तमाम प्रकरणों में भारत सरकार की कमजोरी और अदूरदर्शिता ही झलकती है। सारे कूटनीति धरे-के-धरे रह गये। गलत पहचान के चक्कर में फँसकर फँासी की सजा पाए सरबजीत का पक्ष सही ढंग से भारत की सरकार नहीं रख पाई और न ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकार संगठनों के सहयोग से पाकिस्तान पर दबाव ही बना पाई।

दरअसल, लाहौर और मुल्तान विस्फोट के आरोप में 1990 में सरबजीत को फाँसी की सजा पाकिस्तानी न्यायालय ने दी। तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने उनकी दया याचिका को ठुकरा दी। वही मुशर्रफ आज अपने ही देश में दया का पात्र बने हैं, जेल में बंद हैं। वास्तव में नशे की हालत में सरबजीत सीमा पार कर पाकिस्तान में चला गया और उसी दौरान हुए विस्फोट में उन्हें मुख्य अभियुक्त बना दिया गया। पाकिस्तान उन्हें कभी ‘मंजीत सिंह’ तो कभी ‘खुशी मोहम्मद’ का नाम देता रहा। करीब 23 वर्षों तक पाकिस्तानी कारावास में प्रताड़ित होने वाले सरबजीत को मौत की सजा पाए दो पाक कैदियों आमिर व मुदस्सर ने 26 अप्रैल को जेल में ही मार डाला। वास्तव में मृत शरीर ही जिन्ना अस्पताल में रखी थी और ‘सर्वोत्तम इलाज’ की नौटंकी जारी थी। अन्ततः शव भारत पहुंचा और बहन दलवीर कौर की आग सरबजीत को मयस्सर हुई। जैसा हर चर्चित मौत के बाद होता है, वैसा इस बार भी हुआ। सभी दलों के नेता भिखिविण्ड पहुँचकर मातमपुर्सी का कोरम पूरा कर आए। इसमें बाजी मार गए पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश ंिसंह बादल। परिजन को एक करोड़ रुपये का वजीफा दिया और मृतक सरबजीत के लिए विधानसभा से ‘शहीद’ का प्रस्ताव पारित करवा लिया। साथ ही शहीद की दोनों पुत्रियों को सरकारी नौकरी का आश्वासन भी दे आए। ऊपर से तीन दिनों का राजकीय शोक भी घोषित कर दिया और अंतिम संस्कार भी राजकीय सम्मान के साथ करवाया। यदि बादल इस ‘उपकार’ को चुनाव में भुनाएंगे तो कोई आपत्ति भी नहीं कर पाएगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने परिजन को 25 लाख रुपये देने की घोषणा की तो राहुल गांधी दलवीर कौर को गले लगाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री की। इसे कहते हैं चट मौत, पट राजनीतिक फायदा!

इन दिनों पाकिस्तान में चुनावी माहौल है। ऐसे में सरबजीत का खात्मे को जरदारी की पार्टी भुनाने भी लगी। हालाँकि कहने को न्यायिक जांच जारी है और दोनों नामजद अभियुक्तों पर मामला दर्ज किया गया है। पाकिस्तानी पंजाब के कार्यकारी मुख्यमंत्री नजम सेठी आखिर जांच करवाकर करेंगे क्या? जिन अभियुक्तों पर मामला दर्ज हुआ, वे तो पहले ही मौत की सजा पा चुके हैं। अब उन्हें दोषी पाने पर भी कौन-सी सजा होगी? वैसे सरबजीत की हत्या ने कई प्रश्न खड़े किये हैं। सरबजीत की मौत 26 अप्रैल को ही हो गई थी, इसका पता भारत सरकार को भी था। तभी तो भारत सरकार ने चिकित्सकों की टीम न भेजकर पाकिस्तान में अपनी न्यायिक टीम भेजी। जाहिर है कि लाश को इलाज की दरकार नहीं होती।  इसी तरह अस्पताल से कोई मेडिकल रिपोर्ट जारी नहीं हुई। इस दौरान भारतीय उच्चायोग के अधिकारी सरबजीत से नहीं मिले। नियमानुसार अंतर्राष्ट्रीय अभियुक्त की स्थिति में सम्बन्धित देश के दूतावास के अधिकारी नियमित रूप से अभियुक्त का कुशल क्षेम लेते हैं। पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग का प्रश्न है कि क्या जेल प्रशासन के सहयोग के बिना सरबजीत ही हत्या सम्भव थी? जेल अधिकारियों पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई? इस बाबत भारत सरकार कोई सफाई नहीं दे पा रही है। ऊपर से केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल कहते हैं कि भारत-पाक वार्ता पर इस हत्या का असर नहीं पड़ेगा। यह सरकारी बयान तब आया जब विपक्षी भारतीय जनता पार्टी ने पाकिस्तान से सारे राजनयिक सम्बन्ध तोड़ लेेने की बात कही है। ऐेसे ही कुछ सुलगते और बूझते प्रश्नों के बीच विश्व के कारावासों में कैद 6569 भारतीयों को भारत सरकार से कोई अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। यों सरबजीत की हत्या के बाद 253 अन्य भारतीय पाकिस्तान में कैद हैं। क्या उन्हें मुक्त कराने के प्रयास होंगे या इनके भी सरबजीत जैसे हश्र का इंतजार करेगी भारत सरकार?



बुधवार, 24 अप्रैल 2013

अध्यात्म ही परम ज्ञान : स्वामी विवेकानन्द Spirituality Is The Supreme Knowledge : Swami Vivekananda

अध्यात्म ही मनुष्य का परम ज्ञान स्वामी विवेकानन्द


 -प्रस्तोता : शीतांशु कुमार सहाय 
शिक्षा का अर्थ है, उस पूर्णता की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले से ही विद्यमान है।जिस प्रकार बहुत सी नदियां, जिनका उद्रम विभिन्न पर्वतों से होता है, टेढ़ी या सीधी बहकर अंत में समुद्र में ही गिरती हैं, उसी प्रकार ये सभी विभिन्न संप्रदाय तथा धर्म, जो विभिन्न दृष्टि-बिंदुओं से प्रकट होते हैं, सीधे या टेढ़े मार्गों से चलते हुए अंतत: तुम्हीं को प्राप्त होते हैं। किसी एक धर्म का सत्य होना अन्य सभी धर्मों के सत्य होने के ऊपर निर्भर करता है। उदाहरण-स्वरूप, अगर मेरे छ: अंगुलियां हैं और किसी दूसरे व्यक्ति के नहीं हैं, तो तुम कह सकते हो कि मेरे छ: अंगुलियों का होना असामान्य है। यही बात इस तर्क के संबंध में भी कही जा सकती है कि कोई एक धर्म सत्य है और अन्य सभी झूठे हैं। किसी एक धर्म का सत्य होना वैसे ही अस्वाभाविक है, जैसे संसार में किसी एक ही व्यक्ति के छ: अंगुलियों का होना। इस तरह हम देखते हैं कि अगर कोई एक धर्म सत्य है, तो अन्य सभी धर्म भी सत्य हैं। उनके अधारभूत तत्त्वों में अंतर पड़ सकता है, पर तत्त्वत: सभी एक हैं। अगर मेरी पांचों अंगुलियां सत्य हैं, तो वे सिद्ध करती हैं कि तुम्हारी पांचों अंगुलियां भी सत्य हैं।  क्या धर्म को भी स्वयं को उस बुद्धि के आविष्कार द्वारा सत्य प्रमाणित करना है, जिसकी सहायता से अन्य सभी विज्ञान अपने को सत्य सिद्ध करते हैं? ब्राह्म ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जिन अन्वेषण-पद्धतियों का प्रयोग होता है, क्या उन्हें धर्म-विज्ञान के क्षेत्र में भी प्रयुक्त किया जा सकता है? मेरा विचार है कि ऐसा अवश्य होना चाहिए और मेरा विश्वास भी है कि यह कार्य जितना शीघ्र हो, उतना ही अच्छा। यदि कोई धर्म इन अंवेषणों के द्वारा ध्वंस प्राप्त हो जाए, तो वह सदा से निरर्थक धर्म था- कोरे अंधविश्वास का, एवं वह जितनी जल्दी दूर हो जाए, उतना ही अच्छा। मेरी अपनी दृढ़ धारणा है कि ऐसे धर्म का लोप होना एक सर्वश्रेष्ठ घटना होगी। सारा मैल धुल जरूर जाएगा, पर इस अनुसंधान के फलस्वरूप धर्म के शाश्वत तत्त्व विजयी होकर निकल आएंगे। वह केवल विज्ञान सम्मत ही नहीं होगा- कम से कम उतना ही वैज्ञानिक जितनी कि भौतिकी या रसायनशास्त्र की उपलब्धियां हैं- प्रत्युत् और भी अधिक सशक्त हो उठेगा, क्योंकि भौतिक या रसायनशास्त्र के पास अपने सत्यों को सिद्ध करने का अंत:साक्ष्य नहीं है, जो धर्म को उपलब्ध है।धर्म का अध्ययन अब पहले की अपेक्षा अधिक व्यापक आधार पर होना चाहिए। धर्म संबंधी सभी संकीर्ण, सीमित, युद्धरत धारणाओं को नष्ट होना चाहिए। संप्रदाय, जाति या राष्ट्र की भावना पर आधारित सारे धर्मों का परित्याग करना होगा। हर जाति या राष्ट्र का अपना-अपना अलग ईश्वर मानना और दूसरों को भ्रांत कहना, एक अंधविश्वास है, उसे अतीत की वस्तु हो जाना चाहिए। ऐसे सारे विचारों से मुक्ति पाना होगा। अब प्रश्न आता है कि क्या धर्म सचमुच कुछ कर सकता है? हां कर सकता है। यह मनुष्य को शाश्वत जीवन प्रदान करता है। आज मनुष्य जिस स्थिति में है, वह धर्म ही की बदौलत है और धर्म ही इस मानव पशु को एक ईश्वर बना देगा। यह है धर्म की क्षमता। 

