शनिवार, 26 अक्तूबर 2013
आप न रोएँ प्याज के आँसू : बदल लें थोड़े समय के लिए आदत
-शीतांशु कुमार सहाय
जहाँ खाद्य पदार्थों के सर्वाधिक किस्मों की भरपूर पैदावार होती है, वहाँ केवल एक खाद्य पदार्थ की कीमत बढ़ने पर इतना हंगामा! भारत में खाद्य समस्या की कई वजहों में एक यह भी है कि भारतीय परम्परागत भोजन में तनिक बदलाव नहीं चाहते, क्षणिक परिवर्तन भी उन्हें नागवार गुजरता है। इसका मतलब यह नहीं कि भोजन को पूरी तरह से बदलकर फास्ट फूड ही सेवन किया जाये। यहाँ कहने का आशय यह है कि विश्व में सर्वाधिक किस्म के खाद्य भारत में उपजाये जाते हैं। इसका एक फायदा यह भी लिया जा सकता है कि कम उपज, जमाखोरी, परिवहन की गड़बड़ी या त्रुटिपूर्ण वितरण आदि कारणों से जब किसी एक भोज्य-सामग्री की कीमत बढ़ जाये तो वैकल्पिक दूसरी भोज्य-सामग्री का सेवन किया जा सकता है; बल्कि किया ही जाना चाहिये। ऐसा करने से महंगाई का असर कम महसूस होगा, बाजार में माँग घटने से छोड़ी गयी महंगी भोज्य-सामग्री की कीमत घटेगी और कृत्रिम मूल्य-वृद्धि करने वाले हतोत्साहित भी होंगे। जब ये 3 प्रमुख फायदे हैं तो थाली में कुछ अलग परोसने में हर्ज ही क्या है? यदि सुधी पाठक ऐसा करने लगंे तो यकीनन उन्हें प्याज के आँसू रोना नहीं पड़ेगा।
1947 के बाद पहली बार प्याज ने चटकारे लेकर खाने वालों को मोरारजी देसाई के शासन काल में रुलाया था। उसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में प्याज ने आँसू निकाला। अब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्र का कमाल दीख रहा है कि देश की राजधानी नयी दिल्ली में प्याज ने प्रति किलोग्राम मूल्य के मामले में शतक लगाया है। कई नकारात्मक कीर्तिमान मनमोहन के काल में बने जिनमें प्याज की वर्तमान महंगाई भी है। प्याज की कीमत के मामले में भी वर्तमान प्रधानमंत्री ने पिछले दोनों प्रधानमंत्रियों को पीछे छोड़ दिया है। महंगे प्याज के राजनीतिक चक्कर में काँग्रेस पिस रही है। केन्द्र में तो उसकी सरकार है ही नयी दिल्ली में भी शीला दीक्षित के नेतृत्व में काँग्रेस ही सत्तासीन है जिनके निर्देश पर दिल्ली के अधिकारी महाराष्ट्र के नासिक में हजार टन प्याज न मिलने पर राजस्थान के अलवर में जा रहे हैं। इस मूल्य-वृद्धि के पीछे कम उपज जिम्मेवार नहीं है। पिछले 10 सालों में प्याज की पैदावार में 300 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। भारत में 2002-2003 में 42 लाख मीट्रिक टन प्याज की पैदावार हुई थी जो 10 साल बाद 2012-2013 में 163 लाख मीट्रिक टन तक जा पहुँचा है। इन्हीं 10 सालों में भारत की जनसंख्या महज 1.7 प्रतिशत बढ़ी है।
ऐसा भी नहीं है कि प्याज की पैदावार में इस साल अचानक कोई कमी आयी है। केंद्रीय कृषि मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले नासिक स्थित राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अनुसंधान और विकास फाउंडेशन के उप निदेशक एचआर शर्मा के अनुसार 2013-2014 में प्याज की पैदावार 10-15 प्रतिशत बढ़ने वाली है। प्याज की कमी के पीछे निर्यात या प्रोसेसिंग उद्योग की भारी खपत भी कारण नहीं हैं। कृषि मंत्रालय के अंतर्गत ही कार्यरत ‘प्याज और लहसुन अनुसंधान संस्थान’ के निदेशक जयगोपाल का कहना है कि समूची पैदावार का 10 प्रतिशत ही निर्यात होता है और इतना ही प्रोसेसिंग उद्योग को दिया जाता है। प्याज की कमी के पीछे आपूर्ति तंत्र जिम्मेवार है। इस साल के शुरुआत में भारतीय प्रतियोगिता आयोग (सीसीआई) ने भारत के प्याज बाजार पर एक रपट तैयार की थी, जिसमें कहा गया था कि बाजार के हर स्तर में कमीशन एजेंट अपना हिस्सा लेने के लिए बैठे हैं और इस दलाली के कारण एक ओर किसान तो दूसरी ओर ग्राहक परेशान हैं। सीसीआई की सदस्य गीता गौरी के अनुसार, दलाली तंत्र को तोड़ने के लिए रपट की प्रतियाँ राज्य सरकारों को भेजी गयीं पर किसी राज्य ने कार्रवाई नहीं की, नतीजतन प्याज की कीमत बढ़ती गयी।
यह रपट प्याज क्षेत्र में आने वाली 11 मण्डियों के किसानों, होलसेल व्यापारियों, कमीशन एजेंट्स, खुदरा दुकानदारों व ग्राहकों से मिलकर ‘इंस्टीट्यूट फॉर सोशल एण्ड इकोनॉमिक चेंज’ ने तैयार की। जब यह सर्वेक्षण सीसीआई ने कराया था तब पाया कि किसानों से प्याज महज 5 रुपये प्रति किलोग्राम के भाव से लिया जाता है और वही प्याज पुणे व बेंगलुरु में पहुँचकर 20 रुपये प्रति किलोग्राम या इससे अधिक हो जाता है। सीसीआई की सदस्य गीता गौरी बताती हैं- हमने पाया है कि बड़े व्यापारी एक जटिल तंत्र बनाए हुए हैं, जिनसे वह प्राथमिक मण्डी से लेकर मूल्य तक को प्रभावित करते हैं। व्यापारी मण्डियों में नीलामी तक नहीं होने देते। गीता गौरी के अनूसार, चूँकि कृषि राज्य सूची का विषय है, हम अपनी रपट राज्य सरकारों को भेज सकते हैं, कुछ कर नहीं सकते। ...तो वर्तमान परेशानी का हिस्सा आप न बनें, थोड़े समय के लिए रुचि में बदलाव ले आयें।
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