मानव समाज से धर्म को निकाल दो, फिर शेष क्या बचेगा? पशुओं से भरे जंगल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। जैसे कि मैं अभी कह चुका हूं, इंद्रिय-सुख को मानवता का चरम लक्ष्य मानना महज मूर्खता है, मानव जीवन का लक्ष्य ज्ञान है। पशु जितना आनन्द अपनी इंद्रियों के माध्यम से पाता है, उससे अधिक आनन्द मनुष्य अपनी बुद्धि के माध्यम से अनुभव करता है। साथ ही हम यह भी देखते हैं कि मनुष्य आध्यात्मिक प्रकृति का बौद्धिक प्रकृति से भी अधिक आनन्द प्राप्त करते हैं। इसलिए मनुष्य का परम ज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान ही है। इस ज्ञान के होते ही परमानन्द की प्राप्ति होती है। संसार की सारी चीजें मिथ्या, छाया मात्र हैं, वे परम ज्ञान और आनन्द की तृतीय या चतुर्थ स्तर की अभिव्यक्तियां हैं। मुख्य बात है ईश्वर-प्राप्ति की आकांक्षा। 
हमारे सभी स्वार्थों की पूर्ति बाहरी संसार के द्वारा हो जाती है। अत: हमें ईश्वर के सिवा अन्य सभी वस्तुओं की आकांक्षा होती है। अत: जब हमें इस बाह्म संसार के उस पार की चीजों की आवश्यकता होती है, तभी हम उनकी पूर्ति अंत:स्थ स्त्रोत या ईश्वर से करना चाहते हैं। हमारी आवश्यकताएं जब तक इस भौतिक सृष्टि की संकुचित सीमा के भीतर की वस्तुओं तक ही परिमित रहती हैं, तब तक हमें ईश्वर की कोई जरूरत नहीं पड़ती। जब हम यहां के हर एक चीज से तृप्त होकर ऊब जाते हैं, तभी हमारी दृष्टि अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इस सृष्टि से परे दौड़ती है। जब आवश्यकता होती है, तभी उसकी मांग भी होती है। इसलिए इस संसार की बालक्रिड़ा से, जितनी जल्दी हो सके निपट लो। तभी तुम्हें इस संसार के परे की किसी वस्तु की आवश्यकता प्रतीत होगी और धर्म के प्रथम सोपान पर तुम कदम रख सकोगे।

वैद्यनाथधाम में मुण्डन-संस्कार


झारखंड के देवघर जिले में स्थित वैद्यनाथधाम में मुण्डन-संस्कार का विशेष महत्त्व है। 12 ज्योतिर्लिंगों में एक वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग यहां स्थित हैं। मुण्डन के पश्चात् मन्दिर की परिक्रमा कांवर लेकर करने की परम्परा है। यहां के पण्डे परिक्रमण हेतु कांवर उपलब्ध करवा देते हैं। यहां देखिये चित्रों में वैद्यनाथधाम में मुण्डन-संस्कार। इस सम्बन्ध में कुछ जानकारी भी पाएं जिन्हें स्रोत से प्राप्त किये गए हैं। विदित है कि जीवन में 15 संस्कार और 16वां संस्कार मृत्यु के पश्चात् होता है। इनमें एक मुण्डन-संस्कार भी है जिसके माध्यम से जन्म के साथ आए केशों को सिर से पृथक कर दिया जाता है।





सोलह संस्कार

वैदिक कर्मकाण्ड के अनुसार सोलह संस्कार होते हैं:--

1. गर्भाधान संस्कारः- उत्तम सन्तान की प्राप्ति के लिये प्रथम संस्कार।

2. पुंसवन संस्कारः- गर्भस्थ शिशु के बौद्धि एवं मानसिक विकास हेतु गर्भाधान के पश्चात्् दूसरे या तीसरे महीने किया जाने वाला द्वितीय संस्कार।

3. सीमन्तोन्नयन संस्कारः-
माता को प्रसन्नचित्त रखने के लिये, ताकि गर्भस्थ शिशु सौभाग्य सम्पन्न हो पाये, गर्भाधान के पश्चात् आठवें माह में किया जाने वाला तृतीय संस्कार।

4. जातकर्म संस्कारः- नवजात शिशु के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की कामना हेतु किया जाने वाला चतुर्थ संस्कार।

5. नामकरण संस्कारः- नवजात शिशु को उचित नाम प्रदान करने हेतु जन्म के ग्यारह दिन पश्चात् किया जाने वाला पंचम संस्कार।

6. निष्क्रमण संस्कारः- शिशु के दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग करने की कामना के लिये जन्म के तीन माह पश्चात् चौथे माह में किया जाने वला षष्ठम संस्कार।

7. अन्नप्राशन संस्कारः- शिशु को माता के दूध के साथ अन्न को भोजन के रूप में प्रदान किया जाने वाला जन्म के पश्चात् छठवें माह में किया जाने वाला सप्तम संस्कार।

8. चूड़ाकर्म (मुण्डन) संस्कारः- शिशु के बौद्धिक, मानसिक एवं शारीरिक विकास की कामना से जन्म के पश्चात् पहले, तीसरे अथवा पाँचवे वर्ष में किया जाने वाला अष्टम संस्कार।

9. विद्यारम्भ संस्कारः- जातक को उत्तमोत्तम विद्या प्रदान के की कामना से किया जाने वाला नवम संस्कार।

10. कर्णवेध संस्कारः- जातक की शारीरिक व्याधियों से रक्षा की कामना से किया जाने वाला दशम संस्कार।

11. यज्ञोपवीत (उपनयन) संस्कारः- जातक की दीर्घायु की कामना से किया जाने वाला एकादश संस्कार।

12. वेदारम्भ संस्कारः- जातक के ज्ञानवर्धन की कामना से किया जाने वाला द्वादश संस्कार।

13. केशान्त संस्कारः- गुरुकुल से विदा लेने के पूर्व किया जाने वाला त्रयोदश संस्कार।

14. समावर्तन संस्कारः- गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की कामना से किया जाने वाला चतुर्दश संस्कार।

15. पाणिग्रहण संस्कारः-
पति-पत्नी को परिणय-सूत्र में बाँधने वाला पंचदश संस्कार।

16. अन्त्येष्टि संस्कारः- मृत्योपरान्त किया जाने वाला षष्ठदश संस्कार।

सोलह संस्कारों में आजकल नामकरण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म (मुण्डन), यज्ञोपवीत (उपनयन), पाणिग्रहण और अन्त्येष्टि संस्कार ही चलन में बाकी रह गये हैं।


 मुण्डन संस्कार
इसमें पहली बार बालक के सिर के बाल उतारे जाते हैं। यह कार्य जन्म से एक वर्ष या तीन वर्ष बाद या परिवार की परंपरा के आधार पर और बाद में हो सकता है। चरक का विचार है कि केश, श्मश्रु एवं नखों के काटने एवं प्रसाधन से पौष्टिकता, बल, आयुष्य, शुचिता और सौंदर्य की प्राप्ति होती है। इस संस्कार के पीछे स्वास्थ्य एवं सौंदर्य की भावना ही प्रमुख थी। पहले यह घर पर होता था, किंतु बाद में देवालयों में।

काल निर्धारण
चूड़ाकर्म संस्कार, जिसे 'चौलकर्म' भी कहा जाता है, केवल पुत्र संतति के लिए किया जाता है। इसका अर्थ है- शिशु का मुण्डन पूर्वक 'शिखा' ( चूड़ा ) का निर्धारण करना। सभी हिंदू शास्रकारों ने इसका वर्णन किया है। अधिकतर धर्मशास्रकारों ने इसे जन्म से तीसरे वर्ष में किये जाने का प्रस्ताव किया है, किंतु मनु० (2.35 ) के अनुसार उसे जन्म के प्रथम या तृतीय वर्ष में संपन्न किया जाना चाहिए, अन्य उत्तरकालीन 'संस्कारप्रकाश' आदि संस्कारपद्धतियों में कहा गया है कि चौल कर्म के लिए यद्यपि प्रथम, तृतीय या पंचम वर्षों को सर्वाधिक उपयुक्त समझा गया है, किंतु असुविधा होने पर इसे इससे पूर्व या बाद में अथवा उपनयन संस्कार के साथ भी किया जा सकता है। इसीलिए कई सामाजिक वर्गों में इसे उपनयन के साथ ही किये जाने की परिपाटी पायी जाती है। इस संदर्भ में गृह्यसूत्रकारों का यह भी कहना है कि इसके लिए उत्तरायण का समय अधिक उपयुक्त होता है। 'राजमार्तण्ड' के अनुसार, इसके लिए चैत्र तथा पोष को अधिक उपयुक्त माना जाता है, किंतु 'सारसंग्रह' में ज्येष्ठ तथा पौष को इसके लिए वर्जित कहा गया है।

चूड़ाकर्म का महत्व
इस संस्कार का संबंध प्रमुख रुप से शिशु की स्वास्थ्य रक्षा के साथ माना गया है। इससे बालक की आयुवृद्धि होती है, वह यशस्वी एवं मंगल कार्यों में प्रवृत्त होता है। पुरातन आयुर्विज्ञान विशेषज्ञों ने भी इसके स्वास्थ्य संबंधी महत्व को स्वीकार किया है। चरक तथा सुश्रुत दोनों का ही कहना है कि केश, श्वश्रु तथा नखों के केर्तन एवं प्रसाधन से आयुष्य, शारीरिक पुष्टता, बल, शुचिता एवं सौंदर्य की अभिवृद्धि होती है। अर्थात् केशवपन से भी शरीर पुष्ट, नीरोग एवं सौंदर्य सम्पन्न होता है। व्यक्त है कि गर्भजन्य केशों के कारण शिशु के सिर में खाज, फोड़े, फुंसी आदि चर्मरोगों के होने तथा लंबे बालों के कारण सिर में जूं, लीख आदि कृमि- कीटों के उत्पन्न होने की संभावना भी रहती है। साथ ही गर्भजन्य बालों की विषमता के कारण शिशु के बालों का विकास भी समरुप में नहीं हो पाता है। अतः शैशवास्था में एक बार क्षुर (उस्तरे) से उनका वपन आवश्यकता होता है। केशवपन की इस आवश्यकता का अनुपालन, हिंदुओं के अतिरिक्त अन्य धर्मावलम्बियों में भी देखा जाता है।

क्रिया-विधि
गृह्यसूत्रों में इसकी क्रिया-विधि अति सरल एवं संक्षिप्त रुप में पायी जाती है। इस दिन शिशु के माता- पिता इसके निमित्त तीन ब्राह्मणों को भोजन कराने के उपरांत शिशु की माता उसे स्नान कराकर तथा नूतन वस्र पहना कर यज्ञशाला में जाकर गोदी में लेकर, पूर्वाभिमुख होकर यज्ञाग्नि के पश्चिम में जाकर बैठती थी। पति- पत्नी दोनों अग्नि में घी की चौदह आहुतियाँ देकर वहाँ पर रखे गये जल में गरम जल मिलाते थे। तदनन्तर उस जल में नवनीत या घी अथवा दही मिलाते थे। इस मिश्रित जल से शिशु के बालों को गीला करके उन्हें सेही के कांटे से तीन भागों में विभक्त करके उनके बीच में कुशांकुन ग्रथित करते थे। आश्वलापन गृ. सू. में यहाँ पर छुरे की प्रार्थना भी की गयी है। इसके बाद उन्हें पुनः इस जल से गीला करते हुए पहले दक्षिण के भाग को, फिर पश्चिम के भाग को तथा अंत में उत्तर के भाग को काटा जाता था। इस क्रम में छुरे से सिर को तीन बार साफ किया जाता था। केशों को वहाँ पर पहले से ही रखे हुए बैल के गोबर में आरोपिट कर दिया जाता था। केशों को वहाँ पर पहले से ही रखे हुए बैल के गोबर में आरोपित कर दिया जाता था, जिसे अन्त में गोष्ठ में अथवा किसी जलाशय अथवा जल धारा के समीप भूमि में दबा दिया जाता था।

मस्तकलेपन
सर्वप्रथम शीतोष्णजल में गाय के घी, दूध, दही का मिश्रण कर वैदिक मंत्रों के साथ बालक के बालों को गीला किया जाता है, फिर उन्हें 3 भागों (दायां, बायां और मध्यस्थ) में विभक्त कर उनके बीच में मंत्रोच्चार के साथ कुशा के तृण रख कर उन्हें कलावे से जूड़े के रुप में बांधा जाता है। इसमें सृष्टि के सर्ग, स्थिति एवं संहार के तीनों अधिष्ठातृ देवों ब्रह्मा, विष्णु और महेश से संबंद्ध मंत्रों के द्वारा सृष्टि का संचालन करने वाली इन तीनों महाशक्तियों का आवाहन इस भावना से किया जाता है कि इनके प्रभाव से बालक के मस्तिष्क में सत्कार्यों की सृष्टि, उनका पोषण एव असत्यकार्यों के विनाश की प्रवृतियों का संचार हो सके।

क्षुरपूजन
इसके बाद बालक के माता- पिता क्षुर (उस्तरे) की मूठ पर कलावा बांधकर रोली, अक्षत, धूप, दीप से वैदिक मंत्रों के साथ उसका पूजन करते हैं। तदनन्तर यज्ञ कुण्ड में पांच आहुतियां देकर बालक को यज्ञ स्थल से बाहर ले जाकर उसके बाल उतारे जाते हैं तथा उन्हें गोबर या आटे के पिण्ड में लपेट कर स्वच्छ भूमि में गाड़ दिया जाता है। बालक को स्नान करा कर पीतवस्र धारण कराये जाते हैं तथा उसके मुंडित सिर पर रोली या चन्दन से ऊँ का या स्वस्तिक का चिह्म बनाया जाता है। इसके बाद स्वस्तिवाचन तथा आशीर्वचन के साथ इसकी आनुष्ठानिक प्रक्रिया पूरी हो जाती है। तदनन्तर बधाई, भोज आदि का कार्य होता है। केशबन्धन के समान ही केशवपन के समय भी तीनों ग्रंथियों के अधिष्ठातृ देवों से सम्बद्ध मंत्रों का उच्चारण किया जाता है।
बौधा० शांखायन आदि गृह्यसूत्रों में नापित का कोई उल्लेख न होने से व्यक्त है कि पहले यह कार्य बालक के पिता के द्वारा ही किया जाता था, किन्तु आगे चलकर इसके लिए नापित का भी सहयोग लिया जाने लगा। (संस्काररत्नमाला, पृ० 901 )

केशाधिवासन

उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में जहां कि यह उपनयन के साथ किया जाता है, प्रचलित संस्कार पद्धतियों में इसके आनुष्ठानिक स्तर पर अनेक रुपों की भिन्नता पायी जाती है, यथा, केशाधिवासन। यह क्रिया मुण्डन संस्कार की पूर्वसन्ध्या में की जाती है, इसमें गणेशपूजन के उपरान्त एतदर्थ पीले वस्रखण्डों में हल्दी, दूब, सरसों, अक्षत आदि मंगल द्रव्यों को रख कर उन्हें कलावे से बांध कर नौ पोटलियां बनायी जाती हैं और एक अलग से दसवीं भी बना ली जाती है। तदनन्तर बालक के माता - पिता संकल्प पूर्वक गणेशपूजन करके मुडन संस्कार के निमित्त प्रधान संकल्प लेते हैं, और उन पोटलियों को बालक के बालों को थोड़ा - थोड़ा इकट्ठा करके उन पर बांधते हैं।
पोटलियों को बांधने का क्रम इस प्रकार होता है-
सबसे पहले तीन पोटलियां दाहिने पक्ष की ओर, फिर तीन पीछे की ओर तथा अन्त में तीन बायें पक्ष की ओर और एक शिखा पर। इसके अतिरिक्त दो पोटलियाँ और भी बनाई जाती हैं जिनमें से एक को उस्तरे पर तथा एक को सेही के कांटों पर बांधा जाता है। वहाँ पर एक तांबे की परात में या कांसे की थाली में बैल का गोबर, गाय का घी, दूध, दही, तीखी धारवाला क्षुर, तीन-तीन करके त्रिगुणित सूत्र से लपेटे हुए कुशा के नौ तृणांकुरों को रख कर दक्षिणासंकल्प के साथ ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर पोटलियों को यथावत् सुरक्षित रखने के लिए बालक के सिर पर एक कपड़ा बांध दिया जाता है। इस प्रकार केशाधिवासन का अनुष्ठान किया जाता है। केश मानव शरीर के अंग होने के कारण इनके माध्यम से किसी प्रकार के जादू-टोने के परिहार के निमित्त ही इन्हें गोबर में स्थापित कर भूमि के गर्भ में रखा जाता है।
अगले दिन प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त होकर यज्ञशाला में जाकर संकल्प पूर्वक आचार्य का वरण करके यथाविधि वैदिक मंत्रों के साथ आज्यहोम तथा उसके बाद चूड़ांगहोम किया जाता है। तदनन्तर ज्योतिर्विज्ञान के अनुसार एतदर्थ नियत मुहूर्त में लग्नदानसंकल्प करके वैदिक मंत्रों के साथ पूर्वोक्त रुप में केशकर्तन तथा शिखा को छोड़कर शीर्ष मुंडन किया जाता है। इसकी आनुष्ठानिक प्रक्रिया मैदानी भागों की प्रक्रिया की अपेक्षा अधिक विस्तृत है। अपिच, बटुक का कर्णवेध संस्कार भी इसी के साथ किया जाता है।

शिखासंचयन
यह कोई पृथक् संस्कार तो नहीं, किन्तु चूड़ाकर्म संस्कार का एक महत्त्वपूर्ण अंग होता है। जहां पर बालक का चौलकर्म बाल्यावस्था में सम्पूर्ण केशवपन के रुप में किया जाता है वहां पर शिखाचयन/शिखा स्थापन का कार्य उसके बाद केशवृद्धि हो जाने पर किसी भी दिन कर दिया जाता है और जहां पर चूड़ाकर्म का संस्कार कौमारावस्था में उपनयन के साथ ही किया जाता है वहां पर शिखास्थापन का कार्य उसी के साथ किया जाता है।
धर्मशास्रों के अनुसार बालक की शिखा के स्वरुप तथा उसके स्थापन के स्थान का निर्धारण उसके गोत्र एवं प्रवर के अनुसार किया जाना चाहिए। केशों का संचयन कुलधर्म के अनुरुप किया जाना चाहिए। वीरमित्रोदय में दिए गये विवरण के अनुसार, वशिष्ठ गोत्री लोग सिर के मध्य में केवल एक शिखा रखते थे। अत्रि एवं कश्यप के वंशज सिर के दोनों पक्षों पर दो शिखाएँ रखते थे, अंगिरस गोत्रानुयायी लोग पाँच शिखाएँ रखते थे और भृगु के वंशज कोई शिखा नहीं रखते थे अर्थात् पूर्ण रुप से मुंडित शीर्ष होते थे। ज्ञातव्य है कि गौड़ देशीय ब्राह्मण भृगु गोत्री माने जाते हैं। उत्तर भारत में तो शिखा स्थापना संबंधी इस शास्रीय विधान का अनुपालन संभवतः मध्यकाल में ही शिथिल हो चुका था, फलतः सिर के शीर्ष स्थान पर केवल एक चोटी रखने की परंपरा चल पड़ी थी, किंतु दक्षिण भारत के ब्राह्मणों में पर्याप्त रुप में इस शास्रीय विधान का अनुपालन किया जाता था।

शिखासंचयन का महत्व
शिखासंचयन का संबंध हमारे शरीर के संचालन केंद्र मस्तिष्क की सुरक्षा के साथ होता है। शीर्ष के ऊपरी भाग को मस्तिष्क का मर्म स्थल माना जाता है। ब्रह्मरंध्र की स्थिति भी यहीं पर होती है और यही स्थान होता है, द्विदलीय आज्ञाचक्र का भी। आधुनिक चिकित्साविज्ञानियों का भी कहना है कि बालक को कौमारावस्था से किशोरावस्था की ओर अग्रसर करने वाली तथा हारमोंस के माध्यम से प्रत्येक आयु के व्यक्ति की चिंतन प्रक्रिया का नियमन करने वाली "पीनियल' नामक ग्रंथि भी यहीं पर होती है। मानव के इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण मर्मस्थल को सभी प्रकार के आघातों से बचाये रखने के लिए ही शास्रों में गोखुर प्रमाण शिखा रखने का विधान किया गया था। आचार्य सुश्रुत का कहना है- हमारे मस्तक के अंदर उसके शीर्ष भाग में शिरा संबंधी सन्निपात होता है वहीं पर हमारे मस्तिष्क का नियामक केंद्र भी होता है इस स्थान के आहत होने पर तत्काल मृत्यु हो सकती है।

चेतना जागृति तथा प्रतिज्ञापालन का प्रतीक
भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में शिखा को चेतना जागृति तथा प्रतिज्ञापालन का प्रतीक भी माना जाता रहा है। यही कारण था कि लोग किसी व्रत या प्रतिज्ञा को करते समय शिखा का स्पर्श करते थे, उन्हें निरवच्छिन्न रुप में अपनी प्रतिज्ञा का स्मरण बना रहे, इसलिए उसे बंधनमुक्त कर डालते थे। नंदवंश का नाश करने के लिए शिखामोक्ष के रुप में चाणक्य द्वारा की गयी प्रतिज्ञा का प्रसंग सर्वविदित है ही। पुराणों में इस प्रकार के अनेक संदर्भ पाये जाते हैं, जिसमें ॠषि- मुनि लोगों को क्रुद्ध होने पर संबद्ध व्यक्ति को अभिशप्त करने के लिए शिखामोक्ष करते हुए वर्णित किया गया है। मध्यकाल में हिंदुओं के लिए शिखा एक प्रकार से धर्मध्वजा की प्रतीक थी, जिसकी रक्षा वे अपने प्राणपण से किया करते थे किंतु आज की बदलती परिस्थितियों में यह एक आनुष्ठानिककृत्य मात्र रह गया है।


शनिवार, 20 अप्रैल 2013

राँची में रामनवमी पर निकाली गई झाँकियाँ

राँची में रामनवमी (19 अप्रील 2013) पर निकाली गई झाँकियों में शामिल रामभक्त



दे डालिये अंतिम श्रद्धांजलि पुलिस, कानून, राजनीतिक व्‍यवस्‍था और मानवता को


देश की राजधानी नई दिल्‍ली दरिंदगी से एक बार फिर दहल गई है। पिछले साल दिल्‍ली में चलती बस में हुए गैंगरेप के बाद लोगों का गुस्‍सा जब सड़क पर फूटा तो लगा कि क्रांति आ जाएगी। समाज बदल जाएगा। कानून का राज साकार हो जाएगा। लेकिन अब तो इंतहा हो गई है। पांच साल की एक मासूम के साथ जिस तरह की हैवानियत की गई, उससे ऐसा लगता है कि वसंत विहार गैंगरेप की शर्मनाक घटना से किसी ने सबक नहीं लिया। धीरे-धीरे सबकुछ पुराने ढर्रे पर चल पड़ा। ताजा घटना से ऐसा लगता है कि कुछ भी नहीं बदला है। गुनाह करने वालों को किसी तरह के कानून का डर नहीं है। सियासतदानों पर भी ऐसी घटनाओं का कुछ खास असर नहीं पड़ता दिख रहा है। ऐसी घटनाएं सामने आने पर जिम्‍मेदारी लेने के लिए कोई तैयार नहीं होता बल्कि सत्‍ता पक्ष से लेकर विपक्ष तक राजनीति करने में जुट जाता है। 16 दिसम्‍बर 2012 के पहले जैसे हालात थे वैसे अब भी हैं। ऐसा लगता है कि समाज में पुलिस, कानून, राजनीतिक व्‍यवस्‍था और मानवता का कोई अस्तित्‍व ही नहीं बचा है। तो सवाल है कि जब इनका कोई वजूद ही नहीं है तो क्‍यों न इन्‍हें अंतिम श्रद्धांजलि दे दी जाए?

इस बार अस्पताल में एक मासूम जिंदगी के लिए संघर्ष नहीं कर रही है बल्कि मानवता की सांस अटकी है। यह मौत से पहले की अंतिम हिचकी है और जिंदगी का अंतिम मौका भी। इस बार कोई विकल्प नहीं है। या तो हम हमेशा के लिए शून्य में चले जाएंगे या फिर जिस व्यवस्था में हम जी रहे हैं वह पूरी तरह बदल जाएगी। क्योंकि अब बीच का कोई रास्ता नहीं है।
इस घटनाक्रम के बाद इस बार हम हैरान, आक्रोशित या शर्मिंदा नहीं है। बल्कि हम सुन्न, बेबस, गुमसुम, बेचारे और आशाहीन नजर आ रहे हैं। क्योंकि हमारी सारी कोशिशें, सारे अभियानों का नतीजा शून्य है। 2012 में दिल्‍ली में रेप के 706 मामले सामने आए थे। एक जनवरी से 31 मार्च तक रेप के 393 मामले दर्ज किए गए। पिछले साल की तुलना में रेप के मामलों में 160 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। 2013 में प्रतिदिन औसतन चार से ज्‍यादा बलात्‍कार के मामले सामने आए हैं। अप्रैल में ही दिल्‍ली-एनसीआर में रेप के आठ मामले सामने आए हैं। 16 दिसंबर की वीभत्स घटना के बाद जब जनता 'दामिनी' को इंसाफ दिलाने के लिए सड़कों पर उतरी थी तब बदलाव की एक रोशनी नजर आई थी। लगा था कि युवा पीढ़ी समाज और व्यवस्था को बदलने के लिए मजबूर कर देगी। लेकिन तीन महीनों में ही उम्मीद की वह किरण नाउम्मीदी और बेबसी के धुंधलके में खो गई है।
दिल्‍ली में रेप पीडित बच्ची के पेट से मोमबत्ती और बोतल निकलने के एक दिन पहले ही तो एक लड़की ने पत्थर से लिखकर बताया था कि उसके साथ बलात्कार हुआ है। और हम पथरीले मन और आंखों से बस देखते रहे थे। उससे भी एक दिन पहले ही तो एक नाबालिग छात्रा को बलात्कार के बाद कार से फेंक दिया गया था और सुबह की ब्रेकिंग न्यूज शाम के बुलेटिन से गायब हो गई थी। कितनी पीड़िताएं, कितने रेप, कितने पुलिस के लाठीचार्ज? क्या कोई गिनती है या गिनती करने का कोई फायदा? क्या यह सच नहीं कि बुलंदशहर में बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज करवाने गई बच्ची को ही लॉकअप में बंद कर दिया गया, महाराष्ट्र के भंडारा में तीन सगी बहने बलात्कार के बाद कुएं में फेंक दी गई। सच तो यह है कि आज हम 16 दिसंबर से भी पीछे चले गए हैं। दामिनी की दास्तान जब सामने आई थी तो कम से कम हमारे पास आक्रोश और शर्म तो थी। अब तो यह भी नहीं है।
16 दिसंबर की घटना के बाद सरकार ने यौन हिंसा से जुड़े कानून में बदलाव किए। नए कानून के मुताबिक दुष्कर्म के ऐसे जघन्य मामले, जिनमें पीड़ित की मौत हो जाती है या फिर वह मरणासन्न हालत में पहुंच जाती है, उन मामलों में दोषियों को सजा-ए-मौत दी जा सकेगी। लेकिन ताजा घटना से ऐसा लगता है कि इस कानून का भी डर नहीं है। ऐसा लगता है कि बीते तीन महीनों में देश एक शून्य में चला गया है। न उम्मीद है, न आशा है और न ही बदलाव के संकेत। ऐसे में अब हमारे पास विकल्प क्या हैं? सड़क पर उतरें, लाठियां खाएं, नारे लगाए और बदलाव की उम्मीद में घर चले जाएं। और फिर जब किसी और बच्ची से रेप हो तो पुलिसवाले एफआईआर दर्ज करने के बजाए बच्ची के परिवार को मुंह बंद करने के लिए रिश्वत दें। ऐसा क्यों है कि आजादी के 66 साल बाद भी बलात्कार जैसी घटनाओं की एफआईआर दर्ज नहीं हो रही है और एसीपी स्तर के अधिकारी बेशर्मी की तमाम हदों को पार करते हुए कैमरे के सामने ही लड़कियों के मुंह पर तमाचा मारने की हिम्मत कर पा रहे हैं? हर गुजरते वक्त के साथ हम शून्य और अंधकार की ओर बढ़ते जा रहे हैं। क्या यह संवेदनहीनता की इंतहा नहीं कि इतनी वीभत्स घटना की जानकारी दिए जाने पर महिला आयोग की अध्यक्ष तत्‍काल कार्रवाई का भरोसा देने के बजाय छुट्टी होने का हवाला देती हैं।
सवाल यह भी उठता है कि हम किस समाज में जी रहे हैं। यहां नैतिक मूल्‍यों का ह्रास हो रहा है। दिल्‍ली की ताजा घटना पर पीएम मनमोहन सिंह भी बेहद आहत हैं और वह समाज को खुद के भीतर झांकने की नसीहत दे रहे हैं। लेकिन मुर्दा हो चुकी व्यवस्था की जिंदा हकीकत यह है कि इंडिया गेट पर लगे नारे हवा हो गए हैं, बदलाव की उम्मीद निराशा के अंधेरे में बदल गई है। आक्रोश के लिए जरूरी ऊर्जा बेबसी की थकान में बदल चुकी है। एक विचार जो मन में आता है वह यही है कि अब इस देश का कुछ नहीं हो सकता। बस इस देश के सिस्टम को दी जाए अंतिम श्रद्धांजलि और स्वयं ही कुछ किया जाए। (Bhaskar)

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

वैद्यनाथधाम मंदिर में अरघा व्यवस्था का हुआ प्रयोग

2013 श्रावणी मेले में अरघा के माध्यम से भोलेनाथ पर होगा जलार्पण












 झारखंड में देवघर स्थित प्रसिद्ध बाबा वैद्यनाथधाम मंदिर में रामनवमी के दिन शुक्रवार को नई पूजा व्यवस्था का प्रयोग किया गया। रामनवमी के मौके पर श्रद्धालुओं ने बाबा भोलेनाथ पर ’अरघा व्यवस्था’ के तहत जलार्पण किया। इस व्यवस्था के तहत श्रद्धालुओं कोे बाबा मंदिर के गर्भ गृह में प्रवेश के बजाय दूर से ही ’अरघा’ के माध्यम से जलार्पण करने की अनुमति दी गयी। इस वर्ष श्रावणी मेले में अरघा व्यवस्था के माध्यम से ही श्रद्धालुओं को जलार्पण की अनुमति मिल सकेगी। इसके तहत भक्त द्वादश ज्योतिर्लिंग में एक वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग को स्पर्श किये बिना दूर से ही शिवलिंग पर जलार्पण कर सकेंगे। 12 फुट लंबे इस अरघे को विशेष तौर पर दिल्ली से मंगाया गया और शुक्रवार को जिला प्रशासन की मौजूदगी में मंदिर प्रबंधन की ओर से इसका सफल प्रयोग किया गया। नई व्यवस्था के प्रयोग के दौरान जिले के उपायुक्त व मंदिर प्रबंधन समिति के प्रमुख राहुल पुरवार भी उपस्थित थे। उन्होंने इस व्यवस्था को सफल बताया। अरघा व्यवस्था के तहत श्रद्धालुओं को बाबा मंदिर के गर्भ गृह में प्रवेश नहीं कराया जाता है, बल्कि गर्भ गृह, जहां शिवलिंग है, वहां से लेकर दरवाजे तक अरघे की व्यवस्था की गयी है। उस अरघे में भक्तों ने जल व फूल डाला और वह जल व फूल अरघे के ढलान के माध्यम से गर्भगृह में स्थित ज्योतिर्लिंग पर गिरा और दूर से ही भक्त बाबा भोलेनाथ का दर्शन कर पाये। मंदिर प्रबंधन का दावा है कि इस व्यवस्था से अधिक-से-अधिक संख्या में भक्त जल अर्पित कर पाएंगे। मंदिर प्रबंधन का दावा है कि नई पद्धति में एक घंटे में 4 से 5 हजार श्रद्धालु जल अर्पित कर पाएंगे।

शनिवार, 13 अप्रैल 2013

सरहुल : सूरज से धरती के विवाह का अद्भुत नजारा


प्रकृति की पूजा का पर्व और सूरज से धरती के विवाह का प्रतीक सरहुल का झारखण्ड में अद्भुत नजारा रहता है। झारखंड में प्रकृति की उपासना का पर्व सरहुल आज चैत्र शुक्ल तृतीया शनिवार को धूमधाम से मनाया गया जा रहा है। विभिन्न अखाड़ों और सरना स्थलों पर लोग शनिवार को सुबह सरहुल की पूजा-अर्चना के लिए जमा हुए। पूजा-अर्चना के बाद विभिन्न मुहल्लों व आसपास के गांवों से शोभा यात्र्ाा निकाली जाती है। सरना धर्मावलंबियों की ओर से एक दिन पहले उपवास रखा जाता है और शाम में सरना स्थलों पर घड़ों में जल भी रखा जाता है। इन घड़ों के जलस्तर को देख कर पाहन यानी आदिवासियों के पुरोहित ने इस वर्ष होने वाली बारिश की भविष्यवाणी की। पूजा-अर्चना के बाद सरहुल शोभा यात्र् में विभिन्न इलाकों से सरना समितियां झंडे के साथ शामिल होती हैं। इस बार भी ऐसा ही हुआ। रांची में शोभायात्र् में बड़ी संख्या में महिलाएं और बच्चों तथा युवक-युवतियां भी मौजूद थीं। सरना स्थल में पहुंचकर शोभा यात्र्एं वापस अपने-अपने क्षेत्र् में लौट गयीं। शोभा यात्र् को लेकर शहर के प्रमुख मार्गा के किनारे सरना झंडे लगाए गए थे। जुलूस में कई आकर्षक झांकियां भी शामिल थीं। शोभा यात्र्में शामिल लोगों के लिए जगह-जगह पेयजल की भी व्यवस्था की गयी थी। अल्बर्ट एक्का चौक के निकट बने पंडाल के निकट एक मंच भी बनाया गया था। उसमें आकर्षक झांकियां और बेहतर खेल दिखाने वाले खिलाड़ियों को पुरस्कृत किया गया। इस मौके पर मांदर और ढोल की थाप पर लोग देर रात तक झूमते रहे।
यहां देखिये रांची में सरहुल के नजारे-










शनिवार, 30 मार्च 2013

हो रहा है सीबीआइ का दुरुपयोग


शीतांशु कुमार सहाय

अगले वर्ष होने वाला लोकसभा निर्वाचन समय से हो या पहले मगर एक बात तो तय है कि हाल के 2-3 वर्षों से जो कुछ हो रहा है उन घटनाओं की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण होने वाली है। इन घटनाओं में सबसे प्रमुख है सीबीआइ का दुरुपयोग। समाजवादी पार्टी के संस्थापक व सर्वेसर्वा मुलायम सिंह यादव की मुलायमियत इन दिनों गायब होती महसूस हो रही है। ऐसा ही महसूस कर रही है कांग्रेस भी। केन्द्र की सत्ता से चिपकी कांग्रेस को मुलायम की दूरी कुछ ज्यादा ही खटकती है। ममता बनर्जी की तृणमूल पार्टी व करुणानिधि की द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम यानी डीएमके के साथ छोड़ देने से दलों के सहयोग की दरकार कांग्रेस को अधिक है। इस गरज को मुलायम भी गहराई से महसूस कर रहे हैं। इसलिए उनकी जुबान बेनी की तरह बदजुबान तो नहीं हुई पर उनकी जुबान अब आडवाणी का गुणगान करने लगी है। उनकी पार्टी केंद्रीय मंत्री बेनी वर्मा को पागल कहती है जो कभी उनके प्रिय पात्र थे। इससे इतर कांग्रेस पर केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो के दुरुपयोग का भी आरोप खुलेआम लगाया। सपा प्रमुख ने जो कहा है, वही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) भी कहती आई है। ऐसा ही आम आदमी पार्टी के प्रमुख अरविन्द केजरीवाल व प्रख्यात समाजसेवी अन्ना हजारे भी कहते हैं। पर, मुलायम का कहना खास असरकारक है। शेष सभी तो विरोधी हैं ही, मुलायम का सरकार समर्थक कुनबे में रहने के बावजूद विरोध करने का कारण अलग है। पर, विरोध की बात करते हुए सरकार से समर्थन वापस न लेने की लाचारी उनके हालिया वक्तव्य में झलकती है। कनिमोंझी व डीएमके का उदाहरण देते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि विरोधियों के पीछे कांग्रेस सीबीआइ को लगा देती है। विदित हो कि डीएमके प्रमुख करुणानिधि ने केन्द्र से समर्थन वापसी की घोषणा कि और उनके पुत्र के घर पर सीबीआइ का छापा पड़ गया।

दिग्गजों को सीबीआइ से डर लगता है। जिसने गलती की नहीं उसे तो नहीं डरना चाहिए। स्वामी रामदेव की तरह निर्भय होकर सीबीआइ जांच करानी चाहिए। वैसे प्रकरण रामदेव का हो या उनके मित्र स्वामी बालकृष्ण का, मायावती या मुलायम का- गौर करें तो सीबीआइ के दुरुपयोग के ऐसे कई अन्य उदाहरण भी मिल जाएंगे। जब तक स्वामी रामदेव ने कांग्रेस का विरोध नहीं किया तब तक वे भद्र पुरुष थे। सभी नयाचारों को ताक पर रखकर उनकी अगुवाई करने हवाई अड्डे पर पांच केन्द्रीय मंत्री भी हाजिर हो गए थे। पर, जैसे ही उन्होंने कांग्रेसी खिलाफत शुरू की, उनके उत्पाद की गुणवत्ता जांचने सहित उनके गुम हुए गुरु की खोजबीन के नाम पर उनके पीछे सीबीआइ को लगा दिया गया। यही नहीं भाजपा की पिछली राज्य सरकार द्वारा हिमाचल प्रदेश में रामदेव की संस्था को दी गई जमीन को वापस लेने की प्रक्रिया शुरू हो गई; क्योंकि वहां कांग्रेस की सरकार सत्ता में आ गई। इसी तरह स्वामी बालकृष्ण को परेशान करने के लिए भी सीबीआइ का इस्तेमाल हो रहा है। उन्हें नेपाली साबित करने की भी जद्दोजहद हो रही है और उनकी वैद्य की उपाधि को भी फर्जी बताया जा रहा है। यदि बालकृष्ण नेपाली हैं भी तो हो-हल्ला की कोई जरूरत नहीं है। भारतीय संविधान के अनुसार, नेपाली को भारत में सरकारी नौकरी भी करने का अधिकार है। क्या कांग्रेस को संविधान की यह बात मालूम नहीं? यदि रामदेव, उनके सहयोगी या उनकी संस्था इतनी बदतर है तो जांच वर्षों पहले ही शुरू क्यों नहीं हुई? वैसे कांग्रेस नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार को समर्थन देकर सीबीआइ जांच की आंच से फिलहाल मायावती व मुलायम सुरक्षित हैं। उनकी संचिकाएं सीबीआइ के किस कार्यालय में धूल खा रही हैं, पता नहीं! इन घटनाओं को केवल संयोग नहीं कहा जा सकता।

यहां अन्ना आंदोलन के दौरान सीबीआइ को जनलोकपाल के अंतर्गत लाने के पुरजोर प्रयास का उल्लेख करना आवश्यक है। अन्ना, केजरीवाल, किरण बेदी, संतोष हेगड़े व प्रशान्त भूषण जैसे प्रखर समाजसेवियों ने स्पष्ट कहा था कि जब तक केन्द्र सरकार के अंतर्गत सीबीआइ रहेगी तब तक भ्रष्टाचार पर पूर्णतः अंकुश लगाना सम्भव नहीं होगा। यह भी कहा गया कि यदि ऐसा नहीं होता है तो सरकार सीबीआइ का विद्वेषपूर्ण इस्तेमाल कर सकती है। लगता है कि अभी ऐसा ही हो रहा है। इसपर लगाम जरूरी है अन्यथा सीबीआइ की रही-सही विश्वसनीयता पर भी प्रश्न चिह्न लग जाएगा।

मंगलवार, 26 मार्च 2013

होली : जीवन का अंग है रंग Holi : Colour Is A Part Of Life

शीतांशु कुमार सहाय

       हो-ली अर्थात् किसी के साथ हो लेने को ही होली की संज्ञा दी जाती है। चूंकि ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि के उपरान्त विवेक भी दिया है इसलिए विवेकानुसार अच्छाई के साथ ही होना मनुष्यता को प्रदर्शित करेगा। मनुष्यता प्रदर्शित करते हुए अच्छाई के साथ हो लीजिये और तब देखिये कि होली का कितना मजा आता है! मजा तो तब सजा में बदल जाता है जब बुराई के साथ हो लिया जाता है। यकीन मानिये कि होली में अधिकतर बुराई को ही आत्मसात् करने की एक परम्परा-सी चल पड़ी है। खूब नशा करो और जी भर कर हुल्लड़बाजी करो, अगर कोई प्रतिकार करे तो जबर्दस्ती करो और सामने वाला अगर शक्तिशाली निकला तो बुरा न मानो होली है का घिसा-पिटा जुमला सुना दो। यही सूत्र वाक्य हो गया है आजकल होली का। इसे कभी भी उचित नहीं ठहराया जा सकता। उपर्युक्त संदर्भ को यदि अपने ऊपर लागू करवाएं तो आपको शालीन होली का अभद्र स्वरूप दिखाई देगा। जो शालीन है उसे शालीन ही रहने दीजिये। प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई और नाम न दो। शानदार परम्परा को बिगाड़ने का अनधिकृत अधिकार अपने हाथों में लेकर स्वयं को निन्दा का पात्र बनाना उचित तो नहीं। वास्तव में होली का सरोकार न नशे से है और न ही अभद्रता से। इसका सम्बन्ध तो अहंकारशून्य होकर सौहार्द फैलाने से है। यह सौहार्द केवल एक धर्म-विशेष से ही आबद्ध न होकर सम्पूर्ण समाज से जुड़ा है। 

       सौहार्द से पारस्परिक प्रेम का ऐसा प्रणयन होता है जो युगों-युगों तक घर-परिवार-समाज को स्नेह की शीतल छाया प्रदान करता रहता है। ऐसे वातावरण में अहंकारशून्य अर्थात् संस्कारित संतति उत्पन्न होती है। ऐसे संस्कारवानों से ही समतामूलक समाज की उत्पत्ति होती है। समानता पर आधारित समाज के निर्माण में जब प्रह्लाद को भारी समस्या का सामना करना पड़ा, घर-परिवार का भी सहयोग नहीं मिला, यहां तक कि पिता हिरण्यकश्यप भी जान के दुश्मन बन गए तब भगवान को आना ही पड़ा। सामाजिक सौहार्द के शत्रु का अवसान हुआ और फिर से अमन-चैन का राज कायम हुआ। यह पौराणिक घटना केवल धर्मारूढ़ नहीं; बल्कि सर्वधर्म समाज पर लागू होने वाला वैज्ञानिक सत्य है। इसे नकारा नहीं जा सकता। वैज्ञानिकता यह कि किसी भी प्राणी योनि में जन्म लेकर अमरता को आत्मसात् नहीं किया जा सकता। कोई-न-कोई एक कारण होगा ही जिसके कारण मौत को गले लगाना पड़ेगा। इसी कारण न धरती, न आकाश, न पाताल में; न दिन में, न रात में; न किसी अस्त्र-शस्त्र से और किसी मानव-दानव-देव के हाथों न मरने का वरदान पाकर हिरण्यकश्यप अपने को अमर समझने की भूल कर बैठा। इसलिए भगवान को नरसिंह का रूप धारण कर संधि काल में अपने घुटने पर रखकर भयानक नाखूनों से उसे मृत्यु दण्ड देना पड़ा। यहां जानने वाली वैज्ञानिकता यह है कि दूसरों को सताते समय अहंकारवश अपने को अमर समझने की भूल की जाती है। इसी भूल को जला डालना ही वास्तविक होलिका दहन है। 

       समस्त भूलों व दुष्प्रवृत्तियों को जलाने के पश्चात् रंगों से होली खेलने की बारी आती है। लाल, पीले, हरे, नीले- सभी रंग मिलकर एक हो जाते हैं। रंगों से सराबोर सबके चेहरे एक जैसे लगते हैं। किसी में कोई फर्क नहीं रह जाता है। सभी समान नजर आते हैं। होली अपनी समता यहीं प्रकट करती है। विभिन्न रंगों में छिपे चेहरों में कौन अरबपति और कौन खाकपति है, यह पता लगाना मुश्किल होता है। कौन खाते-खाते परेशान है और कौन खाए बिना- रंगों के बीच यह विभेद भी सम्भव नहीं। जीवन का अंग है रंग, इसे दुत्कारिये नहीं स्वाकारिये। वसन्त के इस रंगीले पर्व के माध्यम से अपने जीवन में भी नवविहान लाइये, रंगीन हो जाइये होली के साथ!
 

सोमवार, 25 मार्च 2013

बिहार के पूर्णिया में जली थी होलिका



भगवान नरसिंह के अवतार से जुड़ा खंभा आजकल माणिक्य स्तंभ कहलाता है।

अनेक पौराणिक कथाएं जुड़ी हैं बिहार से। होली के एक दिन पूर्व होने वाले होलिका दहन का भी सम्बन्ध बिहार से है। वास्तव में होलिका दहन बुराई पर अच्छाई की जीत को दर्शाता है। असुर राज हिरण्यकश्यप की बहन होलिका का दहन बिहार में हुआ था। तभी से प्रतिवर्ष होलिका दहन की परंपरा चल पड़ी। यहां पूर्णतः जंगल वाला यानी पूर्ण अरण्य वाला एक क्षे़त्र था जो कालान्तर में पूर्णिया कहलाया। अभी यह बिहार का एक जिला है। इस जिले के बनमनखी प्रखंड के सिकलीगढ़ में वह स्थान है जहां भगवान विष्णु के प्रिय भक्त प्रह्लाद को होलिका अपनी गोद में लेकर आग में बैठी थी। होलिका तो भस्म हो गई मगर प्रह्लाद को भगवान विष्णु ने बचा लिया। भगवान विष्णु ने उसी समय नरसिंह के रूप में अवतरित होकर हिरण्यकश्यप का वध किया था।
पौराणिक कथा के अनुसार, सिकलीगढ़ में हिरण्यकश्यप का राजमहल था। इसी राजमहल में अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा के लिए भगवान विष्णु राजमहल के एक खंभे से नरसिंह के रूप में अवतरित हुए थे। भगवान नरसिंह के अवतार से जुड़ा खंभा आजकल माणिक्य स्तंभ कहलाता है जो आज भी यहां मौजूद है। इसे कई बार तोड़ने का प्रयास भी हुआ मगर यह स्तंभ झुक तो गया, टूटा नहीं। झूके हुए स्तम्भ को आप चित्र में भी देख सकते हैं। पूर्णिया जिला मुख्यालय से लगभग 40 किलोमीटर दूर स्थित सिकलीगढ़ जहां प्राचीन काल में 400 एकड़ के दायरे में कई टीले थे, जो अब 100 एकड़ में ही सिमट गए हैं। इन टीलों की खुदाई में कई पुरातन वस्तुएं निकली हैं। गोरखपुर के गीता प्रेस की धार्मिक पत्रिका ‘कल्याण’ के 31वें वर्ष के विशेषांक में सिकलीगढ़ को भगवान विष्णु के नरसिंह अवतार का स्थल बताया गया। इसकी प्रामाणिकता के कई साक्ष्य हैं। यहीं हिरन नदी बहती है जो हिरण्यकश्यप के नाम से सम्बद्ध है। कुछ वर्षाे पहले तक नरसिंह स्तंभ में एक छेद था जिसमें पत्थर डालने से वह हिरन नदी में पहुंच जाता था। यहां भीमेश्वर महादेव का भव्य मंदिर है। पौराणिक मान्यता है कि हिरण्यकश्यप का भाई हिरण्याक्ष वराह क्षेत्र का राजा था। वराह क्षेत्र अब नेपाल में पड़ता है। जिस स्तम्भ से भगवान विष्णु ने नरसिंह अवतार लिया था, वह आजकल ‘प्रह्लाद स्तंभ’ कहलाता है। इस स्तम्भ का रख-रखाव के लिए बनाए गए ‘प्रह्लाद स्तंभ विकास ट्रस्ट’ के अध्यक्ष बद्री प्रसाद साह के अनुसार, यहां साधु-सन्तों का जमावड़ा रहता है। भागवत पुराण के सप्तम स्कंध के अष्टम अध्याय में भी माणिक्य स्तंभ स्थल का जिक्र मिलता है। भागवत पुराण के अनुसार, इसी खंभे से भगवान विष्णु ने नरसिंह अवतार लेकर अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा की थी और दुष्ट हिरण्यकश्यप का वध किया था।

सिकलीगढ़ में राख और मिट्टी से होली खेली जाती है। होलिका के भस्म होने और प्रह्लाद के चिता से सकुशल वापस आने पर प्रह्लाद के समर्थकों ने चिता की राख और मिट्टी एक-दूसरे को लगाकर खुशी मनाई थी। तभी से यहां राख और मिट्टी से होली खेली जाती है। यहां होलिका दहन के दिन दूर-दराज से हजारों श्रद्धालु होलिका दहन के समय उपस्थित होते हैं और राख-मिट्टी से होली खेलते हैं।

सिकलीगढ़ में भगवान विष्णु के प्रिय भक्त प्रह्लाद को होलिका अपनी गोद में लेकर आग में बैठी थी।

उपेक्षित है सिकलीगढ़ टीला
बिहार के पूर्णिया जिलास्थित बनमनखी अनुमंडल में सैकड़ों एकड़ में फैले टीले आज भी अपनी पौराणिकता का परिचय दे रहा है। पर, इस ओर न बिहार साकार का और न ही पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का ही ध्यान गया है। इस कारण यह उपेक्षित है। बड़े-बड़े ईटों से बने इन टीलों को अनधिकृत रूप से तोड़कर इसके पौराणिक स्वरूप को नष्ट किया जा रहा है। भागवत पुराण के अनुसार, यहां हिरण्यकश्यप का राजमहल था। भगवान विष्णु ने यहीं नरसिंह अवतार लेकर अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा की थी और हिरण्यकश्यप का वध किया था।

मंगलवार, 19 मार्च 2013

5 पतियों वाली कलयुगी द्रोपदी राजो वर्मा/FIVE HUSBANDS BUT ONE WIFE RAJO VERMA

देहरादून। पुरुष मानसिकता वाले समाज में आप यह खबर पढ़कर चौंक जाएंगे कि एक महिला के पांच पति और सभी के सभी आपस में सगे भाई हैं। यह परिवार आपस में काफी खुश है और मिल-जुलकर रहता है। पहाड़ पर रहने वाली 21 साल की राजो वर्मा अपने पांच पतियों के साथ एक ही कमरे में रहती हैं और सभी फर्श पर कंबल बिछाकर साथ ही सोते हैं। एक बच्चे की मां राजो जो हर रात अलग-अलग भाई के साथ सोती है और उसे यह नहीं मालूम कि 18 महीने के उसके बेटे का बाप पांच पतियों में से कौन हैं। एक महिला के कई पति यह देखने व सुनने में अजीब लग सकता है लेकिन देहरादून के पास एक छोटे से गांव में सदियों पुरानी यह परंपरा आज भी कायम है। इस परंपरा के अनुसार महिला को अपने पहले पति के सभी भाइयों के साथ शादी करनी होती है। पांच पतियों वाली राजो का कहना है कि शुरुआत में उसे यह परंपरा बहुत बेतुकी लगी थी। लेकिन अब वह नहीं चाहती कि ऐसा किसी और के साथ हो। राजो और उसके पहले पति गुड्डू की शादी चार साल पूर्व हिंदू रीति-रिवाजों के साथ हुई थी। इसके बाद राजो ने अन्य भाइयों बैजू [32 साल], संत राम [28 साल], गोपाल [26 साल] और दिनेश [19 साल] के साथ विवाह किया। दिनेश के 18 साल के होने पर उसने अपना पांचवां ब्याह रचाया। राजो के पहले पति गुड्डू का कहना है कि हम सभी उसके साथ सेक्स करते हैं लेकिन मैं किसी के प्रति ईष्र्यालु नहीं हूं। हम लोग एक बड़े परिवार में साथ रहकर खुश हैं। गुड्डू ही राजो का एकमात्र अधिकारिक पति है। सदियों पहले प्राचीन भारत में कई जगहों पर बहुपति प्रथा कायम थी लेकिन आज केवल एक अल्पसंख्यक समाज में ही यह परंपरा है। इस परंपरा के पीछे यह माना जाता है कि इससे परिवार में जमीनों का बंटवारा नहीं होगा और परिवार आपस में एकजुट बने रहेंगे। राजो का कहना है कि उसे पता था कि उसे अपने पति के सभी भाइयों को स्वीकार करना होगा। राजो की मां ही ने खुद तीन भाइयों के साथ शादी की थी। वह कहती हैं कि सभी अपनी पारी के आधार पर ही आते हैं। हालांकि इस बडे़ परिवार में एक भी बेड नहीं है लेकिन उसके पास कई 'कंबल' जरूर हैं। साथ ही वह कहती हैं कि सभी पति मेरा खूब ध्यान रखते हैं और उनसे ढेर सारा प्यार भी पाती हूं। पुरुषवादी समाज में एक महिला के कई पति हों ऐसा बहुत कम ही दिखाई देता है। प्राचीन काल में रची गई महाभारत में पांचाल के राजा की बेटी द्रौपदी के भी पांच पति थे। द्रौपदी ने युधिष्ठिर समेत उनके सभी चार भाइयों के संग विवाह किया था। (danik jagran)


सोमवार, 18 मार्च 2013

पत्रकार को हरा रंग से होली का उत्सव मनाना चाहिए/GREEN COLOUR FOR JOURNALIST

होली आने में कुछ ही दिन बचे हैं तो रंगों से जुड़ी कुछ जानकारियां काफी फायदेमंद हो सकती है। इस होली पर ऐसा कौन सा रंग इस्तेमाल करें जो व्यवसाय, नौकरी एवं पेशों के लिए लाभदायक हो। रंगों का चयन अपने आय स्रोत के अनुकूल करने से लाभ को बढ़ा सकते हैं तथा मान-प्रतिष्ठा भी अर्जित कर सकते हैं।
लाल रंग : लाल रंग भूमि पुत्र मंगल का रंग है। भूमि से संबंधित कार्य करने वाले बिल्डर्स, प्रापर्टी डिलर्स, कॉलोनाइजर्स, इंजीनियर्स, बिल्डिंग मटेरियल का व्यवसाय करने वाले एवं प्रशासनिक अधिकारियों को लाल रंग से ही होली का उत्सव मनाना चाहिए तथा गरीबों को भोजन कराने से अप्रत्याशित लाभ होगा। सभी कामनाएं पूर्ण होंगी।
पीला : पीला रंग गुरु का प्रतिनिधित्व करता है। गुरु सोना, चांदी, अन्न व्यापार आर्थिक पक्ष को प्रभावित करता है। अनाज व्यापारी, सोना, चांदी व्यापारी शेयर का धंधा करने वाले से इस वर्ष अपनी स्थिति मजबूत करेंगे। अपने अन्य साथियों से आप दोगुनी अच्छी स्थिति में रहेंगे। सम्मानित होंगे।
हरा : हरा रंग बुध ग्रह का प्रतिनिधित्व करता है। व्यापार में वृद्धि, शिक्षक, अभिभाषक, विद्यार्थियों, जज को सफलता हेतु एवं लेखक, पत्रकार, पटकथा, लेखक को भी होली हेतु इस रंग का प्रयोग करना, लाभ एवं सफलता दिलाएगा। कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर एवं हार्डवेयर इंजीनियर भी हरा रंग का प्रयोग कर सकते हैं।
नीला : नीला रंग शनि ग्रह का प्रतिनिधित्व करता है। अभिनेता, रंगमंच, कम्प्यूटर व्यवसायी, प्लास्टिक, आइलपेंट, स्क्रेप, लौहा व्यवसायी एवं राजनीतिज्ञ लोग होली उत्सव नीले रंग से मनाएं। इससे इस वर्ष नई ऊंचाइयां एवं नवीन पद को प्राप्त करेंगे। आर्थिक एवं सामाजिक लाभ होगा